"उंह! तुमसे नहीं होगा ये प्यार-मुहब्बत... करने लगी ना बेटे की बात..." विमला झेंप गई, "अच्छा-अच्छा, अब नहीं करूंगी... ये वाली सब्ज़ी लीजिए, बहुत बढ़िया है, तीखी भी नहीं है. पता नहीं कहां देख रहे हैं... सुन ही नहीं रहे हैं मेरी बात."
"बच्चों ने कितनी बढ़िया जगह बुकिंग कराई है. पता ही नहीं था कि अपने शहर में ऐसे रेस्तरां हैं... क्या हुआ? ख़ुश नहीं लग रही हो." मैंने पत्नी का उतरा चेहरा देखकर पूछा.
"जगह तो बढ़िया है, लेकिन देखिए ना, बहुओं ने मुझे इस उम्र में कितना सजाकर भेज दिया है, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम!"
"तो क्या हुआ, शादी के ४० साल पूरे किए हैं. आज तो तैयार होना बनता है." मैंने कुहनी मारकर विमला को छेड़ा.
"एक बात और है... वो जो बच्चों ने शर्त बांध दी है ना कि हम लोग 'डेट' पर जा रहे हैं. आज बच्चों की, घर-गृहस्थी की बातें नहीं करेंगे... वो बड़ी अजीब है! ऐसा कैसे हो सकता है?"
"अरे, बिल्कुल हो सकता है... वैसे इस साड़ी में बहुत सुंदर लग रही हो! तुम पीला रंग पहना करो..." मैंने बातों में जैसे ही मिश्री की डली घोली, वो शर्माने लगी, "हटिए अच्छा! वैसे ये साड़ी समीर लाया था, जब कलकत्ता गया था. कितना कमज़ोर हो गया था. वहां का खाना..."
"उंह! तुमसे नहीं होगा ये प्यार-मुहब्बत... करने लगी ना बेटे की बात..."
विमला झेंप गई, "अच्छा-अच्छा, अब नहीं करूंगी... ये वाली सब्ज़ी लीजिए, बहुत बढ़िया है, तीखी भी नहीं है. पता नहीं कहां देख रहे हैं... सुन ही नहीं रहे हैं मेरी बात."
मैं कोने में एकटक देख रहा था, "वो देखो विमला, कोने वाली मेज पर जो बच्ची बैठी है... लग रहा है ना बिल्कुल अपनी शुभि बैठी है!"
अब विमला तुनक गई, "हमको डांट रहे थे और ख़ुद पोती दिख रही है इनको... खाइए और चलिए यहां से... बड़े आए डेट पर!"
थोड़ी देर तक हम दोनों चुपचाप रोटी कुतरते रहे. खाने में कोई स्वाद नहीं आ रहा था.. .अचानक कुछ कौंध गया, "सुनो, एक आइडिया आया है. हम यहां क्या बात कर रहे हैं बच्चे थोड़ी सुन रहे हैं."
"बात तो आप सही कह रहे हैं, लेकिन बेईमानी होगी..."
"इतनी बेईमानी चलती है. हां, तुम बताओ क्या कह रही थी? समीर को कलकत्ता का खाना नहीं अच्छा लगता था ना... फिर क्या हुआ?.."
विमला कलकत्ता पुराण खोलकर बैठ गई; हम दोनों मुस्कुरा रहे थे. खाने में स्वाद घुल गया था.
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