फ़िज़ा को झटका लगा. असगर तो कह रहा था कि हजरत अभी तक लबों पर बुलावा लिए भटक रहे हैं, लेकिन लगता है ये तो आशियाना बसा चुके हैं, मगर दूसरे पल ही उसने खुद को तसल्ली दी, 'बसने के बाद क्या मालूम आशियाना है या वीराना' फिर भी जैसे भीतर ही भीतर कुछ चटक-सा गया.
मुद्दत के बाद असगर को गुनगुनाते देखकर फ़िज़ा चौंक पड़ी.
"आज बहुत मूड में हो."
"हां, एक ज़माने के बाद आज सेमिनार में एक निहायत ज़िंदादिल इंसान से मुलाक़ात हो गई. लंच ब्रेक में लोगों ने उनसे कुछ सुनाने के लिए कहा, उस समय उन्होंने जो नज़्म सुनाई, वही मैं गुनगुना रहा हूं. नज़्म क्या है, एक दावतनामा है, जीने के लिए. उस पर कमाल यह कि हज़रत ने जिन मोहतरमा के लिए यह दावतनामा लिखा था, उन्होंने तो इसे क़बूल नहीं किया, लेकिन इनके लबों पर आज भी वही बोल बरक़रार हैं." असगर सराहना के स्वर में बोला, "वैसे तो पूरी नज़्म ही पुरअसर थी, लेकिन आख़िरी मिसरा तो जानलेवा है, 'चली आओ गर भीगी आंखों में मेरे आंसू शराब हो जाएं… तबीयत लाजवाब हो गई सुनकर."
"यह हज़रत हैं कौन?" फ़िज़ा ने दिलचस्पी से पूछा.
जवाब में असगर ने एक कार्ड पकड़ा दिया.
"एम.एस.अली, वाइस प्रेसिडेंट (एच.आर.डी.), एल्फा ड्रग्स लिमिटेड."
नज़्म भी वही है और नाम भी मोहम्मद सरवर अली बन सकता है. मगर कहां वह सरवर अली और कहां यह किसी मल्टी नेशनल कंपनी का उच्चाधिकारी! और वह तो ज़्यादा से ज़्यादा किसी कॉलेज में प्राध्यापक बन गया होगा और आमदनी व ख़र्च का तालमेल बैठाने में शायरी कब का भूल चुका होगा… यह सोचकर फ़िज़ा ने ख़ुद को बहलाना चाहा, लेकिन ज़ेहन से सरवर की उस चांदनी रात में गाई हुई ग़ज़ल न झटक सकी.
खाने के बाद असगर अगले दिन के सेमिनार की तैयारी करने लगा और फ़िज़ा टी.वी. के सामने बैठ गई. लेकिन आंखों के सामने टी.वी. के परदे की बजाय उसकी पिछली ज़िंदगी तैरने लगी. रूप और ऐश्वर्य के दर्प में मदमस्त फ़िज़ा ख़ुद को सबसे बढ़-चढ़कर समझती थी. शायद इसीलिए यूनिवर्सिटी के दिलफेंक लड़के भी उसे ज़्यादा भाव नहीं देते थे. लेकिन सिर्फ़ पढ़ाई से मतलब रखने वाले सरवर के दिल में फ़िजा के प्रति प्रेम की भावना किसी से छिपी नहीं थी, पर कोई कुछ कहता नहीं था, शायद सरवर की बेबसी देखकर या फ़िज़ा की तल्ख़ मिजाज़ से डर कर.
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पढ़ाई के अंतिम वर्ष में गेट टुगेदर की तैयारी देखकर हमेशा तटस्थ रहने वाले सरवर ने सुझाव दिया था.
"यादगार लम्हे के रूप में तो बस पिकनिक हो सकती है, यदि वह चांदनी रात में मनाई जाए तो."
"वल्लहा! क्या कमाल का आइडिया है." सभी एक साथ चहक उठे.
लड़कियों के अभिभावकों को ऐतराज़ न हो, इसलिए प्रिंसिपल ने अपने और अन्य प्राध्यापकों के परिवारों को भी बुला लिया और शहर से दूर एक पर्यटन स्थल पर पिकनिक का आयोजन किया गया.
"यह यादगार पिकनिक है भई, इसमें कुछ हटकर होना चाहिए." एक प्रवक्ता ने फ़िज़ा से कहा, "कुछ गाने-वाने का यानी चांदनी में चार चांद लगाने का प्रोग्राम करवाओ भई."
"जिनका यादगार पिकनिक का आइडिया है, यह तो वही करवा सकते हैं." फ़िज़ा ने चिढ़कर कहा. सरवर तो जैसे इसी इंतज़ार में बैठा था.
"करवाना क्या है, ख़ुद ही शुरू कर देते हैं." और चांदनी से नहाए उस माहौल में सरवर की गहरी बुलंद आवाज़ गूंज उठी-
इस चांदनी से भी ज़्यादा रौशन हो जाए यह क़ायनात…
चली आओ गर बन के मेरी शरीक़-ए-हयात
फ़िज़ा में चांदनी, चांदनी में फ़िज़ा भर जाए…
पता नहीं, ग़ज़ल के अल्फ़ाज ज़्यादा पुरअसर थे या सरवर का अंदाज़-ए-बयां या आवाज़, सभी मंत्रमुग्ध हो गए.
"वाह वाह मुकर्रर… वंस मोर..." और तालियों की गड़गड़ाहट में जब सरवर ने नज़्म समाप्त की, तो नाजिया ने चुटकी ली, "यह दावतनामा तो लगता है सिर्फ़ आपके लिए है."
"काश! दावत देने से पहले इतना तो सोच लेते कि मुझे खिलाएंगे क्या?" फ़िज़ा ने अवहेलना से कहा. कुछ ही क्षणों बाद उसे अपने प्रश्न का उत्तर भी मिल गया, सरवर किसी से कह रहा था,
"सिर्फ़ शायरी करने से कैसे काम चलेगा भाईजान? जिन्हें शरीक़-ए-हयात बनने की दावत दी है, उनके लिए राशन-पानी का बंदोबस्त भी तो करना होगा."
सरवर की बात पर ज़ोरदार ठहाका लगा था और फ़िज़ा ने जल-भुनकर सोचा कि राशन-पानी का बंदोबस्त करने से ज़्यादा न सरवर सोच सकता है, न इससे ज़्यादा कर सकने की कभी उसकी हैसियत होगी.
इससे पहले कि सरवर की हैसियत का पता चलता, फ़िज़ा की ज़िंदगी में असगर आ गया और सरवर का नाम भी पढ़ाई की किताबों के साथ दफ़न हो गया. बड़े बाप का बेटा होने के बावजूद असगर मेहनती और ज़हीन था. उसने बहुत कम समय में काफ़ी तरक्क़ी कर ली. लेकिन मियां-बीबी को उस तरक़्क़ी की क़ीमत भी चुकानी पड़ी थी. उनकी जिंदगी में अब कोई उल्लास नहीं था. जब सब कुछ समय से पहले बिन मांगे ही मिल जाए, तो उपलब्धि की अनुभूति कहां रहेगी? फ़िज़ा तो खैर बच्चों की ख़ुशी में ख़ुश हो लेती थी. मगर असगर का काम इन छोटी-मोटी ख़ुशियों से नहीं चलता था. उसने ज़िंदगी में जोश व रंग भरने के लिए घर के बाहर प्यार तलाशना शुरू कर दिया था. फ़िज़ा के पूछने पर उसने बड़ी बेशर्मी से कहा था, "नवाबज़ादा हूं बेगम, चार का हक़दार तो हूं ही. कभी एकाध ज़्यादा भी हो जाए, तो चुपचाप बर्दाश्त करने में ही आपकी समझदारी है."
और फ़िज़ा ने भी समझदारी से ही काम लिया था. असगर की अय्याशियों की ख़बरें उस तक भी पहुंचती थीं और वह हंसकर टाल देती थी, "हमारे मियां आशिक़ मिजाज़ नवाब हैं भई. हम न सही, क्लब में तो दिल बहलाएंगे ही."
मगर कुछ अरसे से सुनाई पड़ रहा था कि सफलता की सीढ़ियां फलांगने के इच्छुक नए लड़के अपनी नवयौवना बीवियां एम.डी. साहब को पेश करने लगे थे और लोग असगर से ज़्यादा फ़िज़ा को कुसूरवार ठहरा रहे थे कि अजीब औरत है, बला की हसीन होते हुए भी शौहर को नहीं संभाल सकती? क्लब या कंपनी की पार्टियों में कुछ महिलाएं उसे हिकारत की नज़रों से देखतीं और अधिकांश सहानुभूति से. फ़िज़ा से दोनों ही नज़रें सहन नहीं होती थीं और धीरे-धीरे उसने बाहर जाना कम कर दिया था.
इससे असगर को फ्लर्ट करने में आसानी तो होती थी, फिर भी पद की गरिमा बरक़रार रखने के लिए कई जगह बीवी को साथ रखना ज़रूरी होता था तब असगर उसकी ख़ुशामद करके ले जाता था. अगली दोपहर को असगर का फोन आया.
"कमाल हो गया बेग़म! वह सरवर साहब तो आपके शहर के ही हैं. आज आयोजकों की ओर से जो पार्टी है, वह मैंने अपनी कंपनी के गेस्ट हाउस में ही रखवा दी है, अतः तुम्हें शाम को मेहमानों का स्वागत करना होगा, ख़ासकर सरवर साहब का."
कोई और मौक़ा होता, तो फ़िज़ा कंपनी के गेस्ट हाउस में जाना टाल जाती, लेकिन सरवर को अपने रूप और रुतबे का जलवा दिखाने का यही तो मौक़ा था. तुरंत ब्यूटीपार्लर में जाकर उसने पहली बार डेट पर जानेवाली किशोरी की उद्धनिता से अपने को नख से शिख तक संवारा. शाम को जब वह काली शिफॉन की नाभिदर्शी साड़ी पहनकर खड़ी हुई, तो एक बार असगर भी ठगा सा देखता रह गया.
सरवर से किसी को उसका तारुफ़ करवाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. फ़िज़ा को देखते ही सरवर चहक पड़ा, "अरे फ़िज़ा तुम!"
"मेरी हमसफ़र." असगर दर्प से मुस्कुराया.
"ज़ाहिर है, किसी छोटी-मोटी हस्ती के साथ तो सफ़र
गंवारा भी नहीं होता मोहतरमा को." सरवर हंसा, "मालूम नहीं था तुम यहां हो, वरना तुम्हारी सहेली मेरा मतलब नाजिया को भी साथ ले आता."
"नाजिया फ़िरदौस की बात कर रहे हैं?"
"हां भई, मेरी बीवी है." सरवर ने फ़िजा की आंखों में अविश्वास की झलक देख कर जोड़ा. "बुजुर्गों ने कहा है शादी हमेशा उसी से करो, जो आप पर फ़िदा हो बनिस्बत उससे, जिस पर आप फ़िदा हों."
"कहां हैं आजकल आप लोग? नाजिया कैसी है..?"
"अरे भाई सब बताऊंगा एक-एक करके, चलो कहीं इत्मीनान से बैठकर बातें करते हैं."
कुछ तो सरवर और नाजिया के बारे में जानने की उत्सुकता और कुछ लोगों को यह दिखाने की इच्छा कि सिर्फ़ असगर की सहेलियां ही नहीं हैं, उसके भी दोस्त हैं.
"चलिए उधर बैठते हैं," फ़िज़ा ने लॉन के अंतिम छोर की ओर इशारा किया.
"आप अली साहब को इस तरह मोनोप्लाइज नहीं कर सकतीं भाभीजी." किसी ने प्रतिवाद किया. "वरना आज की महफ़िल का क्या होगा?"
"वह भी जमेगी, ज़रा सुरूर आने दीजिए. पहले रात तो जवां हो ले." फ़िजा ने शोखी से कहा और असगर की तरफ़ देखा, मगर असगर की निगाहें असिस्टेंट मैनेजर मेलवानी की कमसिन बीवी शिखा का पीछा कर रही थीं.
"नाज़िया, अक्सर तुम्हें याद करती है. इम्तिहान के बाद तुमने तो अपना शहर हमेशा के लिए ही छोड़ दिया." फ़िज़ा समझ न सकी. सरवर गिला कर रहा था या व्यंग्य,
"कुछ हालात ही ऐसे बनते चले गए सरवर. दरअसल, मैं लंदन भाईजान के पास महज़ घूमने के लिए गई थी, मगर वहां असगर से मुलाक़ात हो गई और फिर शादी. शादी का कार्ड भेजा था नाजिया को."
"तब तक नाजिया भी शहर छोड़ चुकी थी. इम्तिहान के अगले रोज़ ही मैं उसे और उसके वालदैन को अपना गांव दिखाने ले गया था. वहीं अगली चांद की रात को हमारी शादी हो गई और तब से अभी तक चांद रात ही चल रही है."
"मगर कब से चल रहा था यह सिलसिला?" फ़िज़ा ने हैरानी से कहा.
"ज़्यादा दिन नहीं चला. उस पिकनिक में नाजिया ने मुझसे पूछा था कि क्या वह मेरा दावतनामा क़ुबूल करने की गुस्ताख़ी कर सकती है? मैंने उसे भी गुस्ताख़ी करने दी और ख़ुद भी कर ली यानी जल्दी से शादी. अगर वह अपना इरादा बदल लेती, तो मैं फिर उम्रभर 'चली आओ' की फरियाद..."
"वह तो शायद अभी भी गा रहे हो, मेरा मतलब है वह
पिकनिक वाली नज़्म." फ़िज़ा ने व्यंग्य से कहा. "मजबूरी है, जब लोग इसरार करते हैं कि कोई ख़ुद की चीज़ सुनाइए, तो ले-दे के सुनाने को बस वही नज़्म रह जाती है."
"क्यों, उसके बाद फिर कुछ और नहीं लिख सके?" "लिखता तो तक़रीबन रोज़ ही हूं. वन वूमन मैन हूं, सो जो भी लिखता हूं, वह नाजिया की तारीफ़ में लिखता हूं, जिसे ज़माने को तो सुनाने से रहा."
"नाजिया ख़ुश है तुम्हारे साथ?"
"बेहद, यानी कहती तो यही है कि सिवा मेरी मोहब्बत के उसे और कुछ नहीं चाहिए. अब वह तो है ही उसी की. वैसे भी ज़िंदगी में मोहब्बत और वफ़ा के सिवा है ही क्या? और हम शादीशुदा लोगों का तो बस यही एक सरमाया है."
"बेशक़." लेकिन अपने शब्दों का खोखलापन उसने खुद ही महसूस किया. तभी घनी कैसेरीना की झाड़ियों के पीछे से किसी के गुनगुनाने की आवाज़ सुनाई दी.
"अरे वाह, यह तो अपनी नज़्म है भई! गुनगुनाने वाला भी कोई अपनी बिरादरी का आशिक़ लगता है." सरवर हंसा. "असगर मियां तो शायद आवाज़ भी पहचान लेते." फ़िज़ा क्या कहती कि उसने असगर मियां की आवाज़ पहचान ली है. पहले तो असगर उसकी गैरमौजूदगी में ही फ्लर्ट करता था, लेकिन आज तो बाहर के मेहमानों की भी परवाह नहीं कर रहा.
"यू आर वेरी नॉटी सर..." एक महीन सी जनानी आवाज़ उभरी.
"नॉटी ज़रूर हूं, मगर सर नहीं, बॉस ऑफिस में. अभी तो तुम्हारा ग़ुलाम हूं."
शायद सरवर ने भी असगर को पहचान लिया था, सो बात बदलकर बोला,
"आज भी चांदनी उतनी ही रुपहली है, जितनी उस पिकनिक वाली रात को थी."
"शायद, " फ़िज़ा ने भर्राए हुए स्वर में कहा और मन ही मन सोचा, 'चांदनी तो वाकई में वही है, मगर आज मुझे आगोश में लेकर मेरे चेहरे पर नूर बरसाने की बजाय किसी ने राख पोत दी है.'
- कुमुद भटनागर
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