वह अक्सर सोचती कि काश! भगवान ने उसे एक बहन दी होती, जिससे वह अपने मन की बातें कह सकती. भविष्य में उसकी बेटी गुंजन की स्थिति भी उसकी तरह न हो जाए, इसीलिए सुरभि अपनी दूसरी संतान भी बेटी ही चाहती थी.
तीव्र प्रसव वेदना के बाद जब सुरभि ने लड़की को जन्म दिया, तो उसे नर्स की बुझी हुई सी आवाज़ सुनाई दी, "बेटी हुई है." सुनते ही सुरभि के चेहरे पर इत्मिनान के भाव छा गए.
उसे याद आया प्रसव के लिए अस्पताल आते समय पड़ोस की राधा मौसी ने कहा था, "एक बेटी तो तुम्हारे पहले ही है, इस बार बेटा लेकर आना." सुरभि मुस्कुरा दी थी.
अपनी मर्ज़ी से बेटा या बेटी को जन्म देना स्त्री के बस में होता तो उसे इतनी तकलीफ़ क्यों सहनी पड़ती? और अगर ऐसा हो भी सकता तो सुरभि बेटे को नहीं, बल्कि बेटी को ही जन्म देती.
न जाने हर किसी को लड़के की ही इतनी चाह क्यों होती है? और यह राधा मौसी, कितनी छोटी उम्र में विधवा हो गई थीं. फिर अपने दो छोटे-छोटे लड़कों को पढ़ाने-लिखाने व बड़ा करने में अपनी सारी उम्र निकाल दी उन्होंने. लेकिन आज हालत यह है कि इसी शहर में रहते हुए भी दोनों लड़के अपनी पत्नियों के साथ अलग मकान में रहते हैं, इतना कुछ सहने के बाद भी मौसी मुझसे कहती हैं कि दूसरा लड़का हो जाएगा, तो गुंजन का ध्यान रखेगा, तुम्हारे बुढ़ापे का सहारा बनेगा.
फिर सुरभि अपने बारे में सोचने लगी. तीन भाइयों की इकलौती लाड़ली बहन थी वो. पिताजी एक जाने-माने जज थे.
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चारों बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवायी थी उन्होंने. पढ़ाई के विषय चुनने की बात हो या बच्चों के विवाह की, मां-बाबूजी ने कभी बच्चों पर अपना निर्णय नहीं थोपा.
बड़े भैया डॉक्टर बनते ही दुबई चले गए और साल भर बाद ही एक विजातीय लड़की से विवाह कर लिया. अम्मा-बाबूजी जाति प्रथा में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए उन्होंने भी ख़ुशी-ख़ुशी भाभी को बहू का सम्मान दे दिया. भाभी के मायके के सभी लोग दुबई में ही रहते थे, अतः बड़े भैया का भी धीरे-धीरे घर आने का उत्साह कम होता गया. पूरे परिवार पर अपना असीम प्यार उड़ेलने वाले बड़े भैया धीरे-धीरे घरवालों के लिए अजनबी होते चले गए.
मंझले भैया जब इंजीनियर बने तो एक साल तो यहीं अपने देश में नौकरी की उन्होंने, लेकिन फिर वह भी विदेश जाने को उतावले हो उठे. अम्मा ने उनकी पसंद की लड़की से ही उनका विवाह करवाया और विवाह के तुरंत बाद वह भी दुबई चले गए.
बड़े भैया ने तो पहले ही घर आना-जाना बंद कर दिया था. बस होली-दीवाली के समय फोन पर सभी का हालचाल पूछकर घरवालों के प्रति अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लेते थे वह.
अब मंझले भैया भी भाभी के साथ साल में एक माह की छुट्टी पर भारत आते तो अधिकतर छुट्टियां दूसरे शहर में रहने वाले अपने साले-सालियों व ससुराल वालों के साथ ही गुज़ारते. मुश्किल से एक-दो दिनों के लिए मेहमानों की तरह अपने घर आ पाते.
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बहुएं तो खैर पराया खून थीं, लेकिन अपने दोनों बेटों का ऐसा परायापन देख अम्मा अंदर ही अंदर घुटने लगी थीं. इसी मानसिक पीड़ा के कारण उन्हें उच्च रक्तचाप के साथ-साथ दिल की बीमारी भी हो गई.
इसी बीच सुरभि का भी विवाह तय हो गया. दोनों भैया-भाभी विवाह से मात्र दो दिन पहले आए और विवाह समाप्त होते ही चले गए. उनके इस व्यवहार से छोटा भाई राहुल इतना आहत हुआ कि उसने विवाह न करने की ठान ली.
विवाह के बाद सुरभि भी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गई और एक प्यारी सी बिटिया की मां भी बन गई. बाबूजी भी सेवानिवृत्त हो गए थे. बेटे-बहुओं के स्नेह को तरसती अम्मा को देखकर बाबूजी भी दुखी रहने लगे थे. सबसे छोटे राहुल भैया भी डॉक्टर बनकर स्थानीय अस्पताल में नौकरी करने लगे थे. अम्मा की बीमारी का वास्ता देकर सुरभि व उसके पति सौरभ ने आख़िरकार राहुल को विवाह के लिए मना ही लिया. अनेक डॉक्टर लड़कियों के प्रस्ताव को अनदेखा कर राहुल ने श्रद्धा जैसी घरेलू लड़की से विवाह किया.
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि दीवाली पर बड़े भैया का फोन आया. फोन श्रद्धा ने उठाया. उन्होंने श्रद्धा से कहा, "राहुल डॉक्टरी पढ़कर भी वहां एक मामूली सी सरकारी नौकरी कर रहा है. यहां बहुत पैसा है, उसे कहो यहां आकर नौकरी करे."
तब से श्रद्धा और राहुल में तनातनी रहने लगी. राहुल विदेश नहीं जाना चाहता था और श्रद्धा यहां नहीं रहना चाहती थी.
घर में काम करने बाई आती थी जो झाडू-पोंछा, बर्तन व कपड़े धोने का काम करती. यहां तक कि रोटियां भी सेंक देती थी. लेकिन श्रद्धा का कहना था कि उसके दोनों जेठ-जेठानी विदेश में मौज कर रहे हैं और वह राहुल के माता-पिता व उनके रिश्तेदारों की सेवा में पिसी जा रही है.
घर में बढ़ते तनाव को देख अम्मा ने दिल पर पत्थर रख कर राहुल को विदेश जाने की इजाज़त दे दी और दुखी मन से राहुल श्रद्धा को लेकर दुबई चला गया.
वहां पहुंचने के सालभर बाद ही राहुल ने अम्मा-बाबूजी को दुबई बुला लिया. अम्मा-बाबूजी के दुबई जाने पर सुरभि और उसके पति सौरभ यह सोचकर निश्चिंत हो गए कि बेटे-बहुओं व पोते-पोतियों के साथ उनका मन लग जाएगा. लेकिन तीन माह बाद जब अम्मा-बाबूजी दुबई से लौटे तो बहुत कमज़ोर व निरीह से लगे.
अम्मा ने बताया कि वहां तीनों बेटे अलग-अलग फ्लैट में रहते हैं. बेटों को काम से फ़ुर्सत नहीं है. सबसे पहले वे सामान समेत बड़ी बहू के घर रुके. लेकिन बड़ी बहू ने तीन-चार दिन बाद ही उन्हें मंझली बहू के घर पहुंचा दिया. छोटी बहू तो उनके वहां आते ही अपने मायके दिल्ली चली आई. दोनों बेटों के यहां उनकी स्थिति अनचाहे मेहमान सी हो गई थी. बहुएं बिना चुन्नी के पारदर्शी कपड़े पहने घूमती रहीं. बाबूजी तो शर्म के मारे कमरे से बाहर ही नहीं निकलते थे. अम्मा-बाबूजी को पुराने ज़माने का बताकर बहुएं उनकी ख़ूब खिल्ली उड़ातीं. एक दिन बड़ी बहू ने अम्मा को सुनाते हुए मंझली से कहा, "यहां रहने की ऐसी आदत पड़ गई है कि जयपुर के मकान में तो अजीब सी घुटन लगती है."
मंझली ने नहले पे दहला जड़ा, "मैं तो कभी भी उस मकान में रहने की सोच ही नहीं सकती." और भी कई छोटी-छोटी बातें अम्मा-बाबूजी ने बताई, जिन्हें सुनकर सुरभि का मन भी ख़राब हो गया.
अब सुरभि ही अम्मा-बाबूजी को कुछ दिनों के अंतराल में आकर देख जाती थी. एक दिन बाबूजी भरे गले से उससे बोले, "बिटिया, तू अपनी गृहस्थी की ज़िम्मेदारियां संभालने के साथ-साथ हमारी भी जब-तब देखभाल करती है. हमारी ज़िंदगी का क्या भरोसा, तेरे भैया-भाभी में से तो कोई इस मकान में रहेगा नहीं, इसलिए यह मकान मैं तेरे नाम करना चाहता हूं."
सुरभि तुरंत बोली, "बाबूजी मुझे मकान-रुपया कुछ नहीं चाहिए. इन पर तो भैया का ही हक़ है. मैं नहीं चाहती कि संपत्ति की वजह से भाइयों से मेरे संबंध ख़राब हों. आपकी देखभाल करना तो मेरा कर्त्तव्य है. आजकल बेटे-बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं होता."
एक दिन अचानक बाबूजी का फोन आया, बोले, "तुम्हारी अम्मा की तबियत ज़्यादा ख़राब हो गई है. मैं उसे ऑटोरिक्शा में लेकर अस्पताल जा रहा हूं, तुम भी सौरभ के साथ अस्पताल पहुंच जाओ."
लेकिन क़िस्मत को कुछ और मंज़ूर था. चौराहे पर उनके ऑटोरिक्शा को ट्रक ने ज़बर्दस्त टक्कर मारी और अम्मा-बाबूजी किसी से कुछ कहे-सुने बिना, सदा के लिए सांसारिक झमेलों से छुटकारा पा गए.
उनकी दर्दनाक मृत्यु की ख़बर पाकर तीनों भाई घर पहुंचे और सुरभि के गले लगकर फूट-फूटकर रो दिए. सुरभि ने देखा तीनों के चेहरे पर माता-पिता के प्रति अपना दायित्व न निभा सकने का पछतावा था, लेकिन अब इससे क्या फ़ायदा.
तेरहवीं के बाद जब वकील साहब ने बताया कि वसीयत के अनुसार यह मकान अम्मा-बाबूजी की मौत के बाद शहर के प्रसिद्ध वृद्धाश्रम के पास चला जाएगा तो तीनों भाभियां भौंचक्की रह गईं. तीनों एक साथ बोलीं, "सुरभि, यदि तुम चाहतीं तो अम्मा-बाबूजी को यह मकान दान करने की बेवकूफ़ी से रोक सकती थी, इतनी अच्छी कॉलोनी में एक हज़ार गज पर बना इतना खुला मकान दान करना सरासर पागलपन है."
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यह सुनकर सुरभि के अंदर छिपा आक्रोश फूट पड़ा. उसने जवाब दिया, "जब अम्मा-बाबूजी जीवित थे, तब आप तीनों में से एक भी कुछ दिनों के लिए भी उनके साथ रहने को तैयार नहीं थीं. वे ये हसरत लिए इस दुनिया से चले गए कि कभी तो कोई बहू कुछ दिनों के लिए ही सही, उनके साथ रहे. उनके सुख-दुख बांटे. और बड़ी भाभी, अम्मा तो कह रही थीं कि आपका इस मकान में रहने से दम घुटता है. आप लोगों के इस नेक ख़्याल को ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने इस मकान को वृद्धाश्रम के लिए दान में दे दिया."
सुरभि के कटु सत्य के सामने भाभियों की ज़ुबान को ताला सा लग गया. तीनों भाई-भाभी वापस लौट गए. कितनी पीड़ादायक स्थिति थी यह कि तीन-तीन भाई-भाभियों के होते हुए भी अम्मा-बाबूजी के देहांत के बाद सुरभि का मायके की तरफ़ से ऐसा कोई व्यक्ति न था, जिसके साथ वह अपने जीवन के सुख-दुख बांट सके. यूं उसके पति सौरभ उसका बहुत ख़्याल रखते थे. उसे किसी तरह की कमी महसूस नहीं होने देते थे. एक प्यारी सी बेटी भी थी उसकी. लेकिन फिर भी वह अक्सर सोचती कि काश! भगवान ने उसे एक बहन दी होती, जिससे वह अपने मन की बातें कह सकती.
भविष्य में उसकी बेटी गुंजन की स्थिति भी उसकी तरह न हो जाए, इसीलिए सुरभि अपनी दूसरी संतान भी बेटी ही चाहती थी. और आज उसकी यह इच्छा पूरी हो गई थी.
पुरानी बातें याद करते हुए सुरभि की आंखों से न जाने कब से आंसू बहते ही जा रहे थे.
तभी नर्स की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा. वह सुरभि की तरफ़ इशारा करके दूसरी नर्स से कह रही थी, "इस बेचारी को दूसरी बेटी हो गई, देखो तो कैसे जार-जार रो रही है."
नर्स की बात सुनकर सुरभि मुस्कुरा उठी. उसे मुस्कुराते देख नर्स हैरान रह गई.
- नीलिमा टिक्कू

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