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कहानी- कॉफी डेट… (Short Story- Coffee Date…)

थोड़ी देर बाद मैं और सुषमा एक बढ़िया रोमांटिक पिक्चर का मज़ा ले रहे थे. सुषमा को कॉफी देते वक़्त जब मेरा हाथ अचानक उसकी उंगलियों से छू गया, तो ऐसा लगा मानो मेरे भीतर एक करंट सा दौड़ गया हो. प्रेम की ऐसी अनोखी अनुभूति मुझे पहले कभी नहीं हुई थी. इश्क़ की तड़प किसे कहते हैं इसका एहसास मुझे आज हो रहा था.

मेरे ऑफिस का सारा स्टाफ अपने घर जा चुका है, लेकिन मैं अभी भी ऑफिस में बैठा हुआ हूं. तक़रीबन मैं रोज़ ही ऐसा करता हूं. क्या करूं घर जाकर… आख़िर घर जाने की कोई वजह भी तो होनी चाहिए. वैसे, मेरी पत्नी सुषमा और बेटा मोनू बहुत अच्छे हैं, लेकिन मेरा बुझा हुआ मन अब किसी भी बात में कोई ख़ुशी महसूस नहीं करता. मुझे तो ऐसा लगता है कि शायद अब पूरी उम्र मेरी यह बेरुखी ख़त्म नहीं होगी… मेरा जीवन उस काली अंधकार भरी रात की तरह हो गया है, जिसकी शायद ही कभी सुबह होगी.
अब मेरे लिए तो सारे मौसम एक समान है, तभी तो मुझे ना पतझड़ में कोफ्त होती है और ना ही बसंत का आगमन मेरे मन को उत्साह देता है. ना मुझे गर्मी की तपिश परेशान करती है और ना ही सर्दी की कुनकुनी धूप मुझे भली लगती है.
“क्या कहा तुमने, तुम्हें पब्लिक स्कूल में जाना है…सरकारी स्कूल में जाने से तुम्हारी इज़्ज़त में कमी आती है. मेरे पास पैसों का पेड़ नहीं लगा हुआ है, जो तुम्हें महंगे स्कूल में पढ़ने भेज दूं और फिर पढ़ाई तो सभी स्कूलों में एक जैसी होती है." फिर मेरे पिताजी का एक ज़ोरदार थप्पड़ मेरे गालों पर अपनी छाप छोड़ गया था.
मेरी मां मेरी वेदना समझती थी, इसलिए उन्होंने आगे बढ़कर मुझे अपनी बांहों में समेट लिया था. लेकिन वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थीं, क्योंकि घर के सारे निर्णय तो पिताजी ही लिया करते थे.
फिर मैं चुपचाप अपना बस्ता संभाले सरकारी स्कूल की ओर प्रस्थान कर गया था, जबकि मेरे दो जिगरी दोस्त बंटी और राजू रोज़ प्राइवेट स्कूल की ओर जाते हुए मेरा मज़ाक बनाया करते थे.
तब टूट कर रह जाता था मैं… बार-बार मैं यही सोचता था कि अच्छा-खासा व्यवसाय है पिताजी का और उस पर ढेर सारी पुश्तैनी ज़मीन, लेकिन फिर भी इतनी कंजूसी… जबकि बंटी और राजू दोनों के पिताजी प्राइवेट कंपनियों में जॉब करते थे.

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इधर मैं धीरे-धीरे बड़ा होता गया और उधर मेरे पिताजी का तानाशाही स्वभाव मेरे मन और मेरी ख़ुशियों पर निरंतर प्रहार करता रहा. मेरे अंतर्मुखी स्वभाव के कारण मैं लोगों से कम ही घुलमिल पाता था.
स्कूल ख़त्म होने के बाद अच्छे कॉलेज में तो मेरा एडमिशन हो गया. लेकिन मैं चाह कर भी लड़कियों से दोस्ती नहीं कर पाया, क्योंकि मेरी ढीली ड्रेसिंग सेंस और उस पर तेल से भरे हुए बाल. आख़िर पर्सनैलिटी नाम की भी तो कोई चीज़ होती है.
मेरी उम्र के सारे लड़के अपनी-अपनी गर्लफ्रेंड के साथ कैंटीन में बैठकर गरमा गरम कॉफी का मज़ा लेते. लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाया, क्योंकि कोई भी लड़की मुझे घास जो नहीं डालती थी. कॉफी डेट के नाम पर मिली असफलता ने मुझे बहुत मायूस किया. यहां तक की मेरे दोनों दोस्तों बंटी और राजू के पास मोटरसाइकिल थी, जिस पर वह अपनी गर्लफ्रेंड को बिठाकर घूमा करते थे, लेकिन हमारी क़िस्मत तो यहां पर भी दगा दे गई.
“क्या कहा मोटरसाइकिल… पहले पढ़ाई-लिखाई कर लो, कुछ बन जाओ, तब जाकर अपने शौक पूरे करना… लोकल बस का पूरे महीने का पास बनता है, जो किफायती भी है. इसलिए साहबजादे मोटरसाइकिल की सवारी से बेहतर है कि लोकल बस में सफ़र किया जाए, इससे एक ओर पैसे भी बचेंगे और धुएं का प्रदूषण भी नहीं होगा. पिताजी की इन बातों ने मेरे भीतर उठ रही इश्क़ की ज्वाला पर पानी फेर दिया था.
तभी अचानक मेरी सोच पर विराम लगा, क्योंकि मेरा चपरासी मेरे सामने चाय और बिस्किट्स रख कर चला गया था. इधर मैं चाय पीता गया, तो उधर बीती बातें फिर से मेरे मन के दरवाज़े पर दस्तक देने लगी थी.
“यार मनोज, लड़कियों को अगर कॉफी डेट पर ले जाना है, तो पॉकेट में माल भी होना चाहिए, क्योंकि अगर पास में ढेर सारे पैसे ना हो तो कोई भी लड़की नहीं पटेगी. अपने दोस्त बंटी की यह बात सुनकर मेरे इश्क़ का भूत रफ़ूचक्कर हो गया था. क्योंकि मैं जानता था कि पिताजी मेरी पॉकेट मनी किसी भी हाल में नहीं बढ़ाने वाले.
यहां तो किसी तरह से महीने भर का ख़र्च ही मुश्किल से चल पाता है. ऐसे में कैफे का महंगा बिल मैं भला कहां अफोर्ड कर सकता था. इस तरह किसी लड़की को कॉफी डेट पर ले जाने की मेरी तमन्ना अधूरी ही रह गई.
फिर मेरा कॉलेज ख़त्म हुआ और एक-दो जगह इंटरव्यू देते ही बात बन गई और मुझे एक सरकारी डिपार्टमेंट में अच्छी नौकरी मिल गई. तब लगा शायद मैं अब अपने अधूरे अरमान पूरे कर सकता हूं, लेकिन तब भी पिताजी ने अपनी तानाशाही बरक़रार रखी और अपने परम मित्र की बेटी सुषमा को मेरे लिए पसंद कर लिया.
“क्या मां… क्या मैं सारी ज़िंदगी पिताजी के हिसाब से ही चलता रहूंगा. क्या मेरी मर्ज़ी कोई मायने नहीं रखती. कम से कम अब तो मुझे अपनी पसंद की लड़की से शादी करने की इजाज़त मिलनी चाहिए." मेरा ग़ुस्सा अपनी चरम सीमा पर था.
“तेरे मन की बात मैं जानती हूं, लेकिन तेरे पिताजी तेरे दुश्मन तो नहीं है ना. उन्होंने सुषमा को तेरे लिए कुछ सोच-समझ कर ही चुना होगा. और फिर हमारी बिरादरी में तो अभी भी माता-पिता ही अपने घर की दुल्हन ढूंढ़ कर लाते हैं." मां की इन बातों ने मेरे ज़ख़्मों पर मरहम अवश्य लगाया था, लेकिन मेरे मन में अब कुछ भी नहीं बचा था. एक टूटे पत्ते की भांति रह गया था मैं, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पिताजी के हाथों की कठपुतली था.
फिर मेरी सुषमा के साथ शादी हो गई थी. मैंने तो ग़ुस्से में आकर बंटी और राजू को भी अपनी शादी में भी नहीं बुलाया था. जबकि मेरे पिताजी ने अपने सारे दोस्तों को मेरी शादी में बुलाया था. आज वे बहुत ख़ुश थे. आख़िर आज उनकी तानाशाही की जीत जो हुई थी. बस यही सब सोचकर मेरा मन भर आया था.

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बहुत बड़ा आयोजन था मेरी शादी का. स्टेज पर सब लोग मुझे ढेर सारे उपहार दे रहे थे, लेकिन मैं मन ही मन उबल रहा था, क्योंकि मेरी शादी मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जो हो रही थी. सुषमा देखने में ठीक-ठाक थी, लेकिन मेरे मन के मुताबिक़ नहीं थी. मैं अपने दोस्त बंटी की तरह लव मैरिज करना चाहता था, लेकिन मेरे बाबूजी इसके फेवर में नहीं थे.
मुझे याद है जब मैं सुषमा के साथ बंटी की शादी में गया था. कितना ख़ुश था बंटी. आख़िर उसने अपनी गर्लफ्रेंड सोनिया से ही तो शादी की थी. सच में, कितना लकी था बंटी. जिसकी पसंद को उसके पिताजी ने दिल से स्वीकार किया था, जबकि मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाया था. बंटी ने जिसके साथ कॉलेज में टाइम स्पेंड किया उसी के साथ फिर सात फेरे लिए.
वाकई, बंटी को कितना अच्छा लगता होगा सोनिया को अपनी जीवनसाथी के रूप में पा कर. अगर आपको अपना जीवनसाथी समान सोच का मिले, तो ज़िंदगी बेहद आसान हो जाती है. काश, मेरे पिताजी भी स्वतंत्र ख़्यालों के होते, तो आज मेरी ज़िंदगी ऐसी ना होती.
उसके बाद मेरी बंटी से कभी मुलाक़ात नहीं हुई. सच कहूं, तो मैंने ही उसका फोन कभी रिसीव नहीं किया. आख़िर कब तक मैं अपनी नाकामयाबी दूसरों को दिखाकर ख़ुद को कमतर साबित करता रहता. अब तो जैसे मेरी कुछ भी करने की शक्ति ही समाप्त हो चुकी है.
वैसे मेरी पत्नी सुषमा बहुत समझदार है, जो घर को बहुत अच्छे से संभालती है. मेरा बेटा मोनू भी पढ़ने में बहुत होशियार है. आज मेरे पास सब कुछ है, बढ़िया घर, बड़ी सी गाड़ी, समझदार पत्नी, प्यारा बेटा… बस नहीं है तो जीवन के प्रति कोई उत्साह…
शुरू-शुरू में सुषमा को मेरा यह स्वभाव अखरा था, लेकिन फिर उसने बीते समय के साथ अपने आपको ढाल लिया था. क्योंकि अब इसके सिवा उसके पास कोई चारा भी तो नहीं था.
रात गहरी होने लगी थी. मैं कभी-कभी तो ऑफिस में ही डिनर कर लिया करता हूं, तो कभी घर जाकर खाना खाया करता हूं. शुरू में तो सुषमा ने डिनर पर मेरा वेट किया, लेकिन अब वह भी खाना खाकर सो जाती है और मेरा खाना किचन में रख देती है.
मेरा अगर मन करता है, तो मैं खाना गर्म करके खा लेता हूं, वरना फ्रिज में रख देता हूं. और फिर सुषमा को तो सुबह मोनू के लिए जल्दी उठना भी पड़ता है. वैसे भी जिस रिश्ते को सिर्फ़ निभाने की कवायत हो, वहां इस तरह की बातें बहुत आम है.
“सर, आप ऑफिस में ही डिनर करेंगे या घर जाकर खाएंगे?" अपने चपरासी की यह बात सुनकर मैं अतीत से वर्तमान में लौट आया था.
“तुम ऐसा करो कि ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए बोल दो. मैं आज घर जाकर ही खाना खाऊंगा." इतना कहकर मैं उठ खड़ा हुआ था.
जैसे ही मैं बाहर आया वैसे ही एक परिचित आवाज़ ने मेरे बढ़ते कदमों को रोक दिया.
“यार मनोज, कैसा है तू?" सामने बाइक पर मेरा पुराना दोस्त बंटी बैठा हुआ था.
“सब ठीक है." मैं बुझे हुए स्वर में बोला था.
“कितनी बार तुझे फोन मिलाया, लेकिन तू कॉल ही रिसीव नहीं करता था." बंटी के स्वर में शिकायत थी.
“सॉरी यार, बस कभी-कभी काम में बहुत बिज़ी हो जाता हूं." मैं अपनी सफ़ाई में बोला.
“यार ऐसा भी क्या काम… कम से कम अपने यारों से तो मिलने का टाइम निकालना ही चाहिए." बंटी हंसते हुए बोला.
“चल मेरे घर चल. आज दोनों भाई मिलकर धमाल करेंगे." बंटी अपने पुराने अंदाज़ में आते हुए बोला.
“नहीं यार फिर कभी मिलता हूं." मैं उसे टालने के इरादे से बोला.
“नहीं आज मैं तुझे नहीं छोड़ने वाला. मुश्किल से तो तू मेरे हाथ लगा है. आज तो तुझे मेरे साथ चलना ही पड़ेगा."
मैं समझ चुका था कि अब बंटी मुझे छोड़ने वाला नहीं है और फिर सच कहूं, तो मैं ख़ुद भी उससे मिलकर अपनी पुरानी यादें ताज़ा करना चाहता था. वैसे भी आज मैं उससे बहुत समय बाद मिल रहा था.
फिर मैंने अपने ड्राइवर को मेरे पीछे आने का आदेश दिया और ख़ुद बंटी की बाइक पर जाकर बैठ गया. इधर बंटी की मोटरसाइकिल ने रफ़्तार पकड़ी, तो उधर मेरा मन फिर से अशांत होने लगा. ना चाहते हुए भी मेरा अतीत मेरे वर्तमान पर भारी पड़ने लगा था.
वह कॉलेज के बीते हुए दिन… कैंटीन की कटिंग चाय और एक ही ब्रेड पकोड़े से सभी दोस्तों का शेयर करना… कितनी खट्टी-मीठी यादें… अचानक ही मेरे मस्तिष्क में उभरने लगी थी.  
बंटी और राजू के साथ कभी-कभी क्लास बंक करके पिक्चर देखना और फिर एक ही बाइक पर तीनों दोस्तों का बैठकर घर वापस आना. रास्ते में रुक कर रोड साइड बन रही गरमा गरम नूडल्स का मज़ा लेना… या फिर रहीम चाचा के खेत में घुसकर आम तोड़ना…
“क्या सोच रहा है तू..?" बंटी ने मुझसे पूछा, तो मैं जवाब में धीरे से हंस दिया.
“अगली बार जब हम दोनों मिलेंगे, तब राजू को भी बुला लेंगे." बंटी बाइक चलाते हुए बोला.
“तो आज उसे भी बुला लेते हैं." ना चाहते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया.
“नहीं यार, मैं उसे बुला तो लेता, लेकिन उसकी आजकल नाइट शिफ्ट भी चल रही है." बंटी बाइक रोकते हुए बोला, “आजकल बढ़ती महंगाई के कारण उसे डबल शिफ्ट करनी पड़ती है."
“सच कहूं यार, बहुत अच्छा लग रहा है तेरी तरक़्क़ी देखकर… काश, हमने भी तेरी तरह अपने करियर पर ध्यान दिया होता, तो आज हमारे पास भी इस बाइक की जगह अपनी बड़ी सी गाड़ी होती." बंटी के मुंह से यह सब सुनकर मुझे समझ में ही नहीं आया था कि मैं रिएक्ट करूं तो कैसे.

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फिर मैं बंटी के साथ उसके घर चला गया था. उस समय उसके घर की जो हालत थी, उसे देखकर मेरा मन अजीब सा हो गया. उसके दोनों बच्चे स्कूल ड्रेस में ही टीवी देख रहे थे और बंटी के घर की फुल टाइम मेड मज़े से फोन पर किसी से बातें कर रही थी.
“क्या हुआ सावित्री… घर की हालत इतनी ख़राब क्यों है और इन दोनों ने स्कूल ड्रेस क्यों नहीं चेंज की है?" बंटी ग़ुस्से से बोल पड़ा.
बंटी को सामने देखकर सावित्री भी डर गई और बोली, “साहब, आजकल यह दोनों बहुत ज़िद्दी हो गए हैं. मेरी कोई बात नहीं मानते. मैं कुछ भी कहूं तो यह लोग पलट कर जवाब देते हैं."
फिर उसके दोनों बच्चे चुपचाप अंदर चले गए थे और सावित्री बिखरा हुआ घर ठीक करने लगी थी.
“अब इसे छोड़ो, बाद में ठीक कर लेन. तुम ऐसा करो कि थोड़े से पकौड़े और गरमा गरम चाय बना दो."
“साहब, बेसन तो ख़त्म है और तेल भी थोड़ा ही है. मैंने मैडम को बोला था सामान लाने के लिए, लेकिन उन्होंने कहा कि साहब से कहना."
“सबसे बड़ा बेवकूफ़ तो मैं ही हूं ना. बाहर कमाने भी जाऊं और घर का भी देखूं. सोनिया ने मुझे पागल समझ रखा है. यार सच में तू अक्लमंद निकला, जो इन प्यार-व्यार के चक्कर में नहीं पड़ा, क्योंकि इससे ख़ुशी से ज़्यादा ग़म मिलते हैं."
“सोनिया मुझे कितनी बार कहती है कि कम से कम एक सफ़ाई वाली बाई का ही इंतज़ाम कर दो, लेकिन मैं ही चुप लगा जाता हूं. आख़िर एक बंदे की आमदनी में दो हाउस हेल्पर अफोर्ड करना बहुत मुश्किल है."
फिर सावित्री हमारे पास आई और चाय की ट्रे रखकर चली गई. चाय पीने के साथ-साथ हमारी बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू हो गया.
“सोनिया को तो दिन-रात क्लब और किटी पार्टी में ही जाना याद रहता है. घर में क्या हो रहा है उसे कुछ पता नहीं. वैसे यार, प्यार और आकर्षण में बहुत फ़र्क़ होता है. जहां एक ओर प्यार में अपने जीवनसाथी को समझने की कोशिश निरंतर जारी रहती है, वहां दूसरी ओर आकर्षण सिर्फ़ और सिर्फ़ छलावा होता है. तभी तो आकर्षण की बुनियाद पर टिके संबंध मज़बूत नहीं होते हैं.
सच कहूं, तो मेरे मन में कितनी बार आया कि मैं सोनिया को तलाक़ दे दूं. लेकिन फिर यही सोच कर चुप रह गया कि कम से कम अभी हम सब लोग साथ में तो रह रहे हैं, लेकिन तलाक़ के बाद तो स्थिति और भी ख़राब हो जाएगी.
कोर्ट कचहरी के चक्कर और शुरू हो जाएंगे. वैसे भी मेरे पास इतने पैसे नहीं है कि मैं केस लड़ने में अपनी सारी आमदनी ख़र्च कर दूं. अब भी सावित्री के सहारे घर चल रहा है आगे भी चलता रहेगा."
“बच्चे आज डिनर में पिज़्ज़ा खाना चाहते हैं, अगर तू कहे तो मैं तेरे लिए भी ऑर्डर कर दूं." बंटी ने मुझसे पूछा, तो मैं ना बोलकर बाहर निकल आया.
उसके बाद मैं अपनी गाड़ी में बैठकर अपने घर की तरफ़ चल दिया था. आज मुझे एहसास हो रहा था कि मेरे पिताजी बिल्कुल सही थे, जबकि मैं उन्हें हमेशा ग़लत समझता रहा.
मेरे पिताजी कठोर ज़रूर थे, लेकिन उनकी कठोरता में भी मेरा हित छुपा हुआ था. उनकी सोच पुरानी ज़रूर थी, लेकिन आज के समय के हिसाब से भी सटीक थी. उनके आदर्श मौजूदा परिपाटी में भी बिल्कुल फिट बैठते हैं. यह उनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम है कि आज मेरे पास धुआं उड़ाती मोटरसाइकिल की जगह अपनी चार पहियों वाली गाड़ी है और सुषमा का सच्चा प्यार मेरे साथ है.
तभी मैंने अचानक कुछ सोचा और ऑनलाइन जाकर लेटेस्ट पिक्चर की दो टिकट ख़रीद ली और उसका स्क्रीनशॉट मैंने अपने फैमिली ग्रुप पर सेंड कर दिया. कुछ देर तक तो कोई हलचल नहीं हुई, लेकिन फिर थोड़ी देर बाद मेरे बेटे मोनू का मैसेज आया, “क्या पापा आपने यह पिक्चर की दो टिकट ख़रीदी है."
“हां, मैं और तेरी मम्मी आज कॉफी डेट पर जा रहे हैं. बढ़िया पिक्चर के साथ गरमा गरम कॉफी… सच में मज़ा आ जाएगा."
“लेकिन पापा मम्मी तो खाना खा चुकी है.” मोनू का अगला मैसेज आया.
“तो क्या हुआ… कॉफी तो खाना खाने के बाद भी पी जा सकती है. मैं रास्ते में सिनेमा हॉल पर उतर जा.ऊंगा और ड्राइवर मम्मी को लेने आ जाएगा." इतना मैसेज करके मैंने अपना फोन बंद कर दिया.


थोड़ी देर बाद मैं और सुषमा एक बढ़िया रोमांटिक पिक्चर का मज़ा ले रहे थे. सुषमा को कॉफी देते वक़्त जब मेरा हाथ अचानक उसकी उंगलियों से छू गया, तो ऐसा लगा मानो मेरे भीतर एक करंट सा दौड़ गया हो. प्रेम की ऐसी अनोखी अनुभूति मुझे पहले कभी नहीं हुई थी. इश्क़ की तड़प किसे कहते हैं इसका एहसास मुझे आज हो रहा था.
इसलिए मेरा तो मूड अब पूरी तरह से रोमांटिक हो चुका था, लेकिन सुषमा के भीतर क्या चल रहा था, मैं इस बात से पूरी तरह अनजान था. वैसे भी उसका मन पढ़ने का हुनर मैंने अभी तक सीखा कहां था.
मैंने अपनी तरफ़ से पहल कर दी थी, अब सुषमा का क्या रिएक्शन होगा यह देखना बाकी था. लेकिन फिर पिक्चर ख़त्म होने तक उसका हौले से मेरे कंधे पर अपना सिर रख देना दर्शा रहा था कि हम दोनों की कॉफी डेट शुरू हो चुकी हो चुकी है.

शालिनी गुप्ता


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Photo Courtesy: Freepik

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