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कहानी- डरना ज़रूरी है (Short Story- Darna Zaroori Hai)

बंटी भैया किताब हाथ में देकर भेदभरी नज़रों से उसे देखते हुए बोले, "यहां आने में तुम्हें डर नहीं लगा?"
अमृता हकबकाई, "डर… डर कैसा, आप बंटी भैया ही तो हैं, कोई भूत तो नहीं." अमृता बेख़ौफ़ होकर बोली.
"डरना ज़रूरी है, इंसानों को भी भूत बनते देर नहीं लगती. ज़माना बहुत ख़राब है. इस तरह किसी के भी पीछे अकेले व एकांत में मत जाना." कहते हुए वह कमरे से बाहर चले गए.

"बंटी भैया नहीं रहे." फेसबुक पर उनके बड़े भाई द्वारा डाला गया यह पोस्ट पढ़कर अमृता की अजीबोगरीब स्थिति हो गई थी. उससे न तो पूरी तरह दुखी हुआ जा रहा था और न ख़ुश. एक ओर जहां वह उनकी यंत्रणा भरी ज़िंदगी को याद करके राहत की सांस ले रही थी, वहीं दूसरी ओर उनके सुखभरे दिनों से लेकर यहां तक की दारुण यात्रा को याद कर उसका दिल कहीं गहरे दुख में डूबा जा रहा था.
बंटी भैया मायके में उसके पड़ोस में रहते थे. चार भाई-बहनों में सबसे छोटे व सबसे आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक. उस मोहल्ले में सबसे धनाढ्य फैमिली उन्हीं की थी. किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं थी. सबसे छोटे होने के कारण माता-पिता के वह अत्यंत दुलारे थे. राजुकमारों सी उनकी ज़िंदगी थी, पर मां के अत्यंत क़रीब थे.
सब कुछ व्यवस्थित व सही ढंग से चल रहा था कि एक दिन अचानक मौसी यानी उनकी मां की तबियत बिगडी और वह चल बसीं. वैसे तो पूरे परिवार के लिए यह घटना शॉकिंग थी, लेकिन बंटी भैया शायद दिल के इतने मज़बूत नहीं थे. मां के सदमे ने उनके दिमाग़ को असंतुलित कर दिया.


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कहा जाता है कि पिता नहीं रहे, तो मां अपने बच्चों को माता-पिता दोनों का प्यार देकर उन्हें संभाल लेती है, पर शायद पिता ऐसा नहीं कर पाता. और इसका जीता-जागता उदाहरण बंटी भैया दिखे. सभी बड़े भाई-बहन अपनी ऊंची शिक्षा व ऊंची-ऊंची डिग्रियां लेने में मशगूल हो गए और पिता भी उनकी मन:स्थिति से लापरवाह अपने कार्यो में.
धीरे-धीरे उनकी अर्नगल बातें और अजीबोग़रीब हरकतें देखकर पहले तो लोग दबी ज़ुबान से फिर सरेआम 'पागल' कहने लगे. और फिर यह तो सारी दुनिया जानती है कि किसी को पागल कहने पर क्या स्थिति होती है. उनका पागलपन और बढ़ता गया.
ऊंचे-ऊंचे पदों पर आसीन होने के बावजूद भाईयों ने न तो उनकी चिकित्सा की ज़िम्मेदारी ली और न ही दिलचस्पी. पिता को जहां बन पड़ा इलाज करवाए और फिर एक दिन पागलपन ज़्यादा बढ़ने पर हाथ-पैरों में बेड़ियां डलवा दी. हाय! बंटी भैया की यह दशा देखकर कलेजा मुंह को आ जाता था.
यह तो उनके बुरे दिनों की बात है, लेकिन जब वे सामान्य थे, तब अत्यंत आकर्षक, मिलनसार व साहित्यप्रेमी भी थे. अमृता को याद आ रहा था कि कैसे अक्सर वह उनसे साहित्य की किताबें लेकर पढ़ा करती थी. ऐसे ही एक दिन कॉलेज से लौटते समय बंटी भैया अपने घर की गेट पर खड़े मिले. उनको देखते ही अमृता लगी उलाहना देने, "भैया, मैं कितने दिनों से आपसे भगवती चरण वर्मा की 'रेखा' मांग रही हूं और आप हैं कि सुनते ही नहीं."
"रूक, मैं अभी ला रहा हूं." कहते हुए बंटी भैया दूसरी मंजिल पर बने अपने कमरे में जाने लगे.
दोपहर का समय था. मौसी शायद आराम करने अपने कमरे में चली गई थीं. घर सुनसान पड़ा था. चूंकि अमृता का इस घर में हमेशा का आना-जाना था, इसलिए वह बिना किसी झिझक के बंटी भैया के पीछे-पीछे ऊपरी मंज़िल पर उनके कमरे में पहुंच गई.
बंटी भैया किताब हाथ में देकर भेदभरी नज़रों से उसे देखते हुए बोले, "यहां आने में तुम्हें डर नहीं लगा?"
अमृता हकबकाई, "डर… डर कैसा, आप बंटी भैया ही तो हैं, कोई भूत तो नहीं." अमृता बेख़ौफ़ होकर बोली.
"डरना ज़रूरी है, इंसानों को भी भूत बनते देर नहीं लगती. ज़माना बहुत ख़राब है. इस तरह किसी के भी पीछे अकेले व एकांत में मत जाना." कहते हुए वह कमरे से बाहर चले गए.
वो दिन और आज का दिन, चाहें कोई दोस्त हो, रिश्तेदार हो, पड़ोसी हो या कोई भी, अमृता कभी भी किसी पुरुष के साथ अकेले रहने से बचते आई.


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"डरना ज़रूरी है…" बंटी भैया का यह वाक्य उसके दिलोदिमाग़ में अमिट अक्षरों में लिख गया. कोई घटना घटे या नहीं घटे, इस वाक्य के चेतावनी फलस्वरूप, अमृता किसी घटना की पृष्ठभूमि को तैयार होने ही नहीं देती. और शायद अभी तक यह वाक्य उसके लिए सुरक्षा कवच बना हुआ है.
आज बंटी भैया के जाने पर सभी उनके पागलपन की कहानियां ही बयां कर रहे हैं. वो ऐसी हरकतें करते थे, ऐसी बातें करते थे, ऐसे हंसते थे… लेकिन अमृता को उनकी वो अच्छाई ही याद आ रही थी. इसी अच्छाई को दुनिया के सामने लाकर, वो कभी एक अच्छे इंसान भी थे, याद दिलाकर अश्रुपुरित नेत्रों से शायद अमृता अपने बंटी भैया को सच्ची श्रद्धांजली देने का प्रयत्न कर रही थी.
- रत्ना श्रीवास्तव

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Photo Courtesy: Freepik

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