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कहानी- देवदास (Short Story- Devdas)

“तुम इतने असंस्कारी कैसे हो सकते हो?” उसकी आंखों में आंसू थे. शायद उसे गहरा धक्का लगा था.
दोस्त रिहर्सल के लिए बुलाने आ गए, तो हमारा वार्तालाप अधूरा रह गया था. अधूरा कहना शायद ग़लत होगा, क्योंकि निकिता की ओर से वार्तालाप वहीं, उसी क्षण हमेशा के लिए थम गया था. उसने एक कभी न टूटने वाली चुप्पी साध ली थी. मैं अपने प्रस्ताव पर शर्मिंदा था, लेकिन कुछ भी कहने, करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था.

एयरपोर्ट पहुंचते ही मैं बैंगलोर जानेवाले यात्रियों की लाइन में लग गया था. वैसे तो पहले भी बैंगलोर बहुत बार हो आया हूं, लेकिन इस बार का उत्साह अलग ही था. मेरे कॉलेज के दोस्त चिराग की शादी थी. उम्मीद थी इस बहाने कॉलेज के बाकी दोस्त भी मिल जाएंगे. अच्छा खासा रियूनियन हो जाएगा. पर यह रियूनियन एयरपोर्ट से ही आरंभ हो जाएगा ऐसी उम्मीद नहीं थी. मुझे लाइन में खड़े हुए अभी 5 मिनट ही हुए थे कि मेरा ध्यान अपने से दो नंबर आगे खड़ी सहयात्री पर गया. लंबे बाल, लंबा क़द, गोरी बांहों वाली वह लड़की पीछे से बिल्कुल निकिता लग रही थी. निकिता मेरी कॉलेज की सहपाठी, मेरी एक्स गर्लफ्रेंड! हो न हो यह भी ज़रूर शादी में ही शामिल होने जा रही होगी. चिराग हमारा कॉमनफ्रेंड था और उसकी मंगेतर निकिता की बेस्ट फ्रेंड थी. मैं उसके ख़्यालों में डूबा रह गया और वह घूमकर मेरे पास से बोर्डिंग पास झुलाती गुज़र गई. शत-प्रतिशत वही थी. उसका रंग पहले से और भी निखर आया था. महंगे चश्मे और कपड़ों में वह बला की आकर्षक लग रही थी. या तो उसने मुझे नहीं देखा और पहचाना था या फिर देखकर भी उपेक्षित छोड़ देना बेहतर समझा था. लाइन में आगे खिसकते मेरे क़दम अतीत में खिसकते जा रहे मेरे मन को साथ घसीट पाने में असमर्थ थे. चार साल गुज़र चुके थे, पर कॉलेज में दोस्तों के साथ गुज़रा समय इतना जीवंत था कि आज भी आंखों के सम्मुख एक-एक पल सजीव हो उठा था. निकिता मेरी गर्लफ्रेंड कब और कैसे बनी मुझे ध्यान नहीं, क्योंकि तब आधुनिक कपड़े, गॉगल्स, बाइक की तरह गर्लफ्रेंड रखना भी एक स्टेटस सिंबल था. साथ घूमने-फिरनेे, दोस्तों को दिखाने के लिए एक गर्लफ्रेंड होना ज़रूरी था. उससे कब, कहां, कैसे मुलाक़ात हुई, कैसे प्यार हुआ, यह सब जानने में किसी की रुचि नहीं होती थी. निकिता चूंकि मेरे दोस्त की गर्लफ्रेंड की दोस्त थी इसलिए जब चिराग और उसकी गर्लफ्रेंड साथ समय गुज़ारते तो हमें मजबूरन साथ होना पड़ता और धीरे-धीरे यही साथ हमें भाने लगा था. जैसा कि लड़कियां स्वभाव से ही बेहद संवेदनशील होती हैं, निकिता हमारे रिश्ते को लेकर गंभीर होती चली गई, जबकि मैं इसे मौज-मस्ती का ज़रिया ही मानता रहा. ग्रैज्युएशन ख़त्म हुआ, सबका प्लेसमेंट हो गया और देखते ही देखते फेयरवेल का वक़्त भी आ गया. एक प्ले में वह पारो और मैं देवदास का रोल कर रहा था. रिहर्सल में हमारा अधिकांश वक़्त साथ गुज़रता था. ऐसे ही विश्रांति के कुछ क्षणों में निकिता थोड़ी भावुक हो उठी.
“हम लोगों के बिछड़ने का काउंटडाउन शुरू हो गया है. फेयरवेल के बाद सब अलग-अलग हो जाएंगे. तुम कहीं, मैं कहीं.”
“हूं.” मैं उनींदा-सा बोला.
“वैसे भविष्य को लेकर तुम्हारी क्या योजनाएं हैं?”
“एक बार तो जॉब ही जॉइन करूंगा. थोड़ा अनुभव हो जाए तो फिर एम.एस. या एम.बी.ए. ट्राई करूंगा. हो सकता है विदेश भी चला जाऊं. ऊंची डिग्री लेकर ऊंचे पैकेज वाली नौकरी जॉइन करूंगा.”
“फिर?"
“फिर थोड़ा बैंक बैलेंस बनाऊंगा. गाड़ी, बंगला खरीदूंगा. यूरोप घूमने का भी बहुत मन है. शायद वहां चला जाऊं?”
निकिता अब तक रुंआसी हो उठी थी.
“तुम्हारे भविष्य की योजनाओं में  मैं कहीं भी नहीं हूं?”
उसका इशारा समझ मैं संभलकर बैठ गया था.
“हो ना, मैं बस शादी की बात पर ही आनेवाला था.”
“इतनी देरी से? क्या भविष्य की इन सब योजनाओं में मैं तुम्हारे साथ नहीं हो सकती?”
मैं चुप हो गया था. फिर थोड़ा साहस जुटाकर बोला, “आजकल सब देरी से ही करते हैं.”
“वही तो पूछ रही हूं क्यूं? क्या पत्नी का बोझ पहले से ज़्यादा हो गया है? नहीं, बल्कि वह तो आर्थिक रूप से और भी आत्मनिर्भर होकर पति का बोझ बंटाने लगी है. तो क्या दोनों का फर्टिलिटी पीरियड बढ़ गया है? नहीं, वह भी नहीं. बल्कि फास्टफूड पर निर्भरता और कम शारीरिक श्रम से यह पीरियड और गड़बड़ा गया है. जितनी देरी से शादी, फर्टिलिटी पीरियड उतना कम. अच्छा, कहीं तुम्हें ऐसा तो नहीं लगता कि शादी करके तुम डिस्ट्रैक्ट हो जाओगे, अपने लक्ष्य पर फोकस नहीं कर पाओगे?”
“हां, शायद ऐसा ही.” मैंने थूक गटकते हुए कहा. उसके खुलकर आक्रामक रवैये से मैं बौखला गया था.
“तो यहां भी तुम लड़के ग़लत हो. आधुनिक पढ़ी-लिखी हमसफर तुम्हें आगे बढ़ने के लिए और प्रेरित ही करेगी, तुम्हारी मदद करेगी न कि तुम्हारे मार्ग में रुकावटें खड़ी करेगी. एक अच्छे करियर की महत्ता उससे अच्छा और कौन समझ सकता है? उसे अपने लक्ष्य पर टिके रहने का भरोसा है. फिर तुम लड़कों का आत्मविश्‍वास क्यों डगमगा जाता है? आज की कामकाजी युवती दो मोर्चे संभालने का बलबूता रखती है. उनके भरोसे तुम और भी निश्‍चिंत होकर अपना करियर बना सकते हो.”
मुझे निरुत्तर देख वह आक्रामक रवैया छोड़ समझाइश पर उतर आई. “देखो जय, हर काम का एक उपयुक्त वक़्त होता है और यदि कोई विशेष मजबूरी न हो तो वह काम वक़्त रहते पूूरा कर लेना चाहिए. हमारे पैरेंट्स की भी कुछ ज़िम्मेदारियां होती हैं, कुछ अरमान होते हैं और हमें कोई अधिकार नहीं बनता कि हम बेवजह उनके अरमानों का गला घोंटें.”
“लेकिन इन सबके लिए शादी ही क्यों? हम लिव इन में रहकर भी तो ये सब कर सकते हैं. एक दूसरे के प्रेरक और मददगार बने रह सकते हैं.” मैं अब निर्लज्जता और ढिठाई पर उतर आया था. लेकिन निकिता सन्न रह गई थी. उसे मुझसे ऐसे प्रस्ताव की उम्मीद कतई नहीं थी. “तुम इतने असंस्कारी कैसे हो सकते हो?” उसकी आंखों में आंसू थे. शायद उसे गहरा धक्का लगा था.
दोस्त रिहर्सल के लिए बुलाने आ गए, तो हमारा वार्तालाप अधूरा रह गया था. अधूरा कहना शायद ग़लत होगा, क्योंकि निकिता की ओर से वार्तालाप वहीं, उसी क्षण हमेशा के लिए थम गया था. उसने एक कभी न टूटने वाली चुप्पी साध ली थी. मैं अपने प्रस्ताव पर शर्मिंदा था, लेकिन कुछ भी कहने, करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था.
और इसी ऊहापोह में फेयरवेल के बाद सब अपने-अपने रास्ते चले गए थे. इस बीच मैंने पोस्ट ग्रैज्युएशन और फिर नौकरी भी जॉइन कर ली थी. घरवालों की ओर से शादी का दबाव बढ़ता जा रहा था, लेकिन मेरा अपराधबोधग्रस्त मन इसके लिए तैयार नहीं हो पा रहा था. आज एयरपोर्ट पर निकिता को देखकर यह अपराधबोध एक बार फिर कसक उठा था.
पीछे से किसी ने हिलाया तो मेरी चेतना लौटी. मेरा नंबर आ चुका था. सारी औपचारिकताओं से निपटते मेरी आंखें निकिता को ही खोजती रहीं. यात्रियों के रैले में वह जाने कहां ग़ुम हो गई थी या जानबूझकर मुझसे छुप रही थी. पूरे रास्ते मैं उसी के बारे में सोचता रहा. उसने शादी कर ली होगी या नहीं? यदि नहीं की होगी तो क्या मुझे उसे प्रपोज़ कर देना चाहिए? ख़ैर, बंगलौर शादी में तो मुलाक़ात हो ही जाएगी.
पर मुलाक़ात हुई भी और नहीं भी, क्योंकि शादी में जितनी बार भी हम आमने-सामने हुए निकिता बहाना बनाकर इधर-उधर हो ली. अब तक मैंने यह तो पता लगा ही लिया था कि विदेश से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगी है. और शायद आगे रिसर्च वर्क के लिए फिर विदेश चली जाए. निकिता को लेकर मेरी बेचैनी दोस्तों से छुपी नहीं थी, इसलिए वे छेड़खानी का मज़ा ले रहे थे. “बेटा, अब तो तू सारी ज़िंदगी देवदास बनकर ही घूम. यह चिड़िया तो आजकल में फिर से विदेश फुर्र होनेवाली है.”
पर मैं हार मानने वाला नहीं था. मौक़ा देखकर एकांत में मैंने निकिता के सम्मुख शादी का प्रस्ताव रख ही दिया. जैसी कि उम्मीद थी वह शेरनी की तरह बिफर गई, “आपको क्या उम्मीद थी देवबाबू कि मैं पारो बनकर सारी उम्र आपके नाम का दीया जलाकर आपका इंतज़ार करती रहूंगी? जिस तरह बहुत डराने पर डर ख़त्म हो जाता है, बहुत दबाने पर भूख ख़त्म हो जाती है, वैसे ही तुम्हारे साथ ज़िंदगी गुज़ारने की मेरी हसरत ख़त्म हो गई है. प्यार का फूल मेरी ज़िंदगी की डाली से झड़ चुका है और झड़े हुए फूल कभी वापिस नहीं खिलते. मैं रिसर्च के लिए विदेश जा रही हूं.”
मैं उसे उसी के शब्द कि “हमारी शादी उसके करियर में बाधक, नहीं वरन् साधक ही सिद्ध होगी” कहकर रोक लेना चाहता था, पर नहीं कर सका. अगले दिन रवानगी के वक़्त निकिता नज़र नहीं आई तो मैंने उसकी सहेलियों से पूछा.
“अरे, तुम्हें पता नहीं? वह तो रात की फ्लाइट से ही निकल गई. उसके पापा को ज़बर्दस्त दिल का दौरा पड़ा था.”
दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरने तक मैं एक महत्वपूर्ण निर्णय ले चुका था. डाली से झड़ चुका फूल तो दोबारा नहीं खिल सकता, पर यदि जड़ रूपी इच्छाशक्ति मज़बूत हो, तो नए फूल तो खिलाए जा सकते हैं. मैंने एयरपोर्ट से ही मम्मी को अपने लौट आने की सूचना दे दी और साथ ही यह भी बता दिया कि एक अति आवश्यक कार्यवश मैं अभी 4-5 दिन घर नहीं आ पाऊंगा. बिना किसी पूर्व सूचना के मैं हॉस्पिटल पहुंच गया और सारी ज़िम्मेदारियां ऐसे संभाल ली मानो यह सब करना मेरा हक़ है. शोकाकुल निकिता और उसकी मां कुछ भी बोलने-समझने की स्थिति में नहीं थे. दोनों बस कठपुतली की तरह डॉक्टर के निर्देशों का पालन मात्र कर रही थीं. मैं नहीं जानता निकिता ने अपनी मां को मेरा क्या परिचय दिया, पर वे भी अधिकारभाव से बेटा मानकर मेरी सेवाएं लेने लगी थीं. मैं निसंदेह इससे प्रसन्न ही था. तीसरे दिन तक अंकल की तबियत काफ़ी संभल चुकी थी. उन्हें कॉटेज में शिफ्ट कर दिया गया. निकिता ने मुझे जबरन घर भेज दिया. चिंतित मम्मी-पापा को मैंने सब बता दिया. उन्होंने मुझे हौसला बंधाया. मैं शाम तक तरोताज़ा होकर फिर से हॉस्पिटल पहुंच गया था. तीन सदस्यों का पूरा परिवार किसी गहन विचार-विमर्श में उलझा हुआ था. निकिता ने उन्हें शायद मेरे बारे में सब कुछ बता दिया था, क्योंकि दोनों की नज़रों में मेरे लिए सम्मान और कृतज्ञता के भाव थे.
“बेटा, अब तो तुम ही इसे मना सकते हो. अगले सप्ताह इसे रिसर्च के लिए विदेश रवाना होना है. इसका इतना बड़ा सपना साकार होने जा रहा है और यह जाने से मना कर रही है. मैं अब बिल्कुल ठीक हूं.” अंकल बोले.
“ऐसी हालत में यहां कौन संभालेगा आपको? मेरे सिवाय कौन है आपका?”
“मैं हूं न! मैं संभालूंगा.”
“मिस्टर जय, मैंने आपको अभी यह अधिकार नहीं दिया है.” निकिता का स्वर फिर से तिक्त हो गया था.
“अब बस भी कर बेटी. बात को रबड़ की तरह खींचने में किसी का भला नहीं है.” आंटी बोल उठीं.
“हां बेटी. मेरा भी यही कहना है. तुम दोनों आपस में सलाह कर इस झगड़े को अब यहीं ख़त्म कर दो.”
उनके इशारे पर हम टहलते हुए बाहर निकल आए थे.
“तुमने तो मेरे पापा-मम्मी को भी अपने वश में कर लिया है.” निकिता ने बनावटी उलाहना दिया.
“भी से मतलब?”
निकिता शरमा गई तो अपनी जीत पर मेरा चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा. आख़िर मैं डाली पर फिर से फूल खिलाने में कामयाब हो ही गया था. अपनी मूंछों पर ताव देते हुए मैं बोल उठा, “यह आज का देवदास है मैडम! मरने में नहीं, लड़ने में विश्‍वास रखता है.”

- शैली माथुर

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