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कहानी- डर का भूत (Short Story- Dar Ka Bhoot)

मुंबई की एक विशाल बिल्डिंग के ड्रॉइंग रूम का नज़ारा किसी भी आम ड्रॉइंग रूम जैसा ही था. शाम के आठ बज चुके थे और सुजाता किसी आम पत्नी की ही तरह टीवी पर डेली सोप देखते हुए अपने पति का इंतज़ार कर रही थी, तभी उसकी सात साल की बेटी डिंपी दौड़ती हुई आई और एक मैग़ज़ीन दिखाते हुए कहने लगी, “मम्मा... मम्मा... मम्मा...” सुजाता ने उसकी तरफ़ बिल्कुल ध्यान न देते हुए कहा, “हां डिंपू, बोलो क्या बात है? पांच मिनट मुझे डिस्टर्ब मत करना, मेरा सीरियल बस ख़त्म होने वाला है.” डिंपी ने भी मां की बातों पर ध्यान न देते हुए अपनी बात को आगे कहना शुरू किया, “मां, यह सेक्स एजुकेशन क्या होता है?” इस बार सुजाता बुरी तरह झेंप गई. डिंपी ने नया-नया पढ़ना शुरू किया था. सुजाता ने तुरंत डिंपी के हाथ से वह मैग़ज़ीन छीन ली. “किस तरह के बेहुदा सवाल पूछ रही हो? आगे से इस तरह की गंदी मैग़ज़ीन को हाथ मत लगाना, समझी..!” डिंपी को डांटते हुए वो मन ही मन बड़बड़ाने लगी, ‘पता नहीं, आजकल हर जगह इस तरह की ऊल-जुलूल बातें लिखी होती हैं. इसका समाज पर, बच्चों पर क्या असर होगा? इससे किसी को कोई मतलब नहीं.’ मां से जवाब न पाकर डिंपी फिर अपने सवाल पर आ गई, “मां, आपने बताया नहीं, ये सेक्स क्या होता है?” इस बार सुजाता खीझ गई, “अब अगर एक बार भी तुम्हारे मुंह से मुझे यह शब्द सुनाई दिया तो बहुत मार पड़ेगी. कोई मतलब नहीं होता इसका.” डिंपी छोटा-सा मुंह बनाकर वहां से चली गई. उसे समझ में ही नहीं आया कि आख़िर उसने अपनी मां से ऐसा क्या पूछ लिया जिससे मां इतनी बिगड़ गई.

पर क्या वाक़ई किसी सामान्य मां की तरह सुजाता अपनी बेटी के मुंह से सेक्स शब्द सुनकर बौखला गई थी या बात कुछ और ही थी. कई बार ऐसा होता है कि जो चीज़ सतही तौर पर सामान्य लगती है उसकी गहराई में बहुत बड़ा तूफ़ान पल रहा होता है और उस तूफ़ान की कुछ लकीरें आज सुजाता के चेहरे पर दिखाई दे रही थीं. रात को खाना खाने के बाद सारा घर सो चुका था, पर सुजाता पता नहीं अपनी कौन-सी यादों को नाखून से खरोंच रही थी. अतीत की ऐसी कौन-सी चादर थी जिसे वह अपने शरीर से उतारकर फेंक देना चाहती थी. पता नहीं ऐसा कौन-सा एहसास था जिससे उसका शरीर ही नहीं, बल्कि आत्मा भी जल रही थी. वह बार-बार अपनी सोई हुई बेटी को देखती और उसकी आंखों से अविरल आंसुओं की धारा बहने लगती, जैसे वह अपनी बेटी की जगह ख़ुद के बचपन को सोता देख रही हो. अपने बचपन की मासूमियत देखकर कभी उसके होंठों पर मुस्कान आ जाती, तो कभी ख़ुद के लिए ही करुणा. धीरे धीरे रात बीतने लगी और सुजाता के अतीत की यादें भी.

सुबह जब वह उठी तो आंखें और मन दोनों ही बोझिल थे, पर रोज़मर्रा के कामों में वह कब फिर से एक आम गृहिणी बन गई उसे पता ही नहीं चला. उसने सब के लिए नाश्ता बनाया, टिफिन तैयार किया, बेटी को स्कूल छोड़ा... घर के तमाम काम करते हुए एक बार फिर वह अपनी सुखी दुनिया में खो गई. सुजाता की ज़िंदगी पिछले कई सालों से इसी तरह चल रही थी और शायद आगे भी चलती रहती अगर आज वह फोन न आया होता. दोपहर क़रीब बारह बजे फोन की घंटी बजी. मोबाइल पर नंबर मां का था. सुजाता ने फोन उठाया, तो दूसरी ओर से मां ने बड़ी ही घबराई हुई आवाज़ में कहा, “बेटा, मैं तुम्हें शायद फोन नहीं करती, पर यह मामला जरा गंभीर है. बात ये है कि...” मां हिचकिचाने लगी. सुजाता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “कहो ना मां, क्या हुआ..? आप और पापा ठीक तो हैं ना? क्या आप किसी बड़ी मुसीबत में हैं? क्या आपको मेरी किसी मदद की ज़रूरत है..? जल्दी बताइए मां, मेरा जी घबरा रहा है.” सुजाता के मन का घोड़ा उन कुछ पलों में न जाने कितनी अनहोनी घटनाओं के चक्कर काट आया. इतने सालों में मां ने कभी इतने तकल्लुफ़ से बात नहीं की थी.

फिर मां ने कंपकंपाती आवाज़ में कहना शुरू किया और सुजाता सुन्न-सी सुनती रही. मां ने कहा, “सुजाता... बेटा... वो तुम्हारे तायाजी बहुत बीमार हैं. बस, यूं समझ लो कि तुममें जान अटकी हुई है. डॉक्टर कह रहे हैं कि कभी भी कुछ भी हो सकता है. मुझे तुमसे यह सब कहते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा, पर बेटा, मैं और पापा चाहते हैं कि तुम एक बार आकर उनसे मिल लो. वो तुम्हारे नाम की रट लगाए हुए हैं. सुजाता, मुझे लगता है उन्हें बीती बातों का पछतावा है. तुम भी पुरानी बातों को भूल जाओ. तुम आओगी ना? हम तुम्हारा इंतज़ार करेंगे.” सुुजाता ने बिना कोई जवाब दिए फोन रख दिया या शायद उसके हाथ से फोन कब गिरा उसे पता ही नहीं चला. ठीक उसी तरह जिस तरह उसके आंखों के सामने से उसका बचपन कब निकल गया उसे पता ही नहीं चला. कितना दर्द भरा था, कितना सहमा-सहमा था उसका बचपन.

फोन रखकर सुजाता हॉल में गई जहां उसकी बेटी पैर फैलाकर टीवी देख रही थी. सुजाता ने उससे कहा, “डिंपी, ठीक से बैठो. इस तरह फैलकर मत बैठो.” डिंपी ने बड़ी ही मासूमियत से कहा, “मां, मैं फैलकर क्यों नहीं बैठूं?” सुजाता ने उतनी ही बेरुख़ी से कहा, “क्योंकि ऐसे नहीं बैठा जाता है, क्योंकि यह तरीक़ा नहीं है बैठने का, क्योंकि लड़कियां ऐसे नहीं बैठा करतीं.” सुजाता ने ऐसा कहते हुए बड़ी खीझ से डाइनिंग टेबल पर रखा ग्लास उठाया और उसमें पानी भरा ही था कि डिंपी ने फिर से कहा, “मां, पर लड़कियां ऐसे क्यों नहीं बैठतीं?” सुजाता का चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया. शायद उसके ग़ुस्से का यह लाल रंग उसके काले अतीत के कारण ही था, जिसके ज़ख़्म आज कुछ हरे हो गए थे. अब सुजाता के सब्र के सारे बांध टूट गए और वह रुंआसे गले से कहने लगी, “मुझे नहीं पता कि लड़कियां ऐसे क्यों नहीं बैठतीं? मुझे नहीं पता कि छोटी बच्चियों के साथ ऐसा क्यों होता है? मुझे नहीं पता कि इसे कैसे रोका जा सकता है? मैं तो बस तुझे बचाना चाहती हूं मेरी बच्ची.” इतना कहकर सुजाता ने डिंपी को सीने से लगा लिया और फूट-फूटकर रोने लगी. डिंपी यह सब समझने में असमर्थ थी. वह अपनी छोटी-छोटी आंखों को बड़ा करके अपनी मां के दुख को समझने की कोशिश कर रही थी. सुजाता ने मौके की नज़ाकत को भांपते हुए डिंपी से कहा, “ओके, यह सब छोड़ो. चलो, तैयारी करो, हम दोनों नानी के घर जा रहे हैं.” बाल मन बड़ा ही सरल और सुलभ होता है. डिंपी थोड़ी देर पहले घटी घटना को भूलकर ख़ुशी से चीखती-चिल्लाती अपने कमरे में चली गई.

वहां जाने का निर्णय सुजाता ने क्यों लिया यह वह ख़ुद भी नहीं जानती. शादी को आठ साल हो गए और इन आठ सालों में सुजाता ने एक बार भी अपने मायके का रुख़ नहीं किया था. जब भी माता-पिता को उसकी याद आती वे ख़ुद ही उससे मिलने आ जाते थे.

दो दिन बाद ही सुजाता को उसके पति ने ट्रेन में बिठा दिया. ट्रेन ने आगे की तरफ़ जैसे ही बढ़ना शुरू किया सुजाता समय के साथ पीछे की ओर दौड़ लगाने लगी. सुजाता को अपने घर की वह चौखट याद आने लगी जिसके बाहर शाम 7 बजे के बाद लड़कियों का पैर रखना भी मना था. दादी अक्सर कहतीं, “अंधेरा होने के बाद अच्छे घरों की लड़कियां बाहर नहीं जातीं.” पर क्यों नहीं जातीं, ये न कभी मैंने दादी से पूछा और न ही कभी दादी ने बताया. दादी अंधेरे की जिस बुरी दुनिया से मुझे बचाना चाहती थीं उन्हें नहीं पता था कि वह दुनिया तो उस चौखट के अंदर ही बसती है. सुजाता अपनी गोद में सोई हुई डिंपी के बालों को सहला रही थी. वह अपने बरसों पुराने मवाद को किसी के सामने खुलकर रखना चाहती थी. फिर उसने अपने पर्स में से डायरी और पेन निकाली और इतने वर्षों की अपनी पीड़ा को स्याही के रंग में रंगना शुरू किया.

ताया जी, जिन्हें मैं अपने पापा से भी ज़्यादा प्यार करती थी, जिन्होंने मेरा जन्म, मेरा बचपन बहुत करीब से देखा था. मुझे हर जगह घुमाने, स्कूल छोड़ने वही आते थे. मुझे चॉकलेट दिलाते, रंग-बिरंगे गुब्बारे भी दिलाते थे. मेरे बचपन के छह साल उनके साथ बहुत अच्छे बीते. बस, मेरी यादों में मेरा बचपन छह साल का ही था. उसके बाद जो कुछ भी था वह किसी नर्क से कम नहीं था.

मैं बड़ों की सारी नसीहतें मानती. ऐसे बैठो, ऐसे मत बैठो, कोई आए तो उनके सामने मत आओ, लड़कों से बात मत करो, जोर से बात मत करो, जोर से हंसो मत... मेरा घर किसी आम घर की ही तरह था. मेरी मां हमेशा घर के कामों में व्यस्त रहतीं. पापा काम पर जाते और तायाजी घर और बाहर दोनों संभालते, इसीलिए वे अक्सर घर पर ही रहते. मेरी यादें आज भी इतनी ताज़ा हैं मानो कल ही वह दिन गुजरा हो, जिस दिन से मेरे लिए सब कुछ भयावह हो गया. मेरी पूरी दुनिया ही बदल गई.

मैं स़िर्फ 6 साल की थी. रोज़ की तरह खेलकर लौटी थी. उस दिन मेरे घुटने में चोट लगी थी. मैं रोते हुए घर आई. मां रसोई में थीं इसलिए तायाजी ने मुझे गोद में उठा लिया और कहने लगे, “हमारी गुड़िया रानी गिर गई? कोई बात नहीं, तायाजी आपकी मरहम-पट्टी कर देंगे, फिर आपका दर्द कम हो जाएगा.” ऐसा कहते हुए तायाजी मुझे ऊपर अपने कमरे में ले जाने लगे. दादी वहीं आंगन में बैठी थीं, पर उन्होंने रोकने की ज़रूरत नहीं समझी, क्योंकि उन्हें लगा मैं सबसे सुरक्षित हाथों में हूं. तायाजी ने मुझे अपने बिस्तर पर बिठाया, पुचकारा, पीठ पर लाड़ से हाथ भी फिराया. उनके इस लाड़-प्यार की मुझे आदत थी, पर उसके बाद जो हुआ उसकी आदत मुझे नहीं थी. वे घुटने पर दवाई लगाते हुए कहने लगे, “अब मेरा बच्चा बिल्कुल ठीक हो जाएगा. अब आपको अच्छा लगेगा.” फिर उन्होंने अपना हाथ ऊपर की ओर खिसकाना शुरू किया. यह सब क्या हो रहा है यह समझने में मैं पूरी तरह असमर्थ थी, पर वह छुअन और उसका एहसास बहुत गंदा था, जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाई. वह छुअन इतनी अस्वाभाविक थी कि मैं बिना कुछ कहे वहां से भाग गई, पर किसी से कुछ कहा नहीं.

दूसरे दिन मैं सब भूल गई. छह साल की उम्र की बेफ़िक्री एक बार फिर मुझमें आ गई. मैंने फिर तायाजी के साथ घूमना-फिरना शुरू कर दिया. काफ़ी दिनों तक कुछ नहीं हुआ. फिर एक दिन जब तायाजी मुझे स्कूल छोड़ने जा रहे थे, तब अचानक उन्होंने कार एक सुनसान रास्ते पर यह कहकर रोक दी कि उनसे यहां कोई मिलने आने वाला है. उन्होंने मुझे चॉकलेट दी और फिर से अपने हाथ से मेरे घुटनों के ऊपर सहलाने लगे. मैं घबरा गई कि यह अचानक तायाजी को क्या हो जाता है. मेरे हाथ से उनकी दी चाकलेट गिर गई. मैं रोने लगी, पर वे नहीं रुके. उन्होंने मेरे शरीर पर ऊपर-नीचे हर जगह हाथ लगाया. उनके चेहरे पर अजीब-सा आनंद था, जिसे समझने में मैं असमर्थ थी. उस दिन के बाद से उनकी रही-सही झिझक और डर भी जाता रहा. आए दिन मुझे अकेला देखकर वे वही घिनौनी हरक़तें करने चले आते और मैं अपने ही घर में ख़ुद के लिए एक सुरक्षित कोना तलाशती रह जाती.

रात को सोते समय मैं अपनी गुड़िया को कसकर पकड़कर सोती. रातभर मेरी नज़र दरवाज़े पर रहती कि कहीं तायाजी न आ जाएं. मेरी दादी की सुनाई परियों की कहानी के राक्षस मेरी ज़िंदगी में आ जाएंगे यह तो मैंने सोचा ही नहीं था. मुझे शारीरिक पीड़ा तो हो ही रही थी, पर मानसिक तौर पर क्या हो रहा था, उसे बयां कर पाना मुश्किल था. मुझे तो यह भी नहीं पता था कि जो पीड़ा मैं सहन कर रही हूं वह वास्तविकता में एक जघन्य अपराध है. उसे समाज में शारीरिक शोषण कहा जाता है.

मुझे अपने शरीर पर किसी के भी स्पर्श से घिन होने लगी थी. मैं बार-बार नहाती, बार-बार साबुन से अपने हाथ धोती, फिर भी वह एहसास न धुलता. मेरे अपराधी को समाज और परिवार में इज़्ज़त पाता देख, सबके साथ हंसता-खेलता देख मेरा ख़ून खौल उठता.

उन्हें किसी का डर नहीं था. इस तरह के किसी भी आदमी को समाज, परिवार या क़ानून का डर नहीं होता, क्योंकि उनके पास इज़्ज़त, ओहदे का ऐसा लबादा होता है जिसके नीचे की गंदगी कोई चाह कर भी नहीं देख सकता. ये लोग समाज के ठेकेदार बने घूमते हैं. इनके लिए रिश्ते, संस्कार सब कुछ सहूलियत की चीज़ें होती हैं, जिन्हें ये अपनी ज़रूरत के अनुसार तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं.

आख़िरकार चार साल बाद एक दिन मेरी सहनशक्ति ने जवाब दे दिया. मैं ख़ुद उनके पास गई और उनसे कहा कि अगर उन्होंने ये सब बंद नहीं किया तो मैं सारी बातें मां से कह दूंगी. उन्होंने हंसकर मेरी पीठ पर हाथ फिराया और कहा, “क्या बताओगी, क्या आपके तायाजी आपको प्यार भी नहीं कर सकते? तुम बहुत छोटी हो, तुम्हारी बातों पर कौन विश्‍वास करेगा? जाओ, खेलने जाओ.” उनकी इस बेफ़िक्री ने मुझे और बेचैन कर दिया. लिखते-लिखते सुजाता के चेहरे पर एक करुणा के भाव आ गए. वो अपने आप में बड़बड़ाने लगी, “कितनी असहाय थी मैं अपनों के बीच.”

उसने आगे लिखना शुरू किया. मां, क्या आपको याद है वह दिन, जब मैं आपको तायाजी के बारे में बताने आई थी. मैंने आपको सब कुछ बताया था. मुझे आपका दुख आपके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहा था. आपने मुझे गले से लगा लिया था. कितने दिनों के बाद मैं ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी, एक अजीब-सी शांति का एहसास हो रहा था. मुझे लगा कि अब आप जाकर उस राक्षस से जवाब मांगेंगी कि आख़िर उसने आपकी बेटी के साथ ऐसा क्यों किया? पर आपने जो मुझसे कहा, उसे सुनकर मैं स्तब्ध रह गई. आपने कहा, “बेटा, जो भी हुआ वो स़िर्फ  तुम्हारे और मेरे ही बीच रहेगा. तुम इस बारे में कभी किसी से बात नहीं करोगी. इससे समाज में तुम्हारी और घर की बदनामी होगी.”और अगले ही दिन आपने मुझे नानी के यहां पढ़ने भेज दिया. मां क्या आपको विश्‍वास था कि मैं वहां सुरक्षित रहूंगी? मैं तो कमज़ोर थी, असमर्थ, असक्षम थी, पर आप मेरी आस थीं. मुझे विश्‍वास था कि आप ज़रूर कुछ करेंगी. आप मेरी शक्ति क्यों नहीं बनीं मां? आपने मेरे लिए आवाज़ क्यों नहीं उठाई?

आपको याद है मां, दूसरे दिन घर से विदा लेते समय दादी ने मुझसे कहा, “बेटा, तुमने सबके पैर छुए, लेकिन अपने तायाजी के नहीं छुए.  जाओ, जाकर तायाजी को प्रणाम करो. उस दिन मैं  टूट गई मां. जिस आदमी ने मेरा बचपन अपने पैरों तले रौंद दिया, मुझे झुककर उसके उन्हीं पैरों को छूना पड़ा. वह विजेता की तरह चौखट के भीतर ही खड़ा रहा और मुझे अपराधी की तरह अपना ही घर छोड़कर जाना पड़ा. मैं आज तक इस ऊहापोह में हूं मां कि आख़िर मैं कहां ग़लत थी. इतना लिखकर सुजाता ने डायरी और आंखें बंद कर लीं.

अब ट्रेन की धड़धड़ की आवाज़ सुजाता के दिल की धड़कनों के साथ क़दमताल कर रही थी. उसकी खीझ, उसका ग़ुस्सा आज भी शांत नहीं हुआ था. वह बीती बातों, अपनी पीड़ा को याद कर अपने हाथों की उगंलियों को आपस में रगड़ रही थी. उसकी आंखों में आंसू नहीं थे, स़िर्फ घृणा थी, घिन थी.

इतने में स्टेशन आ गया. सामान के साथ अपने मन का बोझ लेकर वह सीधे अस्पताल गई. सब आईसीयू के बाहर बैठे हुए थे. सुजाता ने डिंपी को अपनी मां के पास बाहर छोड़ा और ख़ुद अंदर चली गई. उसने देखा, तायाजी अनगिनत मशीनों के सहारे ज़िंदा थे. सुजाता की आहट से उनकी आंख खुली.

सुजाता ने उनसे कहा, “तायाजी, आपको इस हालत में देखकर मुझे बड़ा सुकून मिल रहा है. एक विकृत आनंद की अनुभूति हो रही है. ठीक उसी तरह, जैसे आपको मुझे पीड़ा देते व़क्त होती थी.” तायाजी की आंखों से आंसू निकल आए.

सुजाता ने कहा, “आपके इस पछतावे का न तो इतने सालों के बाद कोई मतलब बनता है और न ही मुझे इससे कोई फ़र्क़ पड़ेगा. मैं यहां आपसे मिलने नहीं आई हूं, बल्कि जिस डर से मैं इतने सालों से भाग रही हूं उससे आंखें मिलाने आई हूं ताकि समय आने पर मैं अपनी बेटी के लिए सबसे लड़ पाऊं. उसे आप जैसे लोगों से सुरक्षित रख सकूं. उसे सिखा सकूं कि उसे किसी भी प्रकार का अत्याचार सहने की ज़रूरत नहीं है. आपके अच्छे स्वास्थ्य की कामना तो नहीं कर पाऊंगी और न ही आज आपके पैर छूऊंगी.” इतना कहकर वह बाहर आ गई.

अपनी मां के पास आकर उसने पर्स में से डायरी निकाली और मां को देते हुए बोली, “आप यह डायरी पढ़ना, मैंने आपके लिए ही लिखी है. मैं बस यही चाहती हूं कि आप समझें कि उस समय मेरा दर्द, मेरी पीड़ा समाज, मान-प्रतिष्ठा, घर-परिवार सबसे ऊपर थी.” उसने एक लंबी सांस भरी और कहा, “चलती हूं मां, दो घंटे में वापसी की ट्रेन है.

सुजाता अब काफी हल्का महसूस कर रही थी मानो सारा बोझ उतारकर आई हो. ट्रेन में बैठने के बाद उसने डिंपी से कहा, “डिंपी, तुम मुझसे पूछ रही थी ना कि सेक्स एजुकेशन क्या होता है? आओ, मैं तुम्हें बताती हूं.” फिर तो मां-बेटी के सवाल-जवाब का सिलसिला रेल की रफ्तार के साथ आगे बढ़ता ही चला गया.

विजया कठाले निबंधे

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