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कहानी- चुनौती (Short Story- Chunauti)

"नीता मैडम से सीखिए कुछ, वे महिला हो कर अपनी ज़िम्मेदारियों से नहीं भागतीं और आप..." नीता ने एक कुटिल मुसकान मुकुल की ओर फेंकी तो मुकुल तिलमिला उठा. हालांकि मन ही मन नीता जानती थी कि यह मुसकान उसे बहुत भारी पड़ने वाली है, पर इस शह और मात के खेल में पीछे हटना अब उसे मंज़ूर नहीं था.

स्टाफरूम से आती आवाज़ों ने नीता के कदम बाहर ही रोक दिए, तेज-तेज उभरते स्वर कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे, "अरे, इतनी चालाक हो गई है आजकल की लड़कियां कि दोनों हाथों में लड्डू चाहिए उन्हें. बराबरी भी करेंगी और आरक्षण भी चाहिए, जहां लंबी लाइन देखी वहीं अपनी लाइन अलग बना लेंगी और यदि एक्स्ट्रा पीरियड लेने की बात आए तो लड़कियां शाम को ज़्यादा देर नहीं रुक सकती... कह कर पल्लू झाड़ लेंगी. फिर जैसे ही विभागाध्यक्ष बनाने की बात आई पुरुष महिला सब बराबर सब को समान अवसर मिलने चाहिए, इसलिए हमारे नाम पर भी गहराई से विचार किया जाए."

मुकुल की तेज आवाज़ में व्यंग्य के पुट से नीता की कनपटियों में दर्द सा उठने लगा. उसके लिए अब और खड़े रहना मुश्किल हो गया तो वह धीरे से अंदर दाख़िल हुई और एक कुर्सी खींच कर बैठ गई.

जैसा कि नीता को उम्मीद थी उस के अंदर घुसते ही कमरे में पूर्णतया शांति छा गई. उसने चुपचाप कापियां जांचना आरंभ कर दिया मानो कुछ सुना ही न हो. चपरासी चाय ले आया था और इस के साथ ही वातावरण सामान्य होने लगा था. नीता ने राहत की सांस ली. स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही उसे बहस, वाद-विवाद आदि से घबराहट सी होने लगती थी. इसीलिए निबंध प्रतियोगिता में सदैव अव्वल आने वाली लड़की

वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेना तो दूर हॉल में बैठ कर सुनना भी गवारा नहीं समझती थी.

वैसे देखा जाए तो मुकुल के आक्षेप ग़लत भी नहीं थे. हमेशा से ही किसी भी वर्ग के कुछ प्रतिष्ठित लोगों की वजह से ही वह पूरा वर्ग बदनाम होता है. लेकिन कुछ प्रतिष्ठित लोगों के प्रयास ही उस वर्ग को रसातल से ऊपर भी खींच ले आते हैं नीता. मन में उठ रहा विचारों का अंतर्द्वद्व फिर गंभीर वाद-विवाद में तब्दील न हो जाए इस आशंका से घबरा कर नीता ने फटाफट चाय की चुस्कियां लेनी आरंभ कर दीं.

तभी साथी अध्यापक विनय अपनी शादी का कार्ड ले आया, "लीजिए, आप ही बची थीं. बाकी सब को तो दे चुका हूं."

"विनय, तुम्हारी सगाई हुए तो काफ़ी अरसा हो गया न?" अपने हाथ के कार्ड को उलट-पुलट कर देखते हुए मुकुल ने राय ज़ाहिर की.

"हां, सालभर से ज़्यादा ही हो गया है. विनीता भी सरकारी स्कूल में सीनियर टीचर है तो इसलिए उसके यहां तबादले का प्रयास कर रहे थे पर नहीं हो पाया."

"फिर अब?"

"अब उसने रिजाइन कर दिया है. यहीं कहीं प्राइवेट में कर लेगी."

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"उफ़, खैर किसी एक को तो एडजस्ट करना ही था," मुकुल ने गहरी सांस भरी तो नीता की चुभती नज़रें उस पर टिक गई. जैसे कहना चाह रही हो किसी एक को नहीं मुकुल, लड़की को ही एडजस्ट करना था. इसी से तो आप पुरुषों का ईगो तुष्ट होता है. हुंह, स्त्रियों पर दोगला होने का आरोप लगाते हैं. पहले अपने गिरेबान में तो झांक कर देख लें. मन में कुछ और ऊपर से कुछ.

विद्यालय का वार्षिकोत्सव समीप था. तैयारी कराने वाली समिति में नीता और मुकुल का भी नाम था. नीता जितना जल्दी-जल्दी काम कर शाम को जल्दी फारिग होने का प्रयास करती मुकुल उतनी ही देर लगाता. नीता उस का मंतव्य समझ रही थी. मगर उसने भी ठान लिया था कि वह बहसबाज़ी में नहीं पड़ेगी, बल्कि कुछ कर के दिखाएगी. वह परेशानियां झेलती रही. लेकिन एक बार भी अपनी स्त्रीसुलभ मजबूरियां बखान कर उसने किसी की सहानुभूति उपार्जित करने का प्रयास नहीं किया.

वार्षिकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हुआ तो नीता ने संतोष की सांस ली. साथी अध्यापिकाओं की प्रशंसा के बीच मुकुल के चेहरे के असंतोष को वह आसानी से पढ़ पा रही थी.

'कितना मुश्किल होता है इन पुरुषों के लिए हमारी प्रशंसा को पचाना. हम इनसे सहायता की गुहार किए बिना कोई कार्य कर लें, वह इन के अहं को इतना नागवार क्यों गुजरता है?' नीता मन ही मन सोच रही थी. पहली ही जीत ने नीता में गज़ब का उत्साह भर दिया था. उसे इस लड़ाई में एक आनंद सा आने लगा था.

विद्यालय की ओर से लड़के-लड़कियों का एक ग्रुप शैक्षणिक भ्रमण के लिए भेजा जा रहा था, जिसमें नेतृत्व की कमान तीन अध्यापकों को सौंपी जानी थी. इसी संदर्भ में प्रिंसिपल ने मीटिंग बुलाई थी. टूर काफ़ी लंबा और कठिनाइयों भरा था, इसलिए प्रिंसिपल को आशंका थी कि कोई भी अध्यापिका इसके लिए सहर्ष तैयार नहीं होगी. मगर चूंकि लड़कियां भी टूर में शामिल थीं इसलिए एक अध्यापिका को तो भेजना ही था. दुविधा में फंसे प्रिंसिपल ने अभी अपनी इस मजबूरी की भूमिका बांधना आरंभ ही किया था कि नीता ने हाथ उठा कर उन्हें हैरत में डाल दिया.

"मैं टूर की कमान संभालने को तैयार हूं. आप दो असिस्टेंट टीचर नियुक्त कर दें."

नीता की हिमाकत पर वैसे ही मुकुल का खून खौल रहा था और जब प्रिंसिपल ने दो असिस्टेंट टीचर्स में एक नाम मुकुल का लिया तो मानो आग में घी पड़ गया.

मुकुल ने तुरंत किसी व्यक्तिगत मजबूरी का बहाना बना कर पीछे हटना चाहा तो प्रिसिपल ने उसे आड़े हाथों लिया, "नीता मैडम से सीखिए कुछ, वे महिला हो कर अपनी ज़िम्मेदारियों से नहीं भागतीं और आप..."

नीता ने एक कुटिल मुसकान मुकुल की ओर फेंकी तो मुकुल तिलमिला उठा.

हालांकि मन ही मन नीता जानती थी कि यह मुसकान उसे बहुत भारी पड़ने वाली है, पर इस शह और मात के खेल में पीछे हटना अब उसे मंज़ूर नहीं था.

जैसा कि नीता को उम्मीद थी मुकुल ने साथी अध्यापक के साथ मिल कर उस की राह में पल-पल परेशानियां खड़ी करने का प्रयास किया. यह तो विद्यार्थी लड़कों और लड़‌कियों का सहयोग था कि नीता हर बाधा लांघ कर सकुशल टूर लौटा लाई. मगर इस चूहादौड़ से अब वह पूरी तरह ऊब और थक चुकी थी.

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कुछ-कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उसे अब मुकुल की ओर से भी अनुभव होने लगी थी. पहले वह बात-बात में उसे काटने और नीचा दिखाने का प्रयास करता था, लेकिन इधर काफ़ी समय से वह गौर कर रही थी कि वह अब न केवल मूक दर्शक बना उसे देखता और सुनता रहता, बल्कि कई अवसरों पर तो उसने मुकुल की आंखों में अपने लिए प्रशंसा के भाव भी देखे. नीता के लिए यह एहसास सर्वथा नया और चौंकाने वाला था.

जब दूसरी ओर से कोई प्रतिप्रहार न करे तो भला इंसान एकतरफा लड़ाई कब तक ज़ारी रख सकता है? नीता समझ नहीं पा रही थी कि मुकुल किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में है या उसकी मानसिकता बदल गई है? वह इस परिवर्तन को अपनी जीत के रूप में ले या हार के रूप में?

इसी दौरान विद्यालय में प्रातकालीन योग कक्षाएं आरंभ हो गई, जिनमें नियम से 2-2 अध्यापकों को ड्यूटी देनी थी. इसे संयोग कहें या दुर्योग लेकिन नीता की ड्यूटी फिर मुकुल के संग ही लगी. सवेरे जल्दी उठ कर तैयार होकर टिफिन पैक कर निकलना नीता के लिए बेहद सिरदर्दी साबित हो रहा था. घर से स्कूल इतना दूर था कि वह बीच में समय मिलने पर आराम के लिए भी नहीं लौट सकती थी. लौटते में बाज़ार से सब्ज़ी, आवश्यक सामान आदि ख़रीदने में अक्सर शाम हो आती थी. नीता में अपने लिए खाना बनाने की ताक़त भी शेष नहीं रहती थी. दो दिनों से तो वह दूध-ब्रेड खा कर ही बिस्तर पर पड़ जाती थी. वापस सवेरे अलार्म से ही आंख खुल पाती.

इसी दौरान माहवारी आरंभ हो जाने से उस की हालत और भी पस्त हो गई. मगर नीता ने ठान रखी थी कि वह स्त्री होने का कोई भी लाभ उठा कर मुकुल को ज़ुबान खोलने का अवसर नहीं देगी. हक़ीक़त तो यह थी कि मुकुल के छोड़े व्यंग्यबाणों से वह इतनी आहत हुई थी कि उन्हें उसने एक चुनौती के रूप में ले लिया था. मगर समय के अंतराल के साथ यह चुनौती एक ज़िद में तब्दील होती जा रही थी. नीता को मानो हर वह काम करके दिखाना था जिसे सामान्यतया एक स्त्री करना टालती है. अपनी ज़िद और जनून के आगे न तो उसे अपने स्वास्थ्य की परवाह रह गई थी और न ही किसी ख़तरे की आशंका. चाहे भोर का धुंधलका हो या स्याह रात की वीरानगी, वह अपनी स्कूटी ले कर कभी भी, कहीं भी निकल पड़ती.

नीता महसूस कर रही थी कि उस के गिरते स्वास्थ्य ने मुकुल को उस के प्रति अनायास ही बहुत मृदु और सहृदय बना दिया है. उस के चेहरे से झलकता अपराधबोध दर्शाता कि उसे विगत के अपने व्यवहार पर शर्मिंदगी है. मुकुल के चेहरे के ये सब भाव तो नीता को सुकून प्रदान कर रहे थे. लेकिन इधर कुछ दिनों से वह उस के व्यवहार में, मनोभावों में जो कुछ परिवर्तन महसूस कर रही थी

उसे स्वीकारने में उसे बेहद हिचकिचाहट महसूस हो रही थी. पर हक़ीक़त से कब तक भागा जा सकता था?

हां, निसंदेह यह प्यार ही था और कुछ नहीं. मुकुल यानी जिस शख़्स की उसे शक्ल देखना भी गवारा नहीं था, जो शख़्स उस पर छींटाकशी का कोई मौक़ा हाथ से नहीं जाने देता था वही शख़्स उससे प्यार करने लगा है? वह कैसे विश्वास करे इस शख़्स का? प्यार का इज़हार करना तो दूर की बात है, उसने तो आज तक कभी उससे खुलकर अपने ग़लत व्यवहार के लिए शर्मिंदगी भी व्यक्त नहीं की है.

विचारों में उलझी नीता स्कूल पहुंच कर योगा तो करवाने लग गई, लेकिन कमज़ोरी और थकान के मारे उस का बुरा हाल हो रहा था. मुकुल ने एक-दो बार उससे यह कहकर आराम करने का आग्रह किया कि वह अकेला दोनों ग्रुप संभाल लेगा, लेकिन नीता पर इस आग्रह का विपरीत असर हुआ. मुकुल के प्रस्ताव को सिरे से नकार कर वह और भी जोश से हाथ-पांव चलाने लगी. कुछ ही देर में उस की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा और फिर उसे कुछ होश न रहा.

जब होश आया तो नीता अस्पताल में थी और उसे ग्लूकोस चढ़ रहा था. मुकुल पास ही टकटकी बांधे उसे देख रहा था. पूछा, "अब कैसी तबीयत है आपकी?"

नीता ने ठीक है में सिर हिला दिया.

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"क्यों अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं आप? मुझ पर ग़ुस्सा है तो चिल्लाइए न मुझ पर, गालियां दीजिए, हाथ उठाइए, पर प्लीज़, अपने आप पर अब और ज़ुल्म मत कीजिए. मैं अपनी ग़लती मानता हूं. एक-दो महिलाओं के व्यवहार से ही पूरी नारी जाति का आंकलन कर बैठा था. नारी हमेशा से ही सम्माननीय थी, है और रहेगी. उसकी शारीरिक दुर्बलताएं उस की कमज़ोरियां नहीं, वरन शक्तियां हैं. जो उस सहित पूरे परिवार को एक संबल प्रदान करती हैं. उसके त्याग, ममता और सहानुभूति के गुण न केवल उसमें वरन हम पुरुषों में भी एक नई ऊर्जा का संचार करते हैं. कुदरत की यह अनुपम कृत्ति उपहास उड़ाने योग्य नहीं, बल्कि सहजने योग्य है. अपनी अल्पबुद्धि के कारण मैं उनके महत्व को कमतर आंक बैठा, इसके लिए मैं शर्मिदा हूं. बहस में शायद मैं आप से पराजित नहीं होता, मगर आप के स्वयंसिद्धा रूप ने मुझे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है."

"नहीं... नहीं. ग़लती मेरी भी है. जिन आक्षेपों को चुनौती की तरह लेकर संघर्ष आरंभ किया था वह संघर्ष धीरे-धीरे कब जिद का रूप ले बैठा ध्यान ही नहीं रहा. मगर आप ने तो ख़ुद झुक कर मुझे झुका दिया है."

अपनी-अपनी हार को स्वीकार करते हुए भी दोनों के मन में जीत का उन्माद हिलोरें ले रहा था.

संगीता माथुर

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