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कहानी- चांदी के बर्तन (Short Story- Chandi Ke Bartan)

सावित्रीजी विस्फारित नेत्रों से कभी सामने साफ़ करके रखे हुए चांदी के बर्तनों को निहार रही थीं तो कभी अपनी ननद को. वे और उनके पति कभी इस सकारात्मक दृष्टिकोण से अपने बारे में क्यों नहीं सोच पाए?

मेघा प्रशंसात्मक निगाहों से राधा आंटी को निहार रही थी. उचक-उचक कर हर इवेंट में भाग लेती राधा आंटी का उत्साह देखने लायक था. अवसर था बच्चों के स्कूल में ग्रैंडपैरेंट्स डे सेलीब्रेशन का. मेघा का कितना मन था कि मम्मीजी-पापाजी भी स्कूल चलें. आज तो उन्हीं का फंक्शन था, पर हमेशा की तरह उन्होंने घर में रहना ही पसंद किया. सौरभ एक ऑफिस मीटिंग के सिलसिले में वैसे ही शहर से बाहर थे. मन मारकर मेघा को अकेले ही आर्य को लेकर स्कूल आना पड़ा था.
“अरे मेघा बेटी, कैसे हो?” राधा आंटी ने पुकारा तो मेघा प्रणाम करते हुए उनके पांव छूने झुकी, पर आंटी ने उसे बीच में ही बांहों में भर लिया.
“मैं ठीक हूं आंटी! आपको सभी इवेंट्स में बढ़-चढ़कर भाग लेते देख बहुत अच्छा लगा. आपके जोश और उत्साह से तो हमें सीखना चाहिए.”
“चलो, तुमने तारीफ़ कर दी तो मन को सुकून मिला, वरना मैं सोच रही थी कि लोग कह रहे होंगे कि बासी कढ़ी उबाल खा रही है.”
“नहीं आंटी, आप ही क्या सभी को देखिए, सब उत्साह से लबरेज नज़र आ रहे हैं. वाक़ई, आप सभी को इतने अच्छे मूड में देखकर बहुत अच्छा लग रहा है.”
“भाईसाहब-भाभीजी आज भी नहीं आए?” राधा आंटी का स्वर गंभीर था.

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“हां आंटी, देखिए ना. मैंने कहा भी आप ही का फंक्शन है, पर वे कहने लगे दीवाली की बहुत थकान हो गई है. घर पर ही आराम करेंगे. ज़्यादा कुछ कह भी नहीं सकते. उम्र हो गई है उनकी. उनका मानना है कि कोई गंभीर बीमारी न होते हुए भी बुढ़ापा अपने आप में ही एक बीमारी है. हर वक़्त थके-थके और अपने आप में ही लगे रहते हैं. कभी-कभी तो मैं और सौरभ यह सोचकर ख़ुद को अपराधी-सा महसूस करने लगते हैं कि पापा के रिटायरमेंट के बाद उन्हें यहां लाकर हमने कोई ग़लती तो नहीं कर दी?
अपार्टमेंट में कुछ और लोगों के माता-पिता भी साथ रहते हैं. हम चाहते हैं कि मम्मीजी-पापाजी उनके साथ ही सुबह पार्क में घूम लें. मेरी एक मुंहफट पड़ोसन ने तो यहां तक कह दिया कि मैंने उन्हें घर में कैद कर रखा है.” पूरी बात बताते-बताते मेघा का मुंह रुंआसा हो गया था.
“अरे, कहने वाले तो कुछ भी कहते रहते हैं. तुम चिंता मत करो. मैं ही वक़्त निकालकर किसी दिन उनसे मिलने आती हूं.”
“जी आंटी, अवश्य हमें बहुत अच्छा लगेगा.” आंटी और उनके घरवालों से विदा लेकर मेघा ने आर्य को खोजा और उसका हाथ पकड़कर गाड़ी की ओर चल पड़ी.
“सबके दादा-दादी आए थे और वे सभी स्पोर्ट्स में भाग भी ले रहे थे. मेरे दादा-दादी क्यूं नहीं आए मम्मा?” आर्य ने मासूमियत से पूछा तो मेघा के क़दम और भी भारी हो उठे.
“बेटे, उनकी तबियत ठीक नहीं है. थकान महसूस कर रहे थे. तुम भी अब बहुत थक गए हो, सो जाओ. घर आएगा तब मैं उठा दूंगी.”
राधा आंटी ने ज़्यादा इंतज़ार नहीं कराया. वे अगले दिन ही आ गईं. छुट्टी का दिन था. सौरभ टूर से लौट आए थे. वह और मेघा बालकनी में बैठकर चाय का लुत्फ़ उठा रहे थे. मेघा ने आंटी को टैक्सी से उतरते देखा तो भागकर उन्हें रिसीव करने नीचे आ पहुंची.
“आपने बहुत अच्छा किया, जो आज छुट्टी के दिन आ गईं. अब पूरा दिन रुकिएगा. रात को खाना खाकर जाइएगा. मैं और सौरभ आपको छोड़ आएंगे. मैंने घर आकर मम्मीजी को बताया था कि आप स्कूल में मिली थीं. वे भी आपको ख़ूब याद कर रही थीं. अभी देखना, आपसे मिलकर कितनी ख़ुश होंगी.” बातें करते-करते दोनों ऊपर आ पहुंची थीं. सौरभ ने भी आकर बुआजी के चरण स्पर्श किए और आशीर्वाद लिया.

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“आर्य नज़र नहीं आ रहा?”
“वह सो रहा है आंटी. अभी उठाती हूं. आप तब तक मम्मीजी-पापाजी से मिल लें. पापाजी कमरे में अख़बार पढ़ रहे होंगे और मम्मीजी पूजाघर में हैं.”
दूर के रिश्ते की ननद राधाजी को देखते ही सावित्रीजी का चेहरा खिल उठा. सामने ही पूजा के चांदी के बर्तनों का ढेर लगा था.
वे उठने की चेष्टा करने लगी, तो राधाजी ने उन्हें ज़बर्दस्ती बिठा दिया. “मैं पांच मिनट में भाईसाहब से मिलकर आती हूं. यहीं बैठकर गपियाते हैं. मैं पूरा दिन यहीं हूं.”
राधाजी पांच की जगह पूरे पच्चीस मिनट लगाकर लौटीं, तो सावित्री भाभी को अपना इंतज़ार करते पाया.
“मेघा बता रही थी कि तुम उसे आर्य के स्कूल में मिली थी?”
“हां, आप और भाईसाहब क्यों नहीं आए? कितना अच्छा प्रोग्राम था? सब पैरेंट्स और ग्रैंडपैरेंट्स ने कितना एंजॉय किया? मेघा और आर्य आप दोनों को बहुत मिस कर रहे थे.”
“अब क्या बताएं? हमसे तो यहां घर से बाहर निकला ही नहीं जाता. किसी को जानते ही नहीं हैं हम यहां.”
“भाभी, बाहर निकलोगी तभी तो जानोगी सबको. आसपास भी हमारे जैसे ही लोग हैं.”
“हमें संकोच होता है. हमारे शहर की बात अलग थी. यहां के लोगों का रहन-सहन, बोलचाल सब कुछ अलग है, मॉडर्न है. हमारी उम्र की औरतें भी सलवार सूट में घूमती हैं. हमने तो सारी ज़िंदगी सीधे पल्ले की साड़ी में निकाल दी. कभी उल्टा पल्ला भी नहीं डाला. अब यहां सलवार सूट कैसे पहन लें.”
“मेघा ने कहा आपसे पहनने को?”
“नहीं, वो कुछ नहीं कहती, पर हमें तो लगता है न कि हमारी वजह से कहीं इन लोगों को शर्मिंदगी न उठानी पड़ जाए. कहीं किसी ने अंगे्रजी में कुछ बोल दिया और हम न समझ पाए, न जवाब दे पाए तो?”
“आप बेकार की बातें सोचकर ख़ुद ही परेशान हो रही हैं और घरवालों को भी परेशान कर रही हैं. कोई ऐसा नहीं सोचता. अरे, इतनी फुर्सत किसे है? आज की जनरेशन वैसी नहीं है जैसी आप समझ रही हैं. उनकी सोच आधुनिक है, क्योंकि यह वक़्त की ज़रूरत है, पर वे अपने संस्कार नहीं भूले हैं. रीति-रिवाज़ों के नाम पर होती ढकोसलेबाज़ी से वो दूर भागते हैं, पर बुज़ुर्गों का सम्मान करना बख़ूबी जानते हैं. वो चाहते हैं कि घर के बुज़ुर्ग ख़ुश रहें, स्वस्थ और समृद्ध रहें. तीज-त्योहार, अन्य विशिष्ट पर्व-उत्सव पर उन्हें उनका आशीर्वाद मिलता रहे.”
सावित्रीजी ध्यान से ननद की बातें भी सुन रही थीं और साथ-साथ चांदी के बर्तन भी सावधानी से चमकाए जा रही थीं. राधाजी का ध्यान उनकी बातों पर भी था और गतिविधियों पर भी. सावित्रीजी की टिप्पणी से राधाजी को यह तो समझ आ रहा था कि भाभी की सोच उनसे अलग है, पर कितनी अलग?
“भाभी, आपका यहां मन तो लग रहा है ना? आपकी बराबरी के लोग होंगे इधर?”

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“हम तो घर से बाहर ही नहीं निकलते तो कैसे पता चले? वैसे भी लोगों से मिलने-जुलने, घूमने-फिरने की उम्र नहीं रही अब हमारी. सच तो यह है कि अब हम किसी काम के ही नहीं रह गए हैं. तो कहीं जाएं न जाएं, किसी से मिलें न मिलें किसी को क्या फ़र्क़ पड़ता है?”
राधाजी को समझते देर नहीं लगी कि उनकी भाभी पर निराशावादी दृष्टिकोण पूरी तरह हावी है. और समय रहते उन्हें इससे नहीं निकाला गया, तो वे अवसाद की स्थिति में भी जा सकती हैं. उनका हाथ बंटाने के उद्देश्य से राधाजी ने कुछ बर्तन अपनी ओर खींचकर साफ़ करने आरंभ कर दिए.
“लाइए, मैं करवा देती हूं. पर भाभी, आपने यह बर्तनों का ढेर निकाला किसलिए था?”
“अरे, कमाल करती हो. दीपावली पूजन के लिए निकाले थे और किसलिए?”
“पर क्या ज़रूरत थी? इनके बिना भी तो काम चल सकता था?”
प्रत्युत्तर में सावित्रीजी ने घूरकर देखा तो राधाजी बोल उठीं,
“नहीं, मैं तो इसलिए कह रही थी कि आपको इन्हें सहेजना-संभालना पड़ रहा है. व्यर्थ ही परेशानी हो रही है. बाहर जो रूटीन के स्टील के बर्तन हैं उन्हीं से काम चला लेतीं. इन्हें बाहर निकालकर काम लेती रहेंगी, तो ये ख़राब नहीं हो जाएंगे? आख़िर इतने क़ीमती हैं?”
सावित्रीजी ने प्रत्युत्तर में अपनी ननद को ऐसे देखा मानो उसने कोई बहुत बेवकूफ़ी वाली बात कह दी हो.
“अरे, मेरी भोली ननदरानी. समय-समय पर बाहर निकालती रहती हूं. काम लेती रहती हूं. वापस साफ़ करती रहती हूं, तभी तो इनकी चमक और ख़ूबसूरती बरक़रार है, वरना अंदर रखे-रखे काले नहीं पड़ जाते?”
“भाभी, आपको निर्जीव वस्तुओं का इतना ख़्याल है और सजीव वस्तुओं का ज़रा भी नहीं?”
“क्या मतलब?” सावित्रीजी बुरी तरह चौंक उठी थीं.
“मेरा मतलब है आप भाईसाहब और ख़ुद को भी तो कभी-कभी बाहर निकाल सकते हैं. पड़ोसियों, रिश्तेदारों से मिलजुल सकते हैं. उनके और घरवालों के साथ हंस-बोल सकते हैं. आपके बेटे-बहू, यहां तक कि आपका पोता भी आपके साथ के लिए तरसता रहता है.”
“पर हम तो समझते थे कि अब किसी को हमारी ज़रूरत नहीं रह गई है.” सावित्रीजी अभी भी असंमजस की स्थिति में थीं.
“आपकी यही सोच ग़लत है, जिसे आपको बदलना है. आज परिवार में हम बड़े-बुज़ुर्गों की स्थिति इन चांदी के बर्तनों की तरह ही है. वक़्त के साथ-साथ इनका प्रयोग घटता जा रहा है, पर इनकी महत्ता कम नहीं हुई है, बल्कि समय के साथ-साथ इनका मूल्य बढ़ता जा रहा है. इन्हें घर में पाकर, सहेजकर, औरों को दर्शाकर घरवाले गौरवान्वित महसूस करते हैं. इनके घर में रहते भविष्य को लेकर एक सुरक्षाभाव बना रहता है. घर में इनकी उपस्थिति घर की शांति, उन्नति और समृद्धि को दर्शाती है. इनकी मौजूदगी घर के बाहर के वातावरण में एक अलौकिक पवित्रता ले आती है, जिसके वशीभूत घर के सदस्य सुख और आनंद के सागर में गोते लगाकर अद्भुत सुकून महसूस करते हैं.
सावित्रीजी विस्फारित नेत्रों से कभी सामने साफ़ करके रखे हुए चांदी के बर्तनों को निहार रही थीं तो कभी अपनी ननद को. वे और उनके पति कभी इस सकारात्मक दृष्टिकोण से अपने बारे में क्यों नहीं सोच पाए?
“आपको इन बर्तनों से बहुत लगाव है न भाभी?”
“हां बिल्कुल! अपनी जान से भी ज़्यादा सहेजकर रखती हूं मैं इन्हें?”
“आपको इन निर्जीव चीज़ों से इतना मोह है, क्योंकि ये बरसों से आपके साथ हैं, फिर आप तो हाड़-मांस के इंसान हैं. आपने ऐसा कैसे सोच लिया कि इतने बरस आपके साथ रहने के बाद अब बच्चों का आपके प्रति मोह ख़त्म हो गया होगा? आप और बच्चे दोनों ही एक-दूसरे को अपना सारा वक़्त तो नहीं दे सकते, पर कुछ विशिष्ट अवसरों पर एक-दूसरे से मिलकर, आशीर्वाद देकर, प्यार करके, अपनी उपस्थिति दर्शाकर एक-दूसरे को गौरवान्वित और संतुष्ट तो महसूस करवा सकते हैं? इससे न केवल उन्हें, बल्कि आपको भी बहुत अच्छा लगेगा. अभी आप ही ने कहा था कि किसी वस्तु की सार संभाल करके उसे उपयोगी और मूल्यवान बनाए रखना इंसान के हाथ में होता है, लेकिन अपने आपको उपयोगी और दूसरों की नज़रों में मूल्यवान बनाए रखना इंसान के अपने हाथ में होता है.”
राधाजी की बातों ने सावित्री भाभी को आत्मविश्‍लेषण के लिए मजबूर कर दिया था. क्यों उन्होंने और उनके पति ने कूपमंडूक बनकर ख़ुद को दुनिया से काट सा लिया है? ख़ुद ही अपने आपको बोझ मानकर कहीं वे वाक़ई घरवालों के लिए बोझ तो नहीं बनते जा रहे हैं? वक़्त के साथ बूढ़ा तो हर इंसान को होना है, पर ख़ुद को उपयोगी और मूल्यवान बनाए रखकर वह ख़ुद भी ख़ुश रह सकता है और दूसरों को भी ख़ुश रख सकता है.

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“मम्मीजी, चाय-नाश्ता लगा दिया है. आप राधा आंटी और पापाजी को लेकर लॉबी में आ जाइए. सौरभ भी नहा चुके, बस आ ही रहे हैं.”
मेघा की पुकार सुनाई दी तो सावित्रीजी जैसे चौंक गईं. उन्होंने फटाफट चांदी के सारे बर्तन समेटे और पेटी में रख दिए. उनके डायनिंग टेबल पर पहुंचने तक बाकी लोग भी आ चुके थे. मेघा रसोई में चाय छान रही थी. वे मेघा के पास जा पहुंची.
“लंच में शकरकंद की खीर मैं बनाऊंगी. सौरभ और आर्य दोनों को मेरे हाथ की खीर बहुत पसंद है.” मेघा आश्‍चर्य और ख़ुशी से मम्मीजी को देखने लगी.
सौरभ दीपक जलाने पूजाघर की ओर बढ़ रहे थे. मेघा ने सबके प्यालों में चाय उड़ेलना आरंभ ही किया था कि पूजाघर से सौरभ की पुकार सुनाई दी, “मां, आपने यहां से चांदी के बर्तन हटा लिए क्या?”
“हां, क्यों? क्या हुआ?” सावित्रीजी ने पूछा.
“नहीं, कुछ नहीं. पूजाघर में क़दम रखते ही एकदम खाली-सा महसूस हुआ. लगा जैसे मंदिर की आभा ही चली गई. ग़ौर से देखा तो पता चला, चांदी के सारे बर्तन गायब हैं. चांदी के बर्तन थे, तो पूजा में भव्यता और पवित्रता का आभास होता था.”
राधाजी ने भेद भरी मुस्कान से अपनी भाभी को देखा. सावित्रीजी भी मुस्कुराए बिना न रह सकीं.
“अभी नाश्ता करके सारे बर्तन वापस पूजा में सजा देती हूं.”
“नहीं, रहने दो. आपको उन्हें सहेजने रखने में तकलीफ़ होगी.”
“अरे! तकलीफ़ कैसी? पूजाघर तो वैसे भी पूरा मैं ही सहेजती-संभालती हूं.” बात समाप्त करने से पूर्व सावित्रीजी यह जोड़ना भी नहीं भूलीं, “अपनों के लिए कुछ करने में तो हमेशा ख़ुशी ही मिलती है.”
हंसते-खिलखिलाते नाश्ता करते उस परिवार को देखकर एक ही बात कही जा सकती थी, दीपावली चली गई थी, पर अपनी रौनक पीछे छोड़ गई थी.

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