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कहानी- शेफ पापा (Short Story- Chef Papa)

रोनित की बात सुनते ही सब शांत हो गए. उनकी बात पर मुझे ग़ुस्सा आया, तो पापा बात संभालते हुए बोले, ”बिल्कुल, रिया की मां बहुत अच्छा खाना बनाती थीं. मैंने उनसे ही तो यह सब सीखा है और फिर वही कला रिया में आ गई.” पापा की सहज-सरल बातें सुनकर मेरी और दादी की आंखें भर आईं.

नई-नई शादी के बाद ये मेरी पहली रसोई थी. दादी के कहे अनुसार मैं उस सुबह जल्दी उठकर सुनहरे गोटे वाली पीली साड़ी पहनकर तैयार हो गई थी. तभी सासू मां मेरे कमरे में आकर बोलीं, “रिया! थोड़ी देर में किचन में आ जाना, रोनित की बुआजी तुम्हारी पहली रसोई की रस्म करवाएंगी.” यह कहकर वे जाने को हुईं ही थीं कि उन्हें फिर कुछ याद आया और वे फिर पलटकर मुझसे कहने लगीं, “देखो बहू, उनसे थोड़ा संभलकर रहना, दूसरों के काम में कमी निकालने की उनकी आदत है. वे कह रही थीं कि वे तुमसे खिचड़ी के साथ-साथ मीठे गुलगुले भी बनावाएंगी. तुम बना लोगी न?” उन्होंने मुझसे पूछा, तो मैंने हां में सिर तो हिला दिया, लेकिन असल में मैं पूरी ही हिल गई, क्योंकि गुलगुले कैसे बनाए जाते हैं, मुझे नहीं पता था. मायके में पापा बनाते थे और मैं मज़े से खाती थी. कभी-कभार खाए जानेवाले गुलगुले बनाने की रेसिपी सीखना मुझे कभी भी ज़रूरी नहीं लगा. पर अब मैं क्या करती? तभी फटाफट मैंने अपने रूम का दरवाज़ा बंद करके अपने शेफ पापा को फोन लगाया.
“हेलो! रिया, कैसी है? हो गई तेरी रसोई की रस्म?” दादी पापा के फोन से बोलीं.
“दादी! मेरी ख़ैरियत बाद में लेना, पहले पापा को फोन दो, जल्दी एमरजेंसी है.”
“किसकी जर्सी है? यहां तो किसी की जर्सी नहीं.” मेरी कम सुननेवाली दादी को मैं ज़ोर-ज़ोर से कहकर फिर बोली, “दादी! जर्सी नहीं एमरजेंसी… एमरजेंसी… ख़ैर! आप  पापा को फोन दो, तुरन्त.”
पापा ने फोन पकड़ा, तो मैं बोली, “पापा, सब गड़बड़ हो गया. रोनित ने बोला था कि मेरी पहली रसोई में, मुझसे खिचड़ी बनवाई जाएगी, पर यहां तो खिचड़ी के साथ-साथ गुलगुले भी बनाने हैं.”
“अरे वाह! खिचड़ी और गुलगुले क्या बढ़िया मेल है, पर इस बात से तुम इतनी परेशान क्यों हो?”
“पापा गुलगुले बनाने हैं और मैंने हमेशा स़िर्फ आपके हाथों के बने गुलगुले खाएं हैं, बनाए कभी भी नहीं, अब क्या करूं?”


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“चिंता मत करो और ध्यान से मेरी बात सुनो. गुलगुले बनाना एकदम आसान है.” यह कहते हुए पापा ने गुलगुले बनाने की सारी रेसिपी मुझे बता दी.
यहां रसोई से मेरे लिए बुलावा आया, तो मैंने, “बाय पापा, बाद में कॉल करती हूं.” कहते हुए फोन काटा और किचन की ओर बढ़ गई.
“गुड़ के पानी में पहले आटा फेंट कर रख देना, बाद में दूसरे काम करना. इससे आटा अच्छे से फूल जाता है और गुलगुले एकदम नर्म बनते हैं.” पापा की बताई यह बात याद करते हुए मैंने सबसे पहले गुड़ के पानी में आटा फेंट कर रख दिया. उसके बाद खिचड़ी की तैयारी में लग गई.
बुआजी सारे वक़्त किचन में मेरे पास ही खड़ी रहीं. उनका होना मुझे थोड़ा असहज तो लग रहा था, पर फिर भी मैंने पूरे संयम और आत्मविश्‍वास के साथ अपनी पहली रसोई की रस्म अच्छे से निभा ली.


“वाह! क्या गुलगुले बने हैं.” रोनित के फूफाजी ने गुलगुले खाते हुए कहा.
“खिचड़ी का भी ज़वाब नहीं है, रोनित! रसोई के कामों में तो तेरी बीबी हमेशा अव्वल ही रहेगी.” इस बार बुआ सास ने रोनित से मेरी तारीफ़ की, तो मेरी बेचैनी  कुछ कम हो गई.
घर के बाकी लोगों को भी खिचड़ी और गुलगुले ख़ूब पसंद आए.
पापा की गुलगुले बनाने की रेसिपी ने तो आज कमाल ही कर दिया. मैं बहुत ख़ुश थी कि तभी रोनित की मां बोलीं, “रिया तुम्हारी मां ने सचमुच तुम्हें बहुत अच्छा खाना बनाना सिखाया है.”
मां ने? सासू मां के यह शब्द मन में कहीं अटके, तो मैं कुछ कहने को हुई ही कि रोनित ने मुझे चुप रहने का इशारा कर दिया. उस वक़्त मुझे रोनित और सासू मां का यह व्यवहार ठीक नहीं लगा. वे दोनों ही अच्छे से जानते थे कि मेरी मां होते हुए भी मेरी सारी परवरिश मेरे पापा ने ही की है, चोटी बनाने से लेकर खाना बनाने तक का एक-एक काम मेरे पापा ने ही मुझे सिखाया है, तो फिर यह झूठ क्यों?
उस वक़्त तो मैं चुप रह गई, लेकिन रसोई की रस्म के बाद जब हम अपने रूम में गए, तो पहला सवाल मैंने रोनित से यही पूछा, “रोनित! मुझे मेरे पापा ने हर चीज़ सिखाई है, तो फिर सबके सामने यह क्यों नहीं कहा जा सकता कि वाह! तुम्हारे पापा ने कितना अच्छा खाना बनाना सिखाया है. क्या पिता बेटियों को खाना बनाना नहीं सिखा सकते, क्या इसमें कोई शर्म की बात है?”
रोनित मेरी हथेली थामकर, मुझे समझाने को मेरे पास बैठ गए.
“शांत हो जाओ रिया. मां ने तो बस ऐसे ही कह दिया, ताकि बात का बतंगड़ न बने. बुआ की आदत है छोटी छोटी सी बातों को बड़ा बनाने की. शायद इसलिए मां ने तुम्हारे पापा की जगह तुम्हारी मां को तुम्हारे स्वादिष्ट खाना बनाने का श्रेय दे दिया होगा. बस, इतनी सी बात पर तुम इतना रिएक्ट क्यों कर रही हो?”

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“इतनी सी बात? रोनित मेरे पापा ने मुझे मां और पिता दोनों का प्यार दिया है और मुझे गर्व है अपने पापा पर.”
थोड़ी देर की बहस के बाद बात आई-गई हो गई. कुछ दिनों बाद बुआजी सहित घर के बाकी रिश्तेदार भी चले गए.
जाते हुए सभी ने मेरी और मेरे संस्कारों की ख़ूब तारीफ़ की. रोनित के घर पर सभी इस शादी से बहुत ख़ुश थे.
शादी के कुछ ही दिनों बाद होली आई और मेरे मायके के रिवाज़ के हिसाब से बेटी-दामाद की शादी के बाद की पहली होली पीहर में ही होनी थी, इसीलिए मैं और रोनित मेरे पापा के घर के लिए चल दिए. जैसे ही घर के बाहर हमारी कार रुकी, ढोलवाले ढोल बजाने लगे. दरवाज़े पर सुंदर रंगोली देखकर मन गदगद हो गया.
पापा ने हम दोनों का स्वागत गर्मजोशी से किया. अंदर आते ही डाइनिंग पर लज्जतदार पकवान सजे हुए थे. दादी मुझ पर और रोनित पर अपना लाड़-दुलार लुटा रही थीं. पापा यहां से वहां भाग-भाग कर अपने दामाद की ख़ातिरदारी कर रहे थे. तभी रोनित ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें अपने पास बैठा लिया.
“पापा! मैं कोई मेहमान नहीं हूं. आपका अपना बेटा हूं. इतना परेशान क्यों हो रहे हैं आप? दो घड़ी बैठकर सांस ले लीजिए.”
रोनित का यह अपनापन देखकर पापा की आंखें सजल सी हो गईं. वे कुछ देर को मुझे और रोनित को लगातार देखते रहे. मां एक कोने में बैठी हमेशा की तरह कुछ-कुछ बड़बड़ा रही थीं. और दादी किचन में सबके लिए अपने हाथों की बनी स्पेशल खीर लेने चली गई थीं.
कुछ देर तक हमें निहारते हुए पापा बोले, “चलो, खाना तैयार है, अभी सब गर्मा-गर्म है.”
“जी पापा!” कहते हुए रोनित और मैं खाने को चल दिए. पूरी टेबल तरह-तरह के पकवानों से भरी पड़ी थी. शाही पनीर, मलाई कोफ्ता, दही-बड़े, मेथी पूरी, मसाला पूरी, आलू-गोभी, रसगुल्ला, गुझिया और किचन से आती दादी के हाथ की स्पेशल खीर.
“वाओ! इतना सारा खाना, दादी कमाल करती हो आप! इस उम्र में इतनी मेहनत?” रोनित ने खाने से भरी टेबल देखते हुए दादी से कहा, तो दादी बोलीं, “क्या सेहत, अरे! अब कैसी सेहत बेटा, बस ये समझो कि बुढ़ापे में गाड़ी खिंच रही है बस.”
सिर पर हाथ रखते हुए मैंने अपनी कम सुनने वाली दादी से कहा, “सेहत नहीं दादी, मेहनत. मेहनत… पापा! दादी की कान की मशीन कहां है?”
दादी की बात पर सभी हंस पड़े, तो मैं बोली, “रोनित, वैसे इस लज़्ज़तदार खाने के पीछे दादी की कम, मेरे शेफ पापा की ज़्यादा मेहनत है. हमारे घर का खाना पापा ही बनाते हैं. दादी ने यह खीर बस बनाई है, है न पापा?” पापा मेरी बात पर स़िर्फ मुस्कुराए.
रोनित हर एक चीज़ को बड़े शौक से खाने लगे. हर डिश का स्वाद उम्दा था. खाते हुए रोनित हरेक की तारीफ़ कर रहे थे, “पापा, सच में बहुत टेस्टी खाना है. पता है पापा? मेरे घर पर रिया के हाथों के बने खाने की भी बहुत तारीफ़ होती है. सभी कहते हैं कि रिया की मां ने क्या ख़ूब खाना बनाना सिखाया है रिया को.”
रोनित की बात सुनते ही सब शांत हो गए. उनकी बात पर मुझे ग़ुस्सा आया, तो पापा बात संभालते हुए बोले, “बिल्कुल, रिया की मां बहुत अच्छा खाना बनाती थीं. मैंने उनसे ही तो यह सब सीखा है और फिर वही कला रिया में आ गई.” पापा की सहज-सरल बातें सुनकर मेरी और दादी की आंखें भर आईं. वो कब से दोहरा जीवन जी रहे थे. पत्नी होते हुए भी पत्नी के सुख से वंचित थे. दादी, मां और मेरी सारी ज़िम्मेदारियां वे कितनी सहजता से निभा रहे थे.
मैं पापा की ओर एकटक देख रही थी. तभी दादी बोलीं, “रिया, अब रोनित को थोड़ा आराम करने के लिए ले जाओ. इतनी दूर से गाड़ी चलाकर आया है. थक गया होगा.” दादी के कहने पर हम खाने के बाद आराम करने रूम में चले गए. दरअसल, हम लंबा सफ़र तय करके भोपाल से सागर आए थे.  रूम में पहुंचते ही रोनित चुपचाप लेट गए और मैं ग़ुस्से में कोई मैगज़ीन उठाकर पढ़ने लगी. रोनित कुछ देर बाद बोले, “नाराज़ हो?” उनके सवाल का मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, तो वे फिर मुझे अपनी ओर खींचते हुए बोले, “यार, जनरली सबकी मां ही अपनी बेटियों को खाना वग़ैरह बनाना सिखाती हैं, इसलिए बस ऐसे ही मेरे मुंह से निकल गया, जानबूझकर मैंने यह नहीं कहा.”
रोनित की बात पर उदास मन से मैं बोली, “पता है रोनित! मैं स़िर्फ आपकी बात से नाराज़ नहीं हूं. मैं पापा की क़िस्मत से नाराज़ हूं. बचपन से उन्हें ऐसा ही देखती आ रही हूं.”


“बचपन से? मतलब तुम्हारी मां शुरू से ऐसी ही हैं?”
रोनित के सवाल पर मैं बोली, “नहीं! मां शुरू से ऐसी नहीं थीं. यह सब तो एक बहुत बुरे हादसे के बाद हुआ. जब मैं महज़ दो साल की बच्ची थी. मुझे तो कुछ याद भी नहीं, पर दादी बताती हैं कि वह बहुत बुरा दिन था. उस दिन मां मुझे दादी के पास छोड़कर मेरे पांच साल के भाई निहाल को लेकर ड्राइवर के साथ कार से कहीं जा रही थीं, तभी उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया.
उस एक्सीडेंट में कार चालक की वहीं मौत हो गई और मेरा पांच साल का भाई बुरी तरह से ज़ख़्मी हो गया. कई दिनों तक ज़िंदगी और मौत के बीच झूलता वह आख़िरकार ज़िंदगी से हार गया. उसकी मौत के बाद मां अपनी सुध-बुध खो बैठीं, बस तब से आज तक वे ऐसी ही हैं.”
यह सब बताती हुई मैं सिर पर हाथ रखकर गहरी उदासी में चली गई. तो रोनित ने मुझे समझाया, ”इट्स ओकेी रिया, जो हुआ सो हुआ. भगवान की कृपा से देखो, कितने परफेक्ट पापा हैं तुम्हारे पास. तुम्हें कितना प्यार करते हैं वो.”
”रोनित, पापा को लेकर ही तो परेशान हूं मैं. दादी से अब कुछ होता नहीं है. मैं भी अब दूर चली गई. पापा अब कितने अकेले हो गए हैं. मैं सोच रही हूं कि क्यों न हम उनकी दूसरी शादी करा दें.”
मेरी यह बात कमरे में आते पापा ने सुन ली, ”रिया, तुम पागल हो गई हो क्या. ये कैसी फालतू की बातें कर रही हो. तुम्हारी मां अभी ज़िंदा है. और अगर वो मर भी गई होतीं, तब भी मैं उनकी जगह किसी और को कभी नहीं देता, समझी तुम!” यह कहते हुए पापा ग़ुस्से में वापस चले गए.
उनकी ग़ुस्से पर मैं रो पड़ी. “पापा कुछ कहते नहीं हैं रोनित, पर पापा सचमुच बहुत अकेले हैं. मुझे सौतेली मां का ख़राब व्यवहार न मिले, यही सोचकर पापा ने कभी दूसरी शादी के लिए नहीं सोचा. मां की इतनी लंबी सेवा करने के बाद भी वे कभी थके नहीं… न जाने किस मिट्टी के बने हैं मेरे पापा? कोई इतना धीरज वाला, इतना बहादुर कैसे हो सकता है?”


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मैं पापा के लिए रोने लगी, तो दादी मेरे कमरे में आ गईं. मुझे रोता देख दादी ने मेरे रोने का कारण पूछा, तो रोनित ने दादी को सब बता दिया. दादी मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई बोलीं, “ये पापा लोग न ऐसे ही होते हैं, सब कुछ अपने अंदर रखने वाले. जब बच्चे छोटे होते हैं, तब तो वे फिर भी अपना ग़ुस्सा बाहर निकाल लेते हैं, लेकिन बच्चों के बड़े होते ही ये ग़ुस्सा पीना सीख जाते हैं. बढ़ती उम्र के साथ एकदम चुप हो जाते हैं, तेरे पापा का भी वही हाल है रिया. पता नहीं, आज कैसे तुझ पर ग़ुस्सा करके बोल गया वो.”
“दादी मुझे पापा की फ़िक्र है, इसलिए दूसरी शादी के बारे में बोल रही हूं. क्या एक बेटी को अपने पिता की ख़ुशियों के बारे में सोचने का अधिकार नहीं है दादी?”
“बिल्कुल है, पर आज नहीं. हम फिर कभी इस बारे में बात करेंगें. आज तो रोनित शादी के बाद पहली बार यहां आया है. आज होली के दिन घर का माहौल मत बिगाड़ो.”
कुछ देर में पापा का ग़ुस्सा कम हुआ, तो हम होली खेलने की तैयारियों में लग गए. रोनित और मैंंने सबको रंग लगाया. कुछ और मीठे दिन गुज़ार कर हम वापस सागर से भोपाल आ गए.
वक़्त अपनी गति से चलता रहा. पापा से मैं रोज़ फोन पर बात करती रहती. समय निकालकर बीच-बीच मेें सागर भी हो आती. शादी के दो साल ही हुए थे कि मैं उम्मीद से हो गई. पूरे नौ माह बाद मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, तो दोनों परिवारों में ख़ुशी गूंज उठी.
“पापा, दादी मां को लेकर सागर से भोपाल आए, तो मैं मां को देखकर दंग रह गई. मां को लेकर पापा कभी कहीं नहीं जाते, तो फिर मां यहां कैसे आईं?
मैं कुछ सोच ही रही थी कि मां ने मेरे बेटे को गोद में लेकर सालों बाद एक स्पष्ट शब्द बोला, “निहाल.”
निहाल? यह तो मेरे उस भाई का नाम था, जिसकी सूरत भी मुझे ठीक से याद नहीं थी. सब स्तब्ध थे पापा की आंखों से आंसू झर-झर बह रहे थे. मां एकदम नॉर्मल व्यवहार दिख रही थीं. एक नवजात शिशु ने वो कर दिखाया था, जो बड़े-बड़े डॉक्टर नहीं कर पाए थे.
उसके बाद पापा-मां और दादी कुछ दिनों मेरे साथ भोपाल में ही रहे. मां नानी होने का हर फ़र्ज़ निभा रही थीं. निहाल की क़िस्मत ऐसे नाना-नानी पाकर सच में निहाल हो गई थी.
फिर पापा-मां और दादी मेरे बेटे को अपना आशीष और उसे निहाल नाम देकर, वापिस चले गए. मां की तबियत में धीरे-धीरे सुधार आता गया और पापा की ज़िंदगी में फिर से खुशियां लौट आईं.


मैं कुछ माह बाद पांच माह के निहाल को लेकर मायके गई, तो इस बार डायनिंग पर पहले से भी ज़्यादा व्यंजन परोसे गए. मां ने मेरे लिए सौंठ-गुड़ के लड्डू बनाए. रोनित भी मेरे साथ थे. कुछ देर बाद हमने खाना खाया, तो रोनित बोले, “वाह पापा! क्या ख़ूब खाना बनाया है.” तो पापा हंसते हुए बोले, “इस बार तुम्हारी सास यानी कि रिया की मां ने रसोई तैयार की है. मैंने तो बस उनकी मदद की है.”
“दामादजी, अब उनकी भी तारीफ़ कर दो. वो क्या है न कि मर्द तो यह बात झेल जाते हैं, पर स्त्री अपने हाथ के बने खाने की तारीफ़ सुने बिना नहीं रह पाती.”
तभी दादी बोलीं, “जिस दिन स्त्रियां अपने बने खाने की तारीफ़ सुनना छोड़ देगीं. उस दिन दुनिया के सभी स्वाद फ़िके पड़ जाएंगे.”
“सच कह रहीं हैं आप दादी! मां आपने बहुत स्वादिष्ट खाना बनाया है.” मेरी मां यह सुनकर मुस्कुरा दीं.
मुझे पता था कि खाना मां ने कम पापा ने ज़्यादा बनाया था. मां तो धीरे-धीरे ठीक हो रही थीं. वे एकदम से सारे काम कैसे संभाल सकती थीं. पर पापा रसोई में मां की उपस्थिति से बहुत ख़ुश थे. निःसंदेह मां के ठीक होने से मैं भी बहुत ख़ुश थी. लेकिन पापा को उनका साथ फिर से मिल गया इस बात से मैं और ज़्यादा ख़ुश थी.
रोनित कुछ दिनों के लिए मुझे सागर छोड़कर भोपाल चले गए थे. अब पापा शेफ मां के साथ मेरे लिए रोज़ कुछ न कुछ नया और स्पेशल बना रहे थे.
“ये लो तुम्हारी मां के हाथ का बना स्पेशल हलवा.” इस तरह पापा बहुत ख़ुश थे. पर मैं उनके हाथ की बनी चीज़ों को खाकर समझ जाती थी कि ये शेफ पापा के हाथों का ही कमाल है, पर मैं भी उनके इस छोटे से, प्यारे से झूठ से ख़ुश थी.
असल में ऐसे ही तो होते हैं पापा, ख़ुद कभी किसी बात का श्रेय नहीं लेते. धीरज और प्यार से, रहस्यमय ढंग से, किसी जादूगर की तरह सब ठीक कर देते हैं बिल्कुल मेरे शेफ पापा की तरह.

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति खरे

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