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कहानी- ब्रेकिंग न्यूज़ (Short Story- Breaking News)

"नहीं दीदी. सिर्फ़ बर्थडे थी, इसलिए नहीं… हम हमेशा से ही पापा को ग़लत समझते रहे, उन्हें हिटलर कहते रहे. पर मैं हमेशा महसूस करता था कि वे दिल ही दिल में हमसे बहुत जुड़ाव महसूस करते हैं. पता नहीं ऊपर से ही क्यों इतना कठोर और दूर-दूर बने रहते हैं? विशेषत: आपके हॉस्टल चले जाने के बाद तो मैंने उन्हें कई बार कमज़ोर पड़ते देखा है. वे बहाने से आपके कमरे में जाते है. आपकी चीज़ों को छूते हैं और फिर विकल होकर झटके से बाहर निकल आते हैं…"

छुट्टियों में मीनू के आ जाने से घर भर में रौनक़ छाई हुई थी. दोनों बच्चे दिन भर पापा के साथ मिलकर धमाल मचाए हुए थे. अभी भी आसमां में बादल घुमड़े भर थे कि मीनू और बंटी ने पकौड़ों की रट लगा डाली थी. मेरे हाथ सब्ज़ियां काट रहे थेे, पर दिमाग़ की रील अपने ही अंदाज़ में उल्टे घूमते हुए विगत में पहुंच गई थी.
उस दिन भी मन ऐसे ही बहुत प्रफुल्लित था. बंटी का जन्मदिन जो था. उसने अपने दोस्तों के साथ मूवी देखने और फिर बाहर ही खा-पीकर आने का कार्यक्रम बनाया था. दोनों बच्चों के क्रमश: वय और किशोरवय अवस्था में पहुंच जाने के कारण मैं उनके घर पर जन्मदिन मनाने संबंधी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो गई हूं. मीनू तो साल भर से वैसे ही दूसरे शहर हॉस्टल में है. बंटी को रवाना कर, हम दोनों का खाना निबटाकर मैं रजाई में दुबक गई थी. ख़बरों के ज़बरदस्त शौकीन मेरे पतिदेव मनोज दिल्ली में बन रही सरकार के मंत्रिमंडल को देखने टीवी के सामने डटे हुए थे. रजाई की गर्माहट से आंखें उनींदी होना आरंभ ही हुई थी कि कॉलबेल बजी. पतिदेव के अपनी जगह से हिलने की कोई उम्मीद नहीं थी, इसलिए मैं ही जबरन चप्पलें घसीटते दरवाज़ा खोलने जा पहुंची थी. बंटी और उसके दोस्तों को इतनी जल्दी और वो भी घर आया देख मैं हैरान रह गई थी.
"मूवी अच्छी नहीं लगी मां, इसलिए हम लोग बीच में ही उठकर आ गए. थोड़ी देर बाहर धूप में क्रिकेट खेल रहे हैं. फिर खाने के टाइम चले जाएंगे."
मैं अनमनी सी कमरे में लौट आई थी. मनोज के पूछने पर उन्हें सारा मामला बता दिया था. मन ही मन डर रही थी वे ग़ुस्से में बच्चों पर चिल्लाने न लगें. आज बंटी का जन्मदिन भी है. कम से कम इसी का लिहाज़ कर लें.
"फिल्म के बारे में पता करके टिकट लेने चाहिए थे." बड़बड़ा कर उन्होंने फिर से नज़रें टीवी पर गड़ा दी थीं. मैंने राहत की सांस ली. फिर कुछ सोचकर रसोई की ओर मुड़ गई. बच्चों के लिए चाउमीन बनाया और उन्हें बाहर ही दे आई. मनोज यह सब खाना पसंद नहीं करते, इसलिए हम दोनों के लिए मैंने चाय बना ली. मनोज को कप पकड़ाया और स्वयं बाहर आकर चाय पीने लगी.अच्छा हुआ मनोज बाहर नहीं आए. बच्चे या तो खेल बंद कर देते या फिर इतना खुलकर नहीं खेल पाते. बच्चे उनके धीर गंभीर स्वभाव से वाकिफ़ हैं. उनकी लिखी किताबें स्कूल में पढ़ते हैं, इसलिए उन्हें आदर देने के साथ-साथ उनसे भय भी खाते हैं. जब से इस घर में शादी होकर आई हूं, घर का ऐसा ही वातावरण देख रही हूं. पहले संयुक्त परिवार में ससुरजी का दबदबा देखा. बच्चे उनके सामने बोलना तो दूर सामने पड़ने से भी कतराते थे. उनकी कही बात घर में वेदवाक्य समझी जाती थी. तीनों बेटे इतने बड़े, शादीशुदा हो जाने के बाद भी मांजी के माध्यम से ही पिता तक अपनी बात पहुंचाते थे. मैंने कभी ससुरजी को बच्चों या पोतों-पोतियों के संग हंसी-मज़ाक करते नहीं देखा. बाबूजी गुज़र गए, पर अपनी छवि की छाप अपने बेटों में छोड़ गए. दूसरे भाइयों का तो नहीं कह सकती, लेकिन मनोज अपने बाबूजी का ही प्रतिरूप बनते जा रहे थे. बाबूजी के रहते मैंने उन्हें कभी मीनू-बंटी को उनके सामने गोद में उठाते नहीं देखा. और जब वे गुज़रे तब मीनू-बंटी गोद में लेने लायक नहीं रह गए थे. बीच की दीवार गिर गई थी, किंतु दूरियां अभी तक कायम थीं. ऐसा नहीं था कि ये दूरियां दिलों के बीच भी थीं. मैंने कई बार मनोज के दिल में बच्चों के प्रति और बच्चों के दिलों में पिता के प्रति अगाध प्यार महसूस किया था, पर एक हिचकिचाहट, औपचारिकता का एक झीना सा आवरण हमेशा उनके बढ़ते कदम रोके रहा. कई बार मेरा मन होता एक झपटृा मारकर इस झीने पर्दे को तार-तार कर डालूं, पर डर लगता था ऐसा करने से कहीं ये बढ़ते कदम ठिठक कर दिशा ही न बदल लें. संवेदनाएं खुलकर बाहर आने की बजाय अंदर ही दम न तोड़ दें.

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मेरी चाय समाप्त हो चुकी थी. बच्चों को चाउमीन बहुत पसंद आया था. अब उन्होंने पाव भाजी की मांग कर दी थी. मैं ढेर सारी सब्ज़ियां काटने के लिए लेकर मनोज के पास आ बैठी थी.
"बच्चे खेलने में रम गए हैं. वापिस नहीं जाना चाहते. कह रहे हैं यहीं पाव भाजी बना दो." पति और बच्चों की मांग पर कुछ बनाना मेरा हमेशा से ही प्रिय शग़ल रहा है.
"एक ही अफ़सोस है, पहले से पता होता तो कुछ और तैयारी करके रखती. गाजर का हलवा ही बना लेती."
"आजकल के बच्चे हलवा वगैरह कहां पसंद करते हैं?" मनोज कुछ सोचते हुए उठ खड़े हुए थे और तैयार होने लगे थे. मैंने हैरानी से पूछा था, "क्या हुआ?"
"अब जब घर पर ही पार्टी है, तो केक तो ले ही आता हूं."
"पर… न्यूज़? विभागों का बंटवारा तो शुरू ही होने वाला है?"
"मुझे कौन सा कोई विभाग मिल रहा है? फिर ये ख़बरें तो दिन में दस बार आती हैं. पर बंटी का जन्मदिन तो साल में एक ही बार आता है न?"
मनोज निकले ही थे कि बंटी दौड़ता हुआ अंदर आया.
"मां, मां… पापा कहां चले गए?" उसकी नज़रें टीवी पर थीं.
"तुम्हारे लिए केक लेने."
"पर अभी तो उनकी न्यूज़… ज़रूर आपने भेजा होगा?"
"नहीं, मैंने नहीं भेजा." मैंने मनोज के शब्द ज्यों के त्यों दोहरा दिए. हां, इस दोहराव में अनायास ही गर्व का पुट आ गया था.
पाव भाजी लगभग तैयार हो चुकी थी कि सामान से लदे-फदे मनोज आ पहुंचे. बच्चे खेलना छोड़कर गाड़ी से एक-एक पैकेट लेकर अंदर आने लगे. बड़ा सा चॉकलेट केक, स्विस रोल, वेफर्स, कोक, चॉकलेट्स… टेबल पर खाने-पीने की चीज़ों का ढेर लग गया था.
"आप तो सिर्फ़ केक लेने गए थे. इतना सब क्या ले आए?" मैं ख़ुशी से अभिभूत थी.
"और ये चॉकलेट्स?"
"बच्चों को रिटर्नगिट नहीं दोगी?"
पार्टी का रंग जम गया था. सबने छककर खाया.
"तुम लोगों ने म्यूजिक़ चलाकर डांस तो किया ही नहीं? लग ही नहीं रहा जवानों की पार्टी चल रही है?" मनोज बोले तो मुझ सहित सभी चौंककर उन्हें देखने लगे.
"अंकल, लेट हो जाएगें. वापस घर भी जाना है."
"चिंता मत करो, मैं छोड़ दूंगा सबको." मनोज फिर कमरे में जाकर टीवी के सामने जम गए थे. मैंने प्यार से उनकी प्लेट बनाई और कमरे में ही दे आई. बंटी के चेहरे से ख़ुशी और उत्साह छलका पड़ रहा था. तो मनोज मुझे बेहद शांत और संतुष्ट नज़र आ रहे थे.
बिस्तर पर लेटते ही मुझे नींद ने आ घेरा था. कह नहीं सकती दिनभर की थकान का असर था या बरसों बाद मिला सुकून, मुझे ख़ूब गहरी नींद आ गई थी. रात अचानक आंख खुली, तो मैं पानी पीने उठी. बंटी के कमरे से धीरे-धीरे बतियाने की आवाज़ आ रही थी. मैं कान लगाकर सुनने लगी.
"नहीं दीदी. सिर्फ़ बर्थडे थी, इसलिए नहीं… हम हमेशा से ही पापा को ग़लत समझते रहे, उन्हें हिटलर कहते रहे. पर मैं हमेशा महसूस करता था कि वे दिल ही दिल में हमसे बहुत जुड़ाव महसूस करते हैं. पता नहीं ऊपर से ही क्यों इतना कठोर और दूर-दूर बने रहते हैं? विशेषत: आपके हॉस्टल चले जाने के बाद तो मैंने उन्हें कई बार कमज़ोर पड़ते देखा है. वे बहाने से आपके कमरे में जाते है. आपकी चीज़ों को छूते हैं और फिर विकल होकर झटके से बाहर निकल आते हैं…"
मैं आगे नहीं सुन सकी. आंसुओं का सैलाब बाहर उमड़ने को व्याकुल हो उठा था. मैं दबे पांव आकर रजाई में घुस गई. रोकते-रोकते भी एक सिसकी निकल ही गई थी.
"बच्चों को फोन पर बात करते सुनकर आ रही हो?" मनोज का ठंडा स्वर गूंजा, तो मैं बुरी तरह चौंक उठी थी.
"आप जाग रहे हैं?"
"मैंने दोनों को पहले भी फोन पर इस तरह की बातें करते सुना है. क्या करूं? जानता हूं, ग़लत था. घर में जैसा देखा, वैसा ही करने लगा. बहुत तकलीफ़ों के दिन देखे हैं. सुना था ज़िंदगी इम्तिहान लेती है. लेकिन यहां तो इम्तिहानों ने पूरी ज़िंदगी ले ली. पर इधर मीनू के चले जाने के बाद मन अंदर से बहुत टूट सा गया है. कल को बंटी भी दूर पढ़ने चला जाएगा. हम मीनू की तरह उसे भी देखने तक को तरस जाएगें. समय ऐसी गाड़ी है, जिसमें न ब्रेक होता है, न रिवर्स गियर. इसलिए सोचता हूं, जब तक पास में है जी भरकर दुलार लूं. ताकि फिर दिल में वैसी कसक न रह जाए जेैसी मीनू को लेकर बार-बार उठती है. ज़िंदगी में हारना तब अच्छा लगता है, जब लड़ाई अपनों से हो. और जीतना तब अच्छा लगता है, जब लड़ाई अपने आप से हो. मैं समझ गया हूं कि पानी को कसकर पकडूंगा तो वो हाथ से छूट जाएगा. और बहने दूंगा, तो वो अपना रास्ता ख़ुद बना लेगा."
मैं अंदर तक भीग गई थी. बहुत अंदर तक तबाही मचाता है वो आंसू, जो आंख से बह नहीं पाता.

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"मीनू इतनी दूर भी नहीं गई है. हर छुट्टियों में आती तो है हमारे पास! जब जागो, तभी सवेरा. वैसे भी हमारे बच्चे बहुत समझदार है. बिना जताए भी आपके प्यार और केयर को समझते हैं. पर इस परिवर्तन से मैं बहुत ख़ुश हूं. ज़िंदगी में जितना एंजॉय का ग्राफ बढ़ाओगे, एंजियोग्राफी से उतने ही दूर रहोगे. हमारी आंखें इसीलिए तो सामने की ओर होती हैं, क्योंकि ज़िंदगी में पीछे मुड़कर देखने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है, आगे देखना. लोहा नरम होकर ओैजार बन जाता है. सोना नरम होकर जेवर बन जाता है. मिट्टी नरम होकर खेत बन जाती है. आटा नरम होकर रोटी बन जाता है. इंसान भी नरम हो जाए, तो लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेता है."
मैं भविष्य को लेकर बेहद आशान्वित हो उठी थी. मुझे निराश नहीं होना पड़ा.
मनोज का जन्मदिन आया. सवेरे से ही मुझे उनसे भी ज़्यादा बंटी उत्साहित लग रहा था. बहुत गर्मजोशी से उसने पापा को जन्मदिन की बधाई दी. फिर बाहर चला गया. लौटा तो उसके हाथ में मनोज की मनपसंद शुगरफ्री मिठाई और इंडिया टुडे का नवीनतम अंक था. "पापा, मैंने आपके नाम से इंडिया टुडे का दो साल का सब्सिक्रिप्शन करवा दिया है. अब आपकी मनपसंद पत्रिका आपको घर बैठे समय पर उपलब्ध हो जाएगी. और यह देखिए इस सब्सिक्रिप्शन पर यह मुफ़्त उपहार भी मिला है- डिजीटल डायरी!"
बाप-बेटा ख़ुशी-ख़ुशी डायरी के फंक्शन देखने लगे. तभी घंटी बजी, तो वह लपककर बाहर भागा.
"दीदी ने ऑनलाइन ऑर्डर से पापा के लिए बर्थडे केक भेजा है… मां, आप इधर पापा के पास आ जाइए… थोड़े फोटोज़ ले लूं. दीदी को भेजने हैं."
इससे अच्छे जन्मदिन की कल्पना मैं नहीं कर सकती थी.
"मां, पकौड़े बन गए क्या?" मीनू की पुकार सुनाई दी तो मेरी तंद्रा लौटी.
"आज तो मां के पकौड़े बीरबल की खिचड़ी हो गए हैं." यह बंटी का स्वर था.
'ओह, कड़ाही में पकौड़े तो एकदम करारे हो चुके हैं. बच्चे नहीं चिल्लाते तो जल ही जाते. मैं न जाने कितनी देर से ख़्यालों की दुनिया में खोई हुई थी.’ प्लेट में पकौड़े निकालकर मैं बाहर लेकर आई, तो बाहर का दृश्य देखने लायक था.
टीवी के सामने सोफे पर तीनों अधपसरे से बैठे थे. मनोज के एक तरफ़ मीनू तो दूसरी तरफ़ बंटी चिपका हुआ था. बीच में बैठे मनोज हाथ में रिमोट थामे न केवल टीवी चैनल्स को वरन दोनों बच्चों को भी कंट्रोल करने का प्रयास कर रहे थे. बंटी को क्रिकेट मैच देखना था, तो मीनू को डांस रियलिटी शो. मनोज ब्रेक के हिसाब से बारी-बारी से बदलकर दोनों की पसंद के प्रोग्राम चला रहे थे.
"यह क्या! आप तो इन्हीं की पसंद के प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं? आप न्यूज़ नहीं देखेगें?"
मनोज कुछ जवाब दे, इससे पूर्व ही बंटी उठ खड़ा हुआ. सामने रखे अख़बार को गोल-गोल मोड़कर उसने माइक बनाया ओैर मुंह के आगे लगाते हुए गंभीर मुद्रा में घोषणा करने लगा.
"आज की ब्रेकिंग न्यूज़- पापा बदल गए हैं…"
इसके साथ ही तीनों मुह फाड़कर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे. मैंने मौक़े का फ़ायदा उठाया और एक-एक पकौड़ा तीनों के मुंह में ठूंस दिया.

संगीता माथुर

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