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कहानी- ढलान (Short Story- Dhalaan)

वर के पिता ताया जी को ठोकर मार कर तेजी से विवाह वेदी तक आए थे और क्रोध में वर से बोले थे, "चलो उठो, यह विवाह नहीं होगा,"
ताया जी ने बस इतना सुना था. इसके उपरान्त बिना किसी से कुछ बोले, बिना किसी की ओर देखे, नीची दृष्टि किए वे अपने कमरे में बंद हो गए थे.

ताया जी की मृत्यु का समाचार मिला, तो मन गहरे तक विषाद से भर उठा. इस असार संसार से उनका रिश्ता बस वर्ष पहले ही टूट गया था, जब मोहिनी बहन जी की बारात लौटाने की धमकी मिली थी और ताया जी ने कमरे में बंद होकर आत्महत्या का प्रयास किया था. डॉक्टरों के अथक प्रयास से वे बच तो गए, पर अपना मानसिक संतुलन खोने की कीमत पर जो जीवन उन्हें मिला उसमें न तो पारिवारिक स्नेह बचा, न मधुरता, दस वर्ष का लंबा अंतराल उन्होंने अपनी जीवित लाश ढोते हुए भोगा था.
मोहित कार्यालय से लौटे तो सुनकर दुखी हुए. हालांकि वे ताया जी की सामान्य अवस्था में उनके वैभव के साक्षी नहीं थे, पर मुझसे सुन-सुनकर उनके ठाठपूर्ण जीवन का अंदाज़ा उन्होंने सहज ही लगा लिया था.
ताया जी रेलवे की नौकरी में उच्च पदस्थ तो नहीं थे, पर उनकी कुर्सी को उनके सहयोगी कामधेनु गाय कहकर पुकारा करते थे. वे चीफ गूड्स क्लर्क के पद पर थे और अपनी ड्यूटी समाप्त कर जब घर लौटते तब जेबें नोटों से भरी रहतीं. घर में विलासितापूर्ण चीज़ें भरी पड़ी थीं. बच्चों के उंगली उठाने की देर होती कि चीज़ फौरन घर आ जाती, पर ताई के आंचल मैं चीज़ें समा नहीं पायीं. वे थीं एक नंबर की आलसी. रसोईघर में जाना न पड़े इसके वे बहाने ढूंढ़ा करतीं. शाम को अक्सर खाना या तो बाहर खाया जाता या बाहर से मंगा लिया जाता.
जब बिना पसीना बहाये घर में धन आता है, तब वह अपने साथ कई व्यसन भी ले आता है. ताया ती को शराब की ऐसी लत पड़ी कि बिना उसके रात कटती ही न थी. बच्चे पढ़ाई के प्रति यूं लापरवाह हुए कि उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण की चिंता से वे मुक्त हो गए. उनकी ओर ध्यान देने की चिंता न मां को थी न बाप की. अनाप-शनाप जेबख़र्च मिलने से बच्चे बिगड़ते गए. वे स्वच्छन्द हो ऐसे क्रियाकलापों में संलग्न हो गए जो सामाजिक मर्यादा के विपरीत था.
ताया जी के पद को पाने के लिए उनके दूसरे सहयोगी भी प्रयत्न करते रहते थे, पर ताया जी की पहुंच अच्छी थी और दूसरे उनका भाग्य भी प्रबल रहा कि कई वर्षों तक वे उस पद पर विराजमान रहे. उनका रहन-सहन ऐसा विलासपूर्ण था कि क्या कोई लखपति रहेगा. लकदक कपड़ों में वे कोई उच्च पदस्थ अधिकारी लगते. घर में नौकर-चाकर रख लिए गए थे.

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तिमंज़िला आलीशान मकान भी बन गया और सयानी होती हुई बेटी मोहिनी का सारा दहेज और ज़ेवर भी बनवा लिया गया. तब किसी ने गहरे पैठकर उनसे वह कुर्सी हथिया ली थी.
शेर के मुंह जब मनुष्य का खून लग जाता है तब वह आदमखोर हो जाता है और फिर एक दिन वह मारा जाता है. ताया जी नए पद पर रिश्वत लेते पकड़े गए और मुअत्तल कर दिए गए थे. कुछ दिनों तक स्थिति यथापूर्व रही. सबके हाथ खुले हुए थे. संचित धन का काफ़ी भाग मुट्ठी में से रेत की भांति निकल गया तब ताया जी की आंखें खुली थीं. सयानी होती बेटी के हाथ पीले करने और नालायक बेटों को कहीं काम-धंधे पर लगाने की चिंता उन्हें सताने लगी थी. महीनों की दौड़-धूप के बाद एक परिचित के माध्यम से बेटी के लिए एक उचित वर वे तलाश कर पाए थे. बातचीत में वर के मां-बाप बड़े सरल और सभ्य लगे थे. ताई जी से सलाह ले उन्होंने फिर विलंब नहीं किया था. आनन-फानन में सब तय हो गया था. मोहिनी का दहेज पहले से ही तैयार था. उन्हें इस विषय में चिंता करने की आवश्यकता नहीं थी. विवाह से पूर्व वर पक्ष ने नक़द की मांग की और यह आश्वासन मिलने पर कि विवाह पर कुछ नहीं लेंगे ताया जी ने तय की गयी रकम विवाह पूर्व ही रस्मों पर वर पक्ष को सौंप दी थी और निश्चिंत होकर बारात के स्वागत की तैयारियों में वे व्यस्त हो गए थे.
निश्चित दिन धूमधाम से बारात आई थी. बारातियों के स्वागत सत्कार में ताया जी ने कोई कसर नहीं रखी थी. इकलौती और नाजों से पली बेटी थी, उसकी विदाई की कल्पना करक एक सप्ताह पूर्व से ही वे उदास रहने लगे थे.
वरमाला के समय वर के पिता ने ताया जी से अकेले में कुछ व्यक्तिगत विशेष बात करने की इच्छा प्रकट की थी और वे दोनों एकान्त में चले गए थे, "समधी जी वरमाला से पूर्व निश्चित धन मिल जाए तो..." वर के पिता ने ताया जी से फुसफुसाते हुए कहा.

"निश्चित धन..." पहले तो ताया जी आश्चर्य से आवाक उनकी ओर कुछ क्षण तक देखते रह गए थे.
"वह तो आपने विवाह पूर्व के रस्मों पर ले ली थी और यह आश्वासन दिया था कि अब विवाह पर कोई मांग नहीं रखेंगे." ताया जी के मुख पर अभी भी विस्मय गहराया हुआ था.
"आपको कोई ग़लतफ़हमी हुई लगती है. वह धन ती विवाह पूर्व के रस्मों के लिए ही था. आख़िर उन रस्मों पर भी तो धन रखा जाता है. या यूं ही खाली हाथों वे रस्म निभाए जाते हैं. आप तो अनुभवी हैं कहीं ऐसा संभव है भला." वर के पिता के मुख पर कपट स्पष्ट परिलक्षित होने लगा था.
"पर मेरे पास तो अब धन का कोई प्रबंध नहीं है. मैं तो आश्वस्त था और उसी के अनुसार सभी मदों में व्यय कर चुका हूं." ताया जी के चेहरे पर निरीहता और बेबसी उपस्थित थी.
"आप कैसी बात कर रहे हैं समधी जी, इन बातों पर तो वही यक़ीन करेगा जो आपकी वास्तविकता न जानता और न समझता हो. आप तो चीफ गूड्स क्लर्क रहे हैं इतने बड़े स्टेशन के लाखों के वारे न्यारे किए हैं आपने, ये सब बातें मुझसे छिपी नहीं हैं." वर के पिता रहस्यमय ढंग से मुस्कुराए
"पर अब स्थिति वैसी नहीं है. दूसरे आजकल तो आप जानते हैं नौकरी से मुअत्तल होने के उपरान्त आधी तनख्वाह पर गुजर बसर करना पड़ रहा है." ताया जी के गले से करुणा टपक रही यी,
"अरे समधी जी, मरा हाथी भी सवा लाख का होता है. देर मत करिए मुहूर्त निकला जा रहा है." वर के पिता घड़ी पर दृष्टि जमाए बोले,
ताया जी ने जब अपनी असहायला पुनः प्रदर्शित की तब वर के पिता क्रोधित हो उठे थे और उन्होंने बारात वापस ले जाने की धमकी दे दी थी. उस धमकी से ताया जी कांप उठे थे. उनकी आंखों से आंसू जाते देर न लगी, भावावेश में उन्होंने वर के पिता के पैर पकड़ अपनी इज़्ज़त और बेटी के जीवन की दुहाई दी थी पर वर के पिता का पत्थर हदय न ही पसीजा था.

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वर के पिता ताया जी को ठोकर मार कर तेजी से विवाह वेदी तक आए थे और क्रोध में वर से बोले थे, "चलो उठो, यह विवाह नहीं होगा,"
ताया जी ने बस इतना सुना था. इसके उपरान्त बिना किसी से कुछ बोले, बिना किसी की ओर देखे, नीची दृष्टि किए वे अपने कमरे में बंद हो गए थे.
इधर घर के लोगों में हड़कंप मच गया, कारण जानने के लिए ताया जी की तलाश की जाने लगी. उनका कमरा बंद पाकर सभी किसी अनहोनी की आशंका से सिहर उठे. वरवाजा पीटने और आबानें लगाने के बाद भी जब उन्होंने दरवाजा न खोल्ला, तब लोगों ने मिलकर दरवाजा तोड़ दिया था. ताबा जी पलंग पर सीधे लेटे थे और उनके मुख से झाग निकल रहा था.
अस्पताल में रातभर डॉक्टरों ने बड़ी मुश्किल से उन्हें बचाया था. इधर जब बर को अपने पिता की लालसा और उसी कारण अपमान से ताया जी के जहर खाने की बात जात हुई तब उसने स्पष्ट कह दिया, "पिताजी, आप जाते हैं, तो जाएं. बाराती लौटना चाहे तो उन्हें भी ले जाएं, पर अब मैं विवाह इसी लड़की से करूंगा." बर के चेहरे पर दृढ़ता की अलक हर कोई देख रहा था.
मजबूर होकर बर के पिता को उसकी बात माननी पड़ी, दूसरे लोगों की भर्त्सना भी उनके कानों में पहुंचने लगी थी. उसी विवाह चेदी (एर विवाह संपन्न कराया गया और दूसरे दिन सुबह मोहिनी विवा भी हुई. विदा होने से पूर्व रोते हुए मोहिनी ने अपने पिता को देखने की इच्छा प्रकट की थी, पर ताया जी तब तक बेहोश पड़े थे. डॉक्टरों से यह आश्वासन पाकर कि खतरे को अब कोई बात नहीं मोहिनी विदा हो गई थी.
लाया नी महीने भर अस्पताल में पड़े रहे थे. शारीरिक रूप से तो वह स्वस्थ करार दिए गए पर मानसिक अस्वस्थता दूर नहीं हुई थी, अस्पताल से घर आते ही वे मोहिनी के कमरे में गए थे. उसे न पाकर बदहवास से उसे इधर-उधर ढूंढने लगे थे. न जाने उनके शरीर में इतनी शक्ति कैसे आ गयी कि भागते हुए पूरा घर छान मारा. कहीं न पाकर वे भय मिश्रित स्वर में पुकारने लगे थे. मोहिनी...... मोहिनी..... जब ताई जी ने उन्हें शान्त कराते हुए बताया कि मोहिनी ससुराल में है तब अवाक् विस्फारित नेत्रों से वे ताई जी की देखने लगे थे. बड़ी देर बाद उनकी आवाज निकली थी "क्या मोहिनी ससुराल चली गयी, उसकी बारात नहीं लौटी?" उनकी आवाज से महसूस किया जा सकता था कि उन्हें ताई जी की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था.
"हा, उसकी बारात नहीं लौटी. दामाद जी बड़े समझदार निकले, सबका विरोध कर वे उसे आदर सहित अपने घर ले गए, अब मोहिनी ससुराल में खुश है. बीच में एक बार वह दामाद जी के साथ आयी थी. वे दोनों तुम्हें अस्पताल में देखने भी गए थे. पर तुम उन्हें पहचान ही नहीं पाए." कहते-कहते ताई जी उदास हो उठी थीं. "मोहिनी ससुराल चली गई. मोहिनी ससुराल चली गई वह खुश है वह खुश है दोहराते हुए ताया जी भी अपने
कमरे में चले गए थे. फिर तो अधिकतर वे कमरे में ही बंद रहते.
दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाहर निकलते. न किसी से कुछ बोलते, न कोई कार्य करते और न किसी के कार्य में दखलअंदाजी करते. उनकी सारी दुनिया उनके कमरे में ही सिमटकर रह गई थी.
अस्पताल से घर आने की सूचना पाकर मोहिनी पति के साथ ताया जी से मिलने आई थी. उल्लसित मन लिए जब वह ताया जी से मिलने गई तब बेटी को देखकर वे भावविभोर हो उठे थे और उनकी आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई थी, मोहिनी भी उनसे लिपट अपने रूथन को न रोक पाई थी. मोहिनी के पति राकेश जीजा ने जब ताया जी को प्रणाम किया तब उन्हें देखते ही ताया जी भड़क उठे थे. क्रोध से उनकी मुट्ठियां तन उठी थीं, वे चिल्लाते हुए बोले, "ये यहां कैसे आया, इसको किसने अंदर आने दिया, यह बारात लौटा ले जाएगा. मेरी मोहिनी का जीवन बरबाद हो जाएगा." वे एक डंडा लेकर राकेश के पीछे दौड़े थे. सबने रोकने की बहुतेरी कोशिश की पर उन्हें कोई रोक नहीं पाया था. राकेश को वे गली के मोड़ तक खदेड़ आए थे.

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जी "वन में उपहार का अपना एक अलग महत्व है. हम अक्सर किसी खास मौके पर ही तोहफे देते हैं. लेकिन रिश्तों की गरिमा को बनाए रखने में कभी यूं ही तोहफा दे देना बेहद असरदायक होता है. जरूरी नहीं कि आप तीज-त्योहार या किसी महत्वपूर्ण दिन पर ही उपहार दें, आज की व्यस्त जिंदगी में यदि आप ऐसे ही अकारण अचानक तोहफा देते हैं तो आपके अन्तीप्त को इससे जो खुशी मिलती है, वह अन्य अवसरों के तोहफे से शायद कम ही मिलती हो, यूं तो तोहफ़ा घर रिश्ते में अपना एक अलग एहसास दिलाता है, लेकिन पति-पत्नी के संबंधों में यह एक खास भूमिका अदा करता है.
फिर तो जब-जब भी राकेश आए ताया जी का यही रौद्र रूप दिखाई पड़ा डंडा लेकर उन्हें चूर तक भगा आने की पुनरावृत्ति होती रही. इतना अपमानित होने के उपरान्त भी न तो उन्होंने जाना छोड़ा न मोहिनी को आने से रोका, वही लोग उनके मानसिक संतुलन को बिगाड़ने के जिम्मेदार थे. ससुराल आकर अपमानित होने में उन्हें अपने अपराध का पश्चाताप विस्वा हो, पर उन्होंने कभी ऐसा ताहिर नहीं होने दिया था.
पिछली बार ताया जी से मिलने गई थी तब वे बहुत अशक्त हो गए थे, उनकी नीकरी का भी कोई निर्णय नहीं हुआ था. बहाल भी हो जाते तो नौकरी कहां कर पाते बेचारे, वे अपने होश में ही नहीं थे. घर की आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल हो गई थी, दोनों लड़के बेरोजगार थे और आवारागर्दी में लिप्त. ताई जी घर और ताया जी को संभालते-संभालते असमय ही बूढ़ी हो गई थीं. दहेज़ के दानव ने इस घर की खुशहाली को छिन्न-भिन्न कर डाला था.

घर लौटकर मां से ताई जी की तंगहाली बयान की, तब वे फट पड़ी थीं, "सब उसके कर्मों का फल है. ज़मीन पर पैर नहीं पड़ते थे नवाबज़ादी के. घूस के धन पर ज़बान ऐसी कड़वी हो गई थी कि बोलती थी तो अंगारे बरसते थे. उन्हीं अंगारों ने घर को जब जलाकर राख कर डाला, तब अब उसी राख़ पर बैठकर रोना कैसा? बोये पेड़ बबूल का...."

आज ताया जी की मृत्यु का समाचार पाकर जब मन अतीत में दौड़, स्मृतियों को कुरेद रहा है, तब बार-बार मां के वही शब्द मस्तिष्क को मथ-मथ कर यही बात दोहरा रहे हैं, "ग़लत साधनों से आया धन फलता नहीं."

- रतन श्रीवास्तव

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