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कहानी- चंद कतरा ज़िंदगी (Short Story- Chand Katra Zindagi)

उनके विचार सहसा सकारात्मक होने लगे. जो कुछ उन्होंने खोया है अगर वो त्रासद है, तो जो कुछ पाया है वो भी कम सुखद नहीं. ग़लती सिर्फ़ इतनी है कि वो पुराने और नए मूल्यों के बीच संतुलन नहीं बना पाईं. चंद कतरा ज़िंदगी उनकी झोली में है और उसे बचाने की इच्छाशक्ति भी.

कजरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेज़ी से उनके हाथ चल रहे थे, उतनी ही तेज़ी से ज़ुबान भी चल रही थी और आशीष वहीं कुर्सी पर बैठा केवल सुन रहा था.
"एक तो समस्या जैसी कोई समस्या नहीं, उस पर आपका यह बर्ताव? कैसे काम चलेगा मां? कुल इतनी सी बात है ना कि मेघा मुंहफट है. उसके मुंह में जो आता है कह देती है, पर ये सब तो छोटी-छोटी बातें हैं मां. आपको इन सब बातों को स्वीकार करना होगा."
आज सुबह ही बहू फिर से कजरीजी से लड़ी थी. बात कोई बड़ी नहीं थी. बात कभी कोई बड़ी होती भी नहीं थी. बस, यही छोटी-छोटी बातें ही होती थीं और बहू उन्हें ज़बर्दस्ती का मौक़ा बना लेती थी.
सुबह नौ बज चुके थे. मेघा अभी तक कमरे से बाहर नहीं निकली थी. कजरीजी ने जैसे ही दरवाज़ा खटखटाया, वो बुरी तरह भड़क गई.
"ये क्या अशिष्टता है मां?"
"क्यों? क्या अशिष्टता हो गई मुझसे?" उनकी भौंहें तन गई थीं.
"रात बारह बजे तक मैं अपना प्रेजेंटेशन तैयार कर रही थी और आपने मुझे उठा दिया. कम से कम धीरे से तो उठातीं, सारा मूड चौपट कर दिया."
"मुझसे ये चोंचले नहीं होते." कजरीजी ने चिढ़ कर कहा.
"ये चौचले नहीं, आधुनिक संस्कृति है मां. सुबह उठने पर पहला बोल प्यार का ही होना चाहिए." आशीष ने भी पत्नी का पक्ष लिया, तो कजरीजी और भड़क गईं.
"हमारे ज़माने में बहुएं, मुंह अंधेरे ही उठ जाया करती थीं. कर्तव्यभावना का पाठ अपने ही नहीं पराए भी पढ़ाते थे. यदि कहीं, किसी बुज़ुर्ग की अवमानना होती, तो गली-मोहल्ले की पंचायत दम ठोककर खड़ी हो जाती थी उस उपेक्षित बुर्ज़ुग के पक्ष में, डर होता था मन में परिवार का, समाज का…"
"वो आपके ज़माने में होता था मां, इस ज़माने में नहीं हो सकता."
"तू बहुत ज़ुबान चला रहा है. भूल गया कि मैं तेरी मां हूं."
आशीष के दफ़्तर जाने के बाद कजरीजी ने सोमेशजी से कई बार बहू की शिकायत भी की थी, जवाब में वो एक बेबस सी गहरी सांस लेते और पूरी समस्या का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उन्हें धीरज न खोने की सलाह देते, "पुराने मूल्य टूट रहे हैं, नए बन रहे हैं. नई पीढ़ी इसी दोहरे अंधेरे से घिरी है. बेहतर यही है कि उनके साथ समान स्तर पर चला जाए. ज़्यादा रोक-टोक से विध्वंसक स्थिति पैदा हो सकती है." पति की इस कमज़ोर प्रतिक्रिया से उनकी आंखों से विवशता के आंसू बहने लगे. वो समझ नहीं पा रही थीं कि उनके लिए जो बातें बहुत बड़ी होती हैं, घर में सबके लिए छोटी क्यों हो जाती हैं?
नाश्ते के टेबल पर बहू ने फिर नखरे दिखाने शुरू कर दिए, "ये क्या नाश्ता है, परांठे और चाय? मुझे तो ब्रेकफास्ट में कॉर्नफ्लैक्स और फल खाने की आदत है. खाने से ज़्यादा मैं कैलोरीज़ और न्यूट्रीशन का ध्यान रखती हूं, वरना शरीर भैंस की तरह थुलथुल हो जाता है."
"पका-पकाया मिल रहा है तभी नखरे हैं. ख़ुद पकाकर खाना पड़े, तो पता चले ऑमलेट, दही, मक्खन, दूध और कॉर्नफ्लैक्स चाहिए, मैडम डायट कॉन्शियस है. और ये थुलथुल किसे कह रही है? कहीं इसका इशारा मेरी तरफ़ तो नहीं?" कजरीजी की तीसरी इंद्री ने उन्हीं से प्रश्न किया.
उठकर आदमकद दर्पण में उन्होंने अपने शरीर का मुआयना किया, कमर और बांहों पर हल्की-सी चर्बी की परत दिखाई दी, पर अब उम्र भी तो हो गई है. उन्होंने ख़ुद को दिलासा सा दिया. सास बन गई, साल-दो साल में दादी भी बन जाएगी.

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सास का उतरा चेहरा देखकर बहू ने सफ़ाई देते हुए कहा, "मां, ये मैंने आपसे नहीं कहा था. मैं तो हरीराम से कह रही थी. इतने दिनों से खाना बना रहा है, पर घी-तेल पर ज़रा हाथ नहीं रोकता. इसे कुछ सिखाइए मां, जैसा गंवार आया था वैसा ही है."
ये एक गहन पीड़ा थी, जिसका उद्गम पेट के गड्ढे में था. मन दुखी था, इस दुख में कई और दुख भी आकर मिले थे दुनियाभर की चिताएं, दुनियादारी के दबाव, समझौते, समर्पण, दिन-प्रतिदिन आकर्षण खोता शरीर और सेक्स से विरक्त होते पति. दफ़्तर की चिंताओं, ज़िंदगी की उलझनों में उलझे रात-रात जागना, हफ़्ते में दो-तीन बार तीन पैग लगाकर घोड़े बेचकर सो जाना… ऐसा लगता है जैसे शरीर के प्रति उनके मन में केवल मातृभाव ही था. वासना जैसे थी ही नहीं, किंतु चोट तब लगती जब पार्टियों में या कार में जाते हुए वो सुंदर युवतियों की रूप सुधा और आकर्षक देहयष्टि से अपने मोटे चश्मे के पीछे से अपनी विरानी दूर करते. उम्र के इस ढलान पर उतरते हुए कजरीजी को लगता जैसे इतनी धूप में वो अकेली रह गई हैं.
आधी रात तक बहू-बेटे के बेडरूम के बंद दरवाज़ों के दरीचों से छनते मद्धिम प्रकाश के बीच दो युवा स्वरों की खिलखिलाहट और चूड़ियों की खनखनाहट सुनकर उनका जी भी चाहता कि कुछ अठखेलियां हों, कुछ फ़िज़ूल की बातें हो, देर रात तक जागा जाए, मगर ये इच्छाएं अब एकतरफ़ा थीं. कभी सोमेश के चारों ओर बांहों का घेरा बनाकर पहल करने की कोशिश करती भी, तो सोमेश के चेहरे पर झल्लाहट के लक्षण परिलक्षित हो उठते.
"ये क्या तरीका है? किसी मनोचिकित्सक को क्यों नहीं दिखातीं? आगे से मेरा बिस्तर अलग कमरे में लगा दिया करो. दूसरे कमरे में बच्चे सो रहे हैं." उन्हें ग्लानि होने लगती अपनी दैहिकता पर. अजब मूल्य हैं आधुनिक समाज के, युवावर्ग को तो पूरी आज़ादी देता है, मगर वही युवावर्ग अपने माता-पिता की ज़रा सी भी शारीरिक अल्हड़ता बर्दाश्त नहीं करता. चाहता है, माता-पिता आदर्श बने रहे. यह भूल जाएं कि वे भी स्त्री-पुरुष है.
तीन बजे आशीष दफ़्तर से लौट आया.
कजरीजी का चित्त थोड़ा शांत हुआ. सोचा, शायद मां को मनाने आया है. बच्चे चाहे माफ़ी न मांगें, अपनी ग़लती मान लें, उतना ही काफ़ी है. हर्षित मन से उन्होंने टेबल सजा दिया. मटर पनीर, आलू गोभी, दही-बड़े… अब तक मेघा भी कमरे से बाहर निकल आई थी. आजकल उसका 'वर्क फ्रॉम होम' चल रहा था. गरम रोटी सेंक कर टेबल पर रखी ही थी कि फोन की घंटी बजी, अमेरिका से मेधा की सहेली का फोन था. कजरीजी उससे बात करने लगीं. "कैसी हो बेटी? कॉलेज कैसा चल रहा है? तुम मेघा और आशीष की शादी में क्यों नहीं आई?"
"उफ मां!.." मेघा टेबल से उठकर उनके पास आकर खड़ी हो गई. रिसीवर हाथ से ढंकते हुए बोली, "आपको क्या ज़रूरत है मेरी सहेलियों से बात करने की?" तब तक फोन कट गया.
"ये लीजिए, फोन भी कट गया. सारा दिन आप फोन पर बात करती रहती हैं, कम से कम मेरी सहेलियों से तो मुझे बात करने दिया कीजिए."
मेघा ने झल्लाकर कहा, तो कजरीजी ने अपनी तरफ़ से सफ़ाई सी दी, "शिष्टता के नाते तुम्हारी सहेलियों से हेलो करके फोन तुम्हें पकड़ा तो देती हूं."
"घर में भी मेरी सहेलियां आती हैं, तो आप उन्हीं से चिपक जाती हैं."
"तो उसमें क्या हुआ? तुम्हारी सहेलियां मुझे अच्छी लगती हैं, इसीलिए उनसे बात कर लेती हूं."
"मैं आपको अच्छी नहीं लगती?"
"सारा दिन बदतमीज़ी दिखाओगी, तो किसे अच्छी लगोगी?"

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"आपने मेरी सहेली को उलाहना दिया, इसलिए मैंने ज़रा सा कह दिया. इतना तो सोचती कि अमेरिका से यहां आना आसान नहीं है."
"अब बात करने का तरीक़ा मुझे तुमसे सीखना पड़ेगा?"
बहू पैर पटकती हुई बिना कुछ खाए-पीए अपने कमरे में लौट गई. कजरीजी के हलक से भी एक निवाला नहीं उतरा. दोनों दुखी थीं, पर अपने दुख को बांट नहीं सकती थीं. एक दीवार थी, जो दोनों ने अपने-अपने अभिमान से चुन दी थी. एक ओर मां का सहज अभिमान या, दूसरी ओर युवा बहू के मन में सुदृढ़ आत्मबल का अभिमान, जो उसे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने को मजबूर कर रहा था.
अतीत की यादों का सिलसिला कजरीजी को शिद्दत से हिला गया. उनके ज़माने में बहुओं का ऊंची आवाज़ में बात करना बेहयाई माना जाता था. 'ना' शब्द तो बहुओं के कोष में ही नहीं था. यही अपेक्षा की जाती थी कि वे सब कुछ स्वीकार कर लेगी. ख़ुद उन्होंने भी यही किया था. जॉब के तनाव के साथ गृहस्थी के सारे कामों का बोझ कंधों पर टिकाया, तो ऐसा लगता जैसे किसी दौड़ प्रतियोगिता में निर्धारित ट्रैक पर बस भागती चली जा रही है. सास-ससुर साथ रहते थे, पर क्या मजाल जो कभी किसी काम में उन्होंने हाथ बंटाया हो. सोमेश से कभी कुछ कहने की कोशिश करती भी, तो उनका अपने माता-पिता के प्रति झुकाव कजरीजी की सारी बातों को सिरे से खारिज कर देता.
सर्दियों की धूप में चाय की चुस्कियां लेते हुए सोमेश के साथ ठिठोली करने का सपना, टीवी पर कोई कार्यक्रम देखते हुए खिलखिलाने का सपना और ऐसे ही हज़ारों सपने उनके मन में ही दफ़न होकर रह गए और अब जब ज़िंदगी को जीने का समय आया, तो बहू की कड़वी कसैली बातें सुनें? क्यों..?
एक बार फिर बिना किसी लाग-लपेट के उन्होंने अपने मन की बात सोमेशजी के सामने प्रस्तुत कर दी.
"आप मेघा को समझाते क्यों नहीं? उसकी बदतमीज़ी बढ़ती चली जा रही है."
पत्नी के दुख को समझते हुए सोमेशजी ने मेघा से कहा, "बेटी, तुम पढ़ी-लिखी हो. इतना तो समझती होगी कि अपने से बड़ों का सम्मान करना चाहिए. अगर तुम अपनी सास का आदर नहीं कर सकती, तो किसका करोगी?" बहू रुंआसी हो गई.
"पापा, मैं तो कभी किसी से किसी की शिकायत नहीं करती, लेकिन मां रो-रोकर कभी मेरी शिकायत आशीष से करती हैं, तो कभी आपसे. रो पड़ती हैं तो ऐसा लगता है जैसे सच बोल रही हैं और मुझे आप सब झूठी समझ लेते हैं."
"देखो बेटी, हर इंसान को अपनी वाणी और बुद्धि पर संयम रखना चाहिए. ये तो मैं भी देख रहा हूं कि तुम अपनी मम्मी को कुछ नहीं समझती."
"पापा, आप भी मां को मम्मी कह रहे हैं?" मेघा ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी, उसे देखकर आशीष भी हंसने लगा, लेकिन सोमेश गंभीर बने रहे.
"ये हंसी में टालने की बात नहीं है. तुमने अमेरिकन संस्कृति अपना रखी है. यहां बच्चे अपने माता-पिता और गुरु का नाम लेते हैं, लेकिन हमारी संस्कृति में इन्हें पूज्य माना जाता है. हमारे यहां वरिष्ठ व्यक्ति की अवमानना को वर्जित माना गया है."
"पर मैंने तो मां का अनादर कभी नहीं किया. बस, जो मन में होता है, वो ज़ुबान पर आ जाता है." मेघा का चेहरा देखकर सोमेश का मन हो गया. अब पूरी घटना उन्हें मामूली लगने लगी, जिसे अकारण ही कजरीजी तूल दे बैठी थीं. उनका ग़ुस्सा अब धीरे-धीरे पत्नी की तरफ़ मुड़ने लगा.
"पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा महिला होने के बावजूद कजरी अपने ज़माने से आगे बढ़ना ही नहीं चाहती. ज़रा सा लचीलापन नहीं. नए ज़माने की लड़की है मेघा. सास की परछाई बनकर उसके पीछे-पीछे तो चल नहीं सकती." उस रात कजरीजी बिस्तर पर करवटें बदलती रहीं. आंख बंद करने की कोशिश करती भी नींद चुपचाप टहल कर चल देती. उधर सोमेशजी भी किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में असमर्थ थे, न तो पत्नी को दबा सकते थे, न ही बहू को, फिर भी पत्नी को समझाना अनिवार्य था.
"देखो कजरी." बोलने से पहले उन्होंने अपने स्वर को संयत किया, क्योंकि जानते थे, यदि आवेश में कुछ कहा, तो कजरी रो-रोकर सारी रात गुज़ार देगी. न ख़ुद सोएगी न सोने देगी.

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"हमें यह समझना होगा कि यह एक नई पीढ़ी है. कुछ पुराने मूल्य हमारे पास हैं, कुछ नए मूल्य इनके पास हैं. हमें इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना होगा. समझ पैदा करनी होगी."
"कैसे?" कजरीजी पशोपेश में थीं.
"मान लो, मेघा के मुख से अशिष्ट, बुलबुल ऐसे ही कुछ शब्द निकलते हैं. अगर पुराने मूल्यों से देखो, तो ये एक गाली है और यदि नए मूल्य से देखो तो स्पष्ट अभिव्यक्ति. स्पष्ट अभिव्यक्ति के कारण ही अमेरिका में लोग स्पष्ट सुनने और कहने के आदी हैं. वहां कोई ऐसी बातों का बुरा नहीं मानता. सभी जानते हैं कि स्पष्टता की तलाश में अभिव्यक्ति इतनी कड़वी हो गई है, इसमें दिल की कड़वाहट नहीं है. इसके विपरीत हमारे ज़माने में क्या होता था? बहुत सी कड़वी बातें ज़ुबान पर आकर रह जाती थीं. अगर कहते भी थे, तो अपनी बातें और तर्क पर अमल नहीं कर पाते थे."
"जब तुम कहते हो, तो दूसरा पहलू दिखता है, वरना मुझे लगता है जी तोड़ मेहनत से मैंने जो उपलब्धियां हासिल की हैं, वो मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसलती जा रही हैं और मैं कुछ नहीं कर पा रही हूं."
"ऐसा क्यों सोचती हो?" सोमेश का हृदय करुणा से भर गया. कजरीजी को उन्होंने बांहों में भरकर उनके गाल पर चुंबन अंकित कर दिया.
यकायक बच्ची बनी कजरी अपने पति से लिपट गईं. उनके गुमसुम मन का संताप-विलाप, पति की स्नेह ऊष्मा से तिरोहित हो गया. इसी चीज़ की कमी तो खटकती है जीवन में. कोई स्पर्श, कोई प्रेम की बात… इसी इंतज़ार में उनकी न जाने कितनी रातें वीराने में लुटी थीं. औरतों का मिज़ाज इसलिए भी कड़वा हो जाता है, क्योंकि वो अपने भीतर की युवती को भुला नहीं पातीं. यह उनका अभिमान है. देह ढल जाती है, मगर यह अभिमान नहीं ढलता. अगर पति उन्हें थोड़ा सा एहसास कराता रहे कि उनकी नज़रों में वो सबसे पहले प्रेमिका है, फिर पत्नी, फिर किसी की मां और सास, तो ये संतुलन कभी न बिगड़े, मगर पति उसे दायित्वों का बोझ देकर प्रेमिका से अलग कर देता है.
चांद पेड़ों पर चढ़ता-चढ़ता खिड़की के सामने आ गया था. चांदनी पेड़ों से छनती शैय्या पर आ रही थी. उस उजाले में कजरीजी का आधा मुंह दमक रहा था और आधे पर स्वप्निल साये थे. उनकी आंखों में न आंसू थे, न थकान और न ही निराशा, उनकी जगह थी एक स्निग्ध चमक. वासना का वो पवित्र आलोक, जो काम कलुषित मन से नहीं, शरीर के गहन स्रोतों से निकलता है. सोमेश ने भी महसूस किया कि यौन की पूर्णता दैहिक होने में है. मन इसका साक्षी न बने, लजाकर छिप जाए, अन्यथा मन इसे देखकर काम कलुषित हो जाता है.
आकाश पर दूर छितरे बादलों को देख अब कजरी के मन में उठते विचार बदल गए थे. अगली सुबह चारों एक साथ मानो किसी अज्ञात प्रेरणा के अधीन नाश्ता करने बैठे. मेघा ने पूछा, "मां! आज आपने कोई फेयरनेस क्रीम लगाई या फेशियल करवाया है?"
"हूं…" कजरीजी का चेहरा सुर्ख हो गया था.
"फेयरनेस क्रीम लगाई है."
"तभी तो चेहरा इतना चमक रहा है." मेघा हंसने लगी. साथ में आशीष भी हंसने लगा.
"थोड़ी ज़्यादा लगाई है या तो लगाती नहीं, लगाती हैं तो थोक के भाव." आशीष की बचकानी बात पर पूरे घर में हंसी बिखर गई. सोमेश ने अपनी मुस्कुराहट समेट कर कजरीजी की आंखों में झांका जैसे पूछ रहे हों, "क्या हम लोग अपने से बड़ों से ऐसे प्रश्न पूछ सकते थे?"
जवाब में कजरीजी भी मुस्कुरा दीं. उनके विचार सहसा सकारात्मक होने लगे. जो कुछ उन्होंने खोया है अगर वो त्रासद है, तो जो कुछ पाया है वो भी कम सुखद नहीं. ग़लती सिर्फ़ इतनी है कि वो पुराने और नए मूल्यों के बीच संतुलन नहीं बना पाईं. चंद कतरा ज़िंदगी उनकी झोली में है और उसे बचाने की इच्छाशक्ति भी. बस, शुरुआत आज से करनी होगी, बल्कि अभी से.
- पुष्पा भाटिया

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