सेना के बीच से चलते हुए युधिष्ठिर और उनके पीछे चलते अन्य पांडव सीधे पितामह भीष्म के पास पहुंचे.
वहां पहुंच कर युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म के चरण छुए और कहा, “हमने आपके साथ युद्ध करने का निर्णय लिया है, अतः कृपा करके युद्ध करने की अनुमति दें एवं आशीर्वाद दें कि हम विजयी हों.”
धर्मराज युधिष्ठिर जिन्होंने युद्ध के समय भी बड़ों को पूरा सम्मान दिया.
अपने आधुनिक स्वरूप में महाभारत विश्व का सबसे बड़ा काव्यग्रंथ है. इसमें पांच पीढ़ियों की गाथा है. यह महाकाव्य यह संदेश देता है कि किस तरह परिवार के सदस्यों का आपसी वैमनस्य पूरे परिवार को ही ख़त्म कर सकता है.
मुख्य कथा के साथ-साथ महाभारत में छोटी-बड़ी अनेक शिक्षाप्रद कहानियां हैं, जो बच्चों और बड़ों को बहुमूल्य सीख देती हैं.
इनमें से एक यहां प्रस्तुत है.
कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव-पांडवों की सेनाएं आमने-सामने तैयार खड़ी थीं कि अचानक सबने एक अजब दृष्य देखा. युधिष्ठिर ने बिना किसी पूर्व सूचना के अपना कवच एवं धनुष-बाण उतारा एवं निहत्थे और पैदल ही कौरव सेना की ओर चल पड़े. उन्हें यूं जाते देख चारों पांडव भाई भी उनके पीछे हो लिए.
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सेना के बीच से चलते हुए युधिष्ठिर और उनके पीछे चलते अन्य पांडव सीधे पितामह भीष्म के पास पहुंचे.
वहां पहुंच कर युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म के चरण छुए और कहा, “हमने आपके साथ युद्ध करने का निर्णय लिया है, अतः कृपा करके युद्ध करने की अनुमति दें एवं आशीर्वाद दें कि हम विजयी हों.”
उनसे आशीर्वाद पा कर वह सब आचार्य द्रोण, कुलगुरु कृपाचार्य एवं मद्रराज शल्य, जो नकुल और सहदेव के मामा होने के नाते श्रद्धेय थे उनके पास पहुंचे. मद्रराज शल्य को युद्ध करने की अपनी विवशता बताई एवं विजयी होने का आशीर्वाद मांगा.
शत्रु पक्ष में खड़े थे, तो क्या वह सब धर्मराज युधिष्ठिर के पूज्य थे. उनके आशीर्वाद बिना युधिष्ठिर युद्ध कैसे प्रारंभ कर सकते थे?
- उषा वधवा
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