“मैंने घर में कह दिया था, वहां शादी नहीं होगी तो कहीं नहीं करूंगी. और आपने तो खोटे सिक्के जैसा रिश्ता लौटा दिया. तब दिल बहुत दुखा. अपने में कमी खोजती रही. अब जाकर पता चला कि असली बात क्या थी.” कितना कुछ अचानक मेरे सामने आ रहा था. रजनी मुझे इतने लंबे समय से मन में बिठाए हुए थी और मुझे भनक तक नहीं लगी.
जितना कुछ सोचकर मैं गांव आया था, उसका आधा भी खा नहीं पाया था. पता नहीं क्यों, लेकिन सामने रखा खाना देखकर भूख मरने लगती थी. ज़रा बहुत चखकर उठ जाता. मेज़बान को लगता कि शहर वाला लड़का है, पसंद ही न आ रहा होगा, जबकि असलियत तो ये थी कि यही शहर वाला लड़का, शहर से ऊबकर, गांव की महक में रम जाने आया था. दोस्तों का फोन आता था, कब वापस आओगे? मैं टाल जाता था. क्या जवाब देता? मैं तो यहां अलग अपनी लड़ाई लड़ रहा था, अपने आप से. बहाना तो मैं ये बनाकर आया था कि गांव में ज़मीन-जायदाद से जुड़ा कुछ काम है, सच्चाई ये थी कि कुछ दिन शांति से रहना चाहता था. लैपटॉप की खिट-पिट से दूर, शहर की औपचारिक ज़िंदगी से दूर, उस नाम निशा से दूर, जो अपने मतलब को सार्थक करता हुआ सच में मेरे चारों तरफ़ अंधेरे की चादर फैला चुका था. कहने को तो हमको अलग हुए समय बीत चुका था, लेकिन तकलीफ़ नाम बदल-बदल कर परेशान कर रही थी. कभी ग़ुस्सा, कभी बदले की भावना, कभी निराशा… अजीब लगता था सोचकर कि कभी हमारे बीच प्यार भी था?
उस दिन भी आम के पेड़ के सामने बैठा, कहीं दूर देखता हुआ गुम था कि उस आवाज़ ने चौंका दिया, “पेड़ को भस्म कर देंगे क्या घूर घूरकर?”
मैं पलटा, ये कौन है? पर पल भर में ही उसके गाल पर उभरा तिल, उसकी पहचान याद दिला गया.
“रजनी? है न?”
“हां, और कौन आपको ऐसे टोक सकता है?” कहने वाली हंस रही थी, मैं थोड़ा झेंप रहा था.
कई सालों बाद हम मिल रहे थे. हम एक ही स्कूल में थे. मैं दो साल सीनियर था. बारहवीं के बाद मैं आगे पढ़ने शहर चला गया था. उसके बाद जब भी आया, वो दिखी ही नहीं. वैसे मैंने उसको ढूंढ़ा भी तो नहीं. बस बीच में एक बार वो तब याद आई थी, जब मेरे लिए उसके रिश्ते की बात उठी थी, मैंने मना कर दिया था.
“तुम तो दिल्ली में सेटल्ड हो न?”
जितना कुछ पता था, उसके हिसाब से मैंने बोल दिया. वो बड़ी सहजता से नकार गई, “नहीं… शादी दिल्ली में हुई थी, सेटल्ड तो यहीं हूं.”
पेड़ को छूकर आती एक हवा का झोंका मुझे भी छू गया. इतना आत्मविश्वास, इतनी तसल्ली.. ये सब हर किसी के पास क्यों नहीं?
“मैं आपको बुलाने आई थी. आज रात का खाना हमारे घर पर है. रास्ता तो याद है न?”
उसके स्वर में एक ताना था और यह एहसास मुझे थोड़ा और शर्मिंदा कर गया था. जब मैं छोटा था, तब उसके घर दिन में इतने चक्कर लगते थे कि दोनों घर लगभग एक ही से लगने लगे थे. एक बार इस गांव से बाहर क्या निकला, मानो हर दूरी को खींचकर मैंने लंबा कर दिया. मैं गांव आता ही कितने दिन के लिए था? कभी दो दिनों के लिए, कभी एक हफ़्ते के लिए और उन दिनों में भी ना किसी से मिलने जाना, न ही कोई घर आए तो उसको अपनी शक्ल दिखाना. बस एक अपनी अलग दुनिया बना ली थी मैंने. पढ़ाई, फिर नौकरी और जब से मां-पापा नहीं रहे, तो गांव के नाम से चिढ़ हो गई. उसके बाद तो मुनीमजी ही यहां का काम देखते रहे. मुझ तक हिसाब और रुपए पहुंचते रहे, बस इससे ज़्यादा यहां की मिट्टी से कोई संबंध नहीं रहा. रात को उसके घर पहुंचा, तो एक अजीब सी झिझक से घिरा रहा. उससे शादी के लिए मैंने ही मना किया था, ये बात जितनी मुझे याद थी, उससे ज़्यादा उन लोगों को याद होगी. यह तो तय था.
तब भी वो दोनों मुझे इस तरह दुलार रहे थे जैसे मैं सालों पहले वाला, वही बच्चा था.
“आप दोनों यहां अकेले रहते हैं?”
खाना खाते हुए अजीब सा सवाल मैं पूछ लिया, जबकि रजनी मुझे सुबह बता चुकी थी कि वह भी यहां रहती है. क्या मेरे मन के भीतर बैठा कोई सवाल मुझे यह सब पूछने को कह रहा था? चाची अचानक गंभीर हो गई थीं, “नहीं बेटा, हम तीनों लोग यहां रहते हैं, रजनी दिल्ली में थोड़ी रहती है.”
इतना बोलकर वह चुप हो गई थीं. बात बदलने के लिए चाचाजी और दूसरी बातें पूछने लगे और मुझे ऐसा लगा कि इस बात को आगे बढ़ाने से बचने के लिए रजनी भी वहां से उठकर चली गई थी.
खाना खाने के बाद चाचा मुझे मेरे घर तक छोड़ने आए. दरअसल वो उस अधूरी बात को पूरी करना चाहते थे, जो उस समय छूट गई थी.
“बेटा, शादी के बाद रजनी क़रीब पांच महीने दिल्ली में रही होगी, फिर यहीं आ गई. अभी कोर्ट-कचहरी में मामला चल रहा है, जल्दी ही सब निपट जाएगा. क्या बताएं, जैसी भगवान की मर्ज़ी.”
उस रात मैं बहुत कुछ सोचता रहा. कभी अपने घर के बारे में, कभी नौकरी.. कभी निशा.. तो कभी रजनी के बारे में भी… कहते हैं ना कि सुख एक उत्सव का माहौल लेकर आता है. उसमें सब एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं. ठीक इसी तरह दुख भी एक ऐसी काली चादर ओढ़ कर आता है, जिसके नीचे सभी उदास लोग इकट्ठा हो जाते हैं.
अगली सुबह उनके घर से बहुत सारा नाश्ता मेरे जागने से पहले ही हाज़िर था और उसके बाद दोपहर में भी मेरी थाली लगकर आ चुकी थी. रजनी के घर काम करने वाले लोग इस तरह मेरी सेवा में लिप्त हो चुके थे जैसे मैं उनके घर का मेहमान हूं. रात में नौकर खाना देने आया, तो मैंने साफ़ मना कर दिया.
“अरे, आप चाची से मना कर देना. इतना खाना मत भेजें, दिन का ही सब रखा हुआ है. मेरे पास यहां खाना बनाने के लिए लोग हैं, वह क्यों परेशान हो रही हैं?”
वो हंसते हुए बोला, “अब यह सब बात तो आप ही कह दीजिएगा, नहीं तो रजनी दीदी हमारी खटिया खड़ी कर देंगी.”
अपराधबोध के तले मैं दबता चला जा रहा था. किसी तरह तो यहां मन लगना शुरू हुआ था, अब अचानक यह सब? अगली सुबह उनके घर से नाश्ता-खाना आने से पहले ही मैं उनका दरवाज़ा खटखटा चुका था, सामने रजनी खड़ी थी, “सॉरी! सुबह-सुबह डिस्टर्ब किया.”
वह मुस्कुरा रही थी, “सुबह-सुबह गुड मॉर्निंग कहते हैं, सॉरी नहीं. अंदर आइए.”
मुझे लगा जैसे वह कहीं जाने के लिए तैयार खड़ी थी. घर पर चाचा-चाची भी नहीं दिख रहे थे.
“बस मैं चाची से यह कहने आया था कि भोजन के लिए परेशान मत हों, मुनीम जी ने सब इंतज़ाम कर दिया है. वैसे मैं दो-तीन दिनों के लिए नहीं आया हूं, अभी रहूंगा कुछ दिन.”
रजनी अपना बैग उठाते रुक गई, “क्या आप नौकरी छोड़ कर आ गए हैं? जहां तक मुझे पता है, आपकी तो जॉब है ना वहां?”
मैं इस सवाल के लिए तैयार नहीं था. इससे पहले कि मैं जवाब देने के लिए और टाइम लेता, वो माफ़ी मांगते हुए बोली, “मैं शाम को आती हूं घर, फिर बैठ कर बात करते हैं. अभी मुझे जाना है.”
इतना कहते ही उसने ड्राइवर को आवाज़ दी और मुझे हक्का-बक्का छोड़ कर चली गई. यह इतनी जल्दी में जा कहां रही थी? चाचा-चाची भी घर पर नहीं दिख रहे थे, “कोई बात तो नहीं हो गई?” मैंने पास खड़े नौकर से पूछा.
“क्या हुआ? सब ठीक है ना? कोई बीमार है क्या?”
“आज दीदी शहर गई हैं, मालिक-मालकिन को अस्पताल दिखाने. उन दोनों को सुबह छोड़ आई थीं. अभी कुछ काग़ज़-पत्तर लेने घर आईं, अब फिर गई हैं.”
मेरे पास रजनी का फोन नंबर नहीं था. मैंने किसी और से मांगना ठीक भी नहीं समझा.
शाम होने का इंतज़ार करता रहा. रजनी शाम बीतने के बाद घर आई, साथ में चाची भी थीं. “मुझे पता चला कि आप सब लोग अस्पताल गए थे. मैं तो घबरा गया था. तुमने मुझे बताया भी नहीं सुबह कुछ.” मैंने रजनी को देखकर शिकायत की.
“अरे, कुछ ख़ास नहीं था. बस इन लोगों का रेगुलर हेल्थ चेकअप करवाती हूं, इस लिए गई थी.”
इतना कहने के साथ ही रजनी ने मुझसे टीवी ऑन करवा लिया था और चाची की पसंद का सीरियल लगाकर उनको आराम से बैठा दिया था. इसी बीच उसने कब नौकर को इशारा करके अपना साथ लाया खाना भी लगवा लिया, मुझे तो पता ही नहीं चला. एक थाली चाची को पकड़ाकर, एक मुझे थमा गई.
रजनी से मैं प्रभावित हो रहा था और इसके एक नहीं कई कारण थे. गांव की लड़कियों की जो एक बनी बनाई छवि होती है, जिसमें उनको ठीक से बात करना नहीं आता, घर से बाहर निकलने में झिझकती हैं, निर्णय लेने की क्षमता नहीं होती, डरी-सहमी सी होती हैं… रजनी उन सबसे एकदम अलग थी.
“आप सुबह कुछ बता रहे थे, मैं पूरी बात सुन नहीं पाई थी.”
उसने खाना खाते हुए प्रसंग छेड़ दिया. मैंने एक बार चाची की ओर देखा, वह टीवी देखने में व्यस्त थीं. मैंने बताना शुरू किया, “सही-सही बताऊं तो मैं हमेशा से चाहता था कि किसी शांत जगह रहकर कुछ करूं, जैसे कि यही अपना गांव… कुछ साल शहर में नौकरी करके भी देख ली. अब लगता है कि यही रहूं. बहुत कुछ सोचकर आया था, लेकिन मन यहां भी नहीं लग रहा है.”
मेरे कहते ही उसने एक भरपूर निगाह मुझ पर डाली, “आपके मन में तो कुछ और है! बात गांव, शहर, नौकरी की है या किसी और से भाग रहे हैं? किससे भाग रहे हैं?”
खाना खाते हुए मेरे गले में अचानक कुछ अटक गया. क्या कहूं इससे अब?
“कह सकती हो किसी से भाग रहा हूं. किसी की याद से भाग रहा हूं. लेकिन उससे क्या फ़र्क़ पड़ता है. ख़ैर तुम बताओ, क्या पढ़ाई की? और आगे.”
मैं और कुछ पूछते-पूछते रुक गया, लेकिन वो सब समझकर बताती चली गई, “यहां से इंटर करने के बाद मैं बुआ के यहां चली गई थी. वहां से आगे की पढ़ाई की. नौकरी भी की उसके बाद.”
इतना बोलकर वह रुकी. मुझे ऐसा लगा जैसे वह यह कहने वाली थी कि इसके बाद आपसे शादी की बात चली और आपने मना कर दिया. मैं असहज होने लगा था, तभी बात का रुख किसी और दिशा में मोड़ते हुए उसने बोलना ज़ारी रखा, “उसके बाद मेरी दिल्ली में शादी हो गई. कुछ महीने ही मैं वहां रह पाई, फिर गांव ने मुझे वापस बुला लिया.”
अपने जीवन की एक बड़ी दुर्घटना को बस एक घटना बताकर उसने माहौल को हल्का कर दिया था. मैंने पूछ लिया, “अगर मैं पूछूं कि ऐसा क्या… अच्छा ख़ैर छोड़ो.”
वह भी उस व़क्त चुप हो गई थी. चाची खाना खाकर उठ गई थीं. वापस आकर चाची फिर से टीवी देखने के लिए जैसे ही तल्लीन हुईं, उसने बताना शुरू किया, “जब शादी तय हुई, तब उन लोगों का कहना था कि उनको एक पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए, जो हर तरह से आत्मनिर्भर हो, स्मार्ट हो. लेकिन असलियत कुछ और थी. शादी के हफ़्ते भर के भीतर ही दबाव आना शुरू हो गया कि गांव का सब कुछ बेचकर, उन लोगों के नाम कर दू्ं. धीरे-धीरे समझ में आया कि शादी के लिए मुझे चुनने की वजह मेरी पढ़ाई-लिखाई नहीं, बल्कि मेरी संपत्ति थी.”
मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था. बताते हुए दर्द की एक रेखा उसके चेहरे पर खिंच आई थी.
“पापा-मम्मी इस बात के लिए भी तैयार थे. उनका कहना था कि जब एक दिन यह सब होना ही है तो अभी ही सही. लेकिन मैं इस बात के लिए तैयार न थी.” आख़िरी पंक्ति बोलते-बोलते उसका दुखी चेहरा एक सशक्त स्त्री के चेहरे में तब्दील हो चुका था.
“मेरा यह कहना था कि क्यों मेरे पापा-मम्मी सब कुछ बेच कर वहां पर रहें? उनका वहां कुछ भी नहीं, उनको कैसा लगेगा वहां पर रहने में? जब मैंने यह बात समझाने की कोशिश की, तब उन सबका असली चेहरा सामने आने लगा. वहां किसी के लिए भी मैं कुछ नहीं थी. वे लोग स़िर्फ लालच से हम सबसे जुड़े थे. जैसे ही ये सच सामने आया, मैंने अपना ़फैसला सुनाया और यहां आ गई. पापा-मम्मी के साथ हूं. उनका ध्यान रखती हूं. अपने खेत-बाग संभालती हूं. बस, और क्या चाहिए?”
मैं सम्मोहन में था. मेरे सामने महिला सशक्तिकरण का एक ऐसा चेहरा बैठा था, जिसकी हिम्मत देखकर मुझे अपनी कमज़ोरी पर हैरानी हो रही थी! किन छोटी-छोटी समस्याओं से मैं भागता फिर रहा हूं? हर बात पर घबरा जाना, निर्णय न ले पाना… मैंने एक पल ठहरकर पूछा, “तुमने उसको माफ़ कर दिया.. अपने हस्बैंड को?”
“अगर माफ़ नहीं करती ना, तो कभी आगे नहीं बढ़ पाती. अगर मन में किसी के लिए नफ़रत भरी रहे, तो वह नफ़रत उसको भूलने भी नहीं देती. मैं उसे भूलना चाहती थी, मैंने माफ़ कर दिया.”
कितनी सहजता से कितनी बड़ी बात वह कह गई थी. थोड़ी देर में वह अपने सारे बर्तन समेट कर अपनी मम्मी को लेकर मेरे घर से चली गई थी, लेकिन बहुत सारी हिम्मत इस मेज़ पर छोड़ गई थी, जिस मेज़ पर हम खाना खा रहे थे. मैं बहुत देर तक वहां रजनी की उपस्थिति महसूस करता रहा.
वह रात बेचैनी में कटी. अगले दो-तीन दिनों तक हम नहीं मिले. लेकिन एक बात मैंने बड़ी शिद्दत से महसूस की कि रजनी की बातों में कुछ तो ऐसा था, जो मुझे बहुत कुछ सिखा गया था. मेरे भीतर के डर को दूर भगाकर मुझे वह सब दिखा गया था, जो अब तक मैं देखना ही नहीं चाहता था.
मैं स्वीकार ही नहीं करना चाहता था कि निशा अब मेरी ज़िंदगी में नहीं है. पहले स्वीकार किया, नफ़रत करना छोड़ा, तब जाकर नाम मिटा पाया. नाम मिटा, तब ही सुकून मिला. सुकून मिला तो लगा कुछ और है भीतर! क्या था भीतर अब? किसी का नाम सुनाई दिया. दिल हुआ कि इसी व़क्त उससे जाकर मिल लूं. घर से बाहर निकलते ही चौंक गया. देखा, फलों का एक बड़ा सा टोकरा लिए रजनी का नौकर मेरे घर की ओर ही चला आ रहा है. और उसके ठीक पीछे-पीछे गुलाबी शॉल में लिपटी हुई वो ख़ुद.
“आप कहीं जा रहे थे?”
उसके पूछते ही मैंने तुरंत झूठ बोल दिया, “हां, बस ऐसे ही टहलने.”
“अच्छा फ़िलहाल तो आप ये रखिए, थोड़ी देर में नाश्ता भिजवाती हूं.”
“रजनी, एक मिनट…”
मैंने उसको रोका. मैं उससे कुछ कहना चाहता था. उसने नौकर को घर जाने के लिए कहा और मेरी बात सुनने के लिए रुक गई. मैं कहने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था, तब भी मैंने कोशिश की, “रजनी, मैं कुछ कहना चाहता हूं. एक्चुअली मैं सॉरी कहना चाहता था, वो रिश्ते वाली बात…”
इसके आगे मुझसे कुछ कहा नहीं गया.
“नहीं, इसमें सॉरी जैसा कुछ नहीं था. हो सके तो मुझे कारण बता दीजिए.. वैसे ज़रूरी नहीं है.”
मैं सच बोलना चाहता था, मैने बोला भी, “मैं एक रिलेशनशिप में था… और वही सब है, जो मुझे परेशान करता रहता है. उन्हीं यादों से भागता फिर रहा था अब तक…”
“अब तक? अब नहीं भाग रहे?”
“नहीं. तुमने उस दिन समझाया था न, तब से निशा को माफ़ करने की कोशिश कर रहा हूं.”
“निशा नाम था?”
“हां, अपने नाम वाला ही काम किया उसने. हर जगह अंधेरा करके चली गई.” रुकते रुकते भी मेरे मुंह से यह कड़वी बात निकल ही गई थी.
यह सब सुनते ही रजनी चौक पड़ी थी, “मेरे नाम का मतलब भी तो वही है. मैं तो इसको इस तरह से डिफाइन करती हूं कि रात ना हो तो दिनभर की थकान ही ना मिटे. कोई आराम ही न करे. कोई सपने ही ना देखे.”
उफ्फ़! मैं क्या बोल गया था? दो-तीन बार सॉरी सॉरी… बोलकर इससे पहले कि मैं अपनी सफ़ाई में कुछ और कह पाता, रजनी जाने का मन बना चुकी थी, “बाद में बात करते हैं. आज मम्मी का मोतियाबिंद का ऑपरेशन है. मुझे उन्हें लेकर शहर जाना है.”
उसके जाते ही मैं डूब सा गया था. कितनी बुरी तरह दिल दुखा दिया था मैंने उसका. अपने दुख में इतना डूब जाना कि ना बोलने का होश रहे, न किसी को समझने की चिंता रहे, यह कहां की समझदारी थी? वह दिन बहुत भारी बीता.
रात को मैं चाची को देखने भी गया, तब भी रजनी मुझसे कटी कटी सी ही रही. लेकिन मैं अपने भीतर कुछ बदलता हुआ देख रहा था. वो जितना मुझसे दूर जाने लगती, उतना ही मैं ख़ुद को उसके नज़दीक पाता. उससे मिलने के बहुत सारे बहाने लिए मैं हमेशा तैयार रहता. कभी खेती से संबंधित कोई मशवरा लेने पहुंच जाता, कभी कोई डॉक्यूमेंट बनवाने के बारे में पूछताछ कर लेता.
उस दिन चाची को शहर लेकर जाना था, किसी काम का बहाना बनाकर मैं भी साथ हो लिया. लौटते समय रास्ते में चाचाजी ने पूछ लिया, “गांव में चर्चा है कि तुम नौकरी छोड़ आए हो. अब यहीं रहकर सब देखोगे.”
मैंने कार चलाते हुए इतने ज़ोर से कहा कि पीछे बैठी रजनी भी सुन ले, “जी चाचा, अब यहीं अच्छा लगता है.”
“हां, ठीक भी है बेटा. इतना कुछ है तुम्हारे पास खेत-खलिहान, बाग-बगीचा… ये सब देखो, क्या रखा शहर में.”
क्या रखा है शहर में, से ज़्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न मेरे लिए कुछ और था. क्या सब कुछ है मेरे पास यहां? और जो कुछ है वो स़िर्फ मेरा भ्रम है?
मेरे मन में रजनी के लिए एक नए एहसास का जन्म लेना, कहीं पिछले रिश्ते यानी निशा के जाने की भरपाई तो नहीं है? ये सवाल मैंने बार-बार ख़ुद से किया और हर बार यही जवाब पाया कि नहीं यह एक नई कोंपल के आने जैसा एहसास है, जिसका पिछले सूखे पेड़ से कोई वास्ता नहीं है… और रजनी के लिए? उससे कैसे पूछूं? हो सकता है ये बात करते ही हमारी बातचीत ही बंद हो जाए. नहीं… नहीं… ऐसा भी तो हो सकता है कि वो भी ज़िंदगी को एक मौक़ा और देना चाहे.
मन को सिक्का बनाकर मैं उछाल-उछाल कर देखता रहा.
अगर रजनी ये कह दे कि अब क्यों आए हो? तब तो मना कर दिया था न. मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डाला, हो सकता है वो भी मुझे पसंद करने लगी हो.. नहीं संभव है. ऐसे लड़के को वो क्यों पसंद करेगी, जो उसके साथ जुड़ने से मना कर चुका हो. बीसों ख़्याल आए और गए. फिर मैंने ख़ुद को समझाया, बात तो करनी ही पड़ेगी… चित या पट, बिना सिक्का उछाले पता कैसे चलेगा?
अगली सुबह मैंने अपने घर-आंगन में खिले छोटे-बड़े फूल चुने. उनको करीने से बांधा. बीच में एक काग़ज़ पर सॉरी लिखकर छुपाया और सीधे उसके घर पहुंच गया.
रजनी ने ही दरवाज़ा खोला, “मैंने सोचा, आज नाश्ता यहीं कर लूं. ये तुम्हारे लिए.”
हड़बड़ाकर मैंने फूल उसकी ओर बढ़ा दिए. बीच में रखा काग़ज़ उसको दिख रहा था.
“ये क्या है? किस बात के लिए सॉरी?”
“वो उस दिन, तुम्हारे नाम को लेकर वो सब कहा… सब लोग सो रहे हैं क्या?”
“हां.”
काग़ज़ को फूलों से हटाकर, अपनी मुट्ठी में छुपाती हुई रजनी मुझे कितनी अपनी सी लग रही थी. क्यों छुपा रही थी? कि कोई देख न ले, नाराज़ होती तो फेंक देती उसको. मेरी हिम्मत बढ़ी, “कुछ बात करनी थी.”
“आइए बैठिए, चाय भी तैयार है.”
चाय का गर्म कप अपनी ऊष्मा से थोड़ी और हिम्मत भर गया. एक भरपूर नज़र मैंने चाय पीती रजनी पर डाली और एक झटके में कह गया, “मुझे पता है तुम मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करती हो. तब भी मैं… मतलब क्या हम दोनों?”
उसके कप से चाय छलकी. हमारी आंखें मिलीं. उसने आंखें फेर लीं, “क्या हम दोनों? पूरी बात कहिए.”
“क्या हम दोनों आगे के लिए कुछ सोच सकते हैं? देखो, पिछली बात मत उठाना. मैंने बताया था तुमको रिश्ते के लिए न कहना. उसमें तुमको रिजेक्ट करने जैसा कुछ नहीं था. कोई और भी होता तो भी मैं मना ही करता.”
वो चाय पीती रही. भाप उसके चेहरे को छूती हुई उसके बालों में गुम होती रही. मैंने थोड़ा और जोड़ा, “तुम मना कर सकती हो, तुरंत अभी. मुझे बिल्कुल ख़राब नहीं लगेगा. बस, हमारी दोस्ती बनी रहे, उतना ही बहुत होगा मेरे लिए…”
रजनी अचानक गंभीर हो गई थी. मेरी ओर देखकर धीरे से बोली, “इतना डर है मुझे खोने का?”
मैं सिर झुकाकर बस हां ही कह पाया. उसने एक लंबी सांस खींचकर पूछा, “आपको क्या लगता है, आपके घर जब रिश्ता भेजा गया था उसमें मेरी मर्ज़ी नहीं थी?”
मैं चौंक गया था. ये क्या कह रही थी?
“मैंने घर में कह दिया था, वहां शादी नहीं होगी तो कहीं नहीं करूंगी. और आपने तो खोटे सिक्के जैसा रिश्ता लौटा दिया. तब दिल बहुत दुखा. अपने में कमी खोजती रही. अब जाकर पता चला कि असली बात क्या थी.” कितना कुछ अचानक मेरे सामने आ रहा था. रजनी मुझे इतने लंबे समय से मन में बिठाए हुए थी और मुझे भनक तक नहीं लगी. लेकिन ये बात जानकर मुझे जितना ख़ुश होना चाहिए था, मैं हो नहीं पा रहा था. कितने ही जद्दोज़ेहद से गुज़री होगी ये. पहले मेरा मना करना, फिर वहां शादी होना, उसके बाद नर्क झेलना… मुझे लगा जैसे कहीं न कहीं इन सबके लिए मैं ही ज़िम्मेदार था.
“मुझे माफ़ कर पाओगी रजनी?”
वो कुछ देर सोचती रही.
“माफ़ कर दूंगी लेकिन…”
“लेकिन क्या?”
“लेकिन उस सवाल का जवाब अभी नहीं दे सकती, जो आपने पूछा था…”
मैं मुस्कुरा दिया था. उस सवाल का जवाब उसके चेहरे पर लिखा था, भले ही वो ख़ुद न पढ़ पा रही हो. मैंने चाय का कप ऱखते हुए कहा, “तुमने मेरा बहुत इंतज़ार किया है, अब मैं करूंगा. वो तो करने दोगी न?”
वो चुप रही. मैंने कप उसकी ओर बढ़ाया, “थोड़ी चाय और मिलेगी?”
भाप उड़ाती चाय मेरा कप भर चुकी थी. कप हो या ज़िंदगी, दोबारा भरे जाने का मौक़ा सबको मिलता है. मैं यही सोचकर मुस्कुरा रहा था.
सामने बैठी रजनी पता नहीं क्या सोचकर मुस्कुरा रही थी.
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