पूरी रात वे ऐसे ही विचारों से घिरी जागती रहीं. उनका सिर दुखने लगा. आदि के आने पर इस बार वह उससे अवश्य ही बात करेंगी. इस निश्चय के साथ उन्होंने सोने का प्रयास किया.
इधर आदित्य राय का भी यही हाल था. वह रातभर जागते रहे व इलाहाबाद पहुंचने का बेसब्री से इंतज़ार करते रहे. आज उन्हें लग रहा था कि उन्होंने अपनी तीर्थयात्राओं के चलते अपनी वृद्धा मां की कितनी अवहेलना की है.
आदित्य राय एक धार्मिक व्यक्ति हैं. यद्यपि वह एक बड़ कंपनी में इंजीनियर हैं, परन्तु बचपन से ही उनका रूझान धार्मिक कर्म-कांडों में रहा है. पौराणिक कथाएं पढ़ना, सत्संग आदि में जाना उन्हें पसंद है. उनकी उम्र के बच्चे जब अंग्रेज़ी उपन्यासों के दीवाने बने होते, तब उस उम्र में वह रामायण आदि ग्रन्थों का रसास्वादन कर रहे होते. यही प्रवृत्ति उनकी अभी तक बनी है. पत्नी को भी उनके धार्मिक कार्यों से कोई विरोध नहीं था. वरन् यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि वह उन्हें प्रोत्साहित ही करती है.
चारों धाम की यात्रा तो दोनों जवानी के दिनों में ही कर आए हैं. बारह ज्योर्तिलिंग, गंगोत्री, यमुनोत्री, हरिद्वार, ऋषिकेश तथा वैष्णोदेवी के दरबार में कई बार दर्शन कर आए हैं. इस समय भी वह वैष्णोदेवी के दर्शन करके ही लौट रहे हैं. साल में एक बार वह वहां अवश्य जाते हैं. घर पर उनकी वृद्धा मां है, जिन्हें वह अपनी विश्वस्त बसंती की देखरेख में छोड़ आए हैं.
आदित्य राय ट्रेन की बर्थ पर लेटे हैं. इस बार घर लौटते हुए उनका मन बड़ा व्याकुल-सा हो रहा है. बार-बार उन्हें अपनी मां की याद आ रही है. देवी मां के मंदिर में भी अपनी वृद्धा मां का चेहरा बार-बार उनके सामने आ रहा था. चारों तरफ़ मां दुर्गाजी के स्थान पर उन्हें अपनी वृद्धा असहाय हो चली मां का चेहरा दिखाई दे रहा था.
“यह क्या हो रहा है?” वह बार-बार अपनी आंखें मल-मल कर देखते, पर मां का चेहरा सामने से हटता ही न था. पत्नी से भी वह अपने मन की दुविधा नहीं बता पा रहेे हैं.
आदित्य राय ट्रेन की बर्थ पर लेटे अवश्य हैं, पर न तो उनकी आंखों में नींद है, न दिल में चैन.
वह अपनी तीर्थयात्राओं का विश्लेषण करते-करते अतीत में खोते जा रहे हैं. उन्हें अपना अतीत चलचित्र की तरह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है. दिखाई पड़ रहा है कि कैसे एक तीर्थ यात्रा पर पंडों ने उन्हें स्टेशन से ही घेर लिया था और तब तक नहीं छोड़ा था, जब तक उनकी जेब का एक-एक पैसा उन्होंने चढ़ावे में नहीं चढ़वा लिया था. उसके बाद कैसे वह अपनी पत्नी के साथ घर लौटे थे, यह बात याद करके आज भी उनके रोंगटे खड़े हो रहे थे.
इस सबके बाद भी उनका धार्मिक मन उन्हें फिर से एक नई यात्रा पर ले जाता था. वहां भी वही लूट-खसोट. क्या करे आदित्य राय? क्या अपने द्वारा किए गए सब धर्म-कर्म को नकार दें? आज तक वह जो करते रहे क्या सब ग़लत था?
“मां ठीक तो होंगी?” इस बार उनका मन कांप-कांप जा रहा है. इसी कारण जम्मू से इलाहाबाद का लंबा सफ़र उन्हें और भी लंबा लग रहा है.
आदित्य राय की मां शारदा देवी एक वृद्ध महिला हैं. अपने इकलौते बेटे आदित्य को वह बचपन से ही आदि कहकर पुकारती हैं. बचपन से ही वह धार्मिक प्रवृत्ति का है यह बात उन्हें अच्छी तरह मालूम है. तीर्थों पर जाना उसे प्रिय है, लेकिन कभी-कभी उसका यह जुनून उन्हें अखरता है.
“अच्छे कार्य में मैं बाधक क्यों बनूं.” यही विचार उन्हें आदि को कुछ कहने से रोकता रहा है. बसंती की देखरेख से वह सन्तुष्ट कहां हो पाती हैं? बच्चे लौटनेवाले हैं, यही विचार उन्हें आनंदित कर रहा है.
बसंती उनके पलंग के पास ही गहरी नींद में सोई है. शारदा देवी की आंखों से नींद गायब हो गई है. अतीत की अनेक यादें उन्हें बार-बार झकझोर रही हैं.
याद आया उन्हें अपना बचपन, जब दस वर्ष की आयु में, उनकी मां की मृतदेह पृथ्वी पर पड़ी है. याद आई पिता की दूसरी पत्नी, जिन्होंने पहले ही परिचय में उन्हें अपनी गोद से धकेल दिया था. याद आए विमाता के अत्याचार, जो उन्होंने उस नन्हीं-सी जान पर किए थे.
सौतेले भाई-बहनों के पालन-पोषण में मां की सहायता करते हुए कब वह बड़ी हो गई, यह बात तो उन्हें अब याद भी नहीं है. गुड़ियों से खेलने की आयु में कलछुल व चिमटा उनके हाथ में आ गया था. अपनी यूनिफॉर्म के स्थान पर भाई-बहनों की यूनिफॉर्म धोना व प्रेस करना उनका नित्य का कार्य था. भाई-बहनों का विवाह करते हुए मां-पापा को कभी उनके विवाह का ख़्याल आया हो ऐसा उन्होंने कभी भी महसूस नहीं किया. कभी-कभी पापा अवश्य कहते थे कि “अपनी शारदा का विवाह पहले कर देते तो?” मां आग्नेय दृष्टि से पापा को देखकर कहती, ”इस अनपढ़-गंवार को कौन पसन्द करेगा? जब इसके योग्य कोई मिलेगा तब इसे भी पार लगा देंगे.”
जब मुझ अनपढ़-गंवार के लिए आदि के विधुर दो बच्चों के पिता का रिश्ता आया, तो पापा ने बिना आगा-पीछा सोचे, तुरंत ही विवाह करके गंगा नहा लिया. मां को अवश्य ही मुफ़्त की नौकरानी खोने का दुख था, परंतु इस बार वह भी चुप ही रहीं.
अपने पति की पूर्व पत्नी के अनदेखे बच्चों को अपनाने व मां का प्यार देने का संकल्प लेकर पच्चीस वर्षीया शारदा देवी ने ससुराल में पहला कदम रखा. जहां न सास थी, न ननद, जो आरती करके उनका गृहप्रवेश कराती. वहां थे तो दो छोटे-छोटे बच्चे, जो कौतूहल से उन्हें निहार रहे थे. दस वर्षीया बेटी व बारह वर्षीय बेटे को देखकर उन्हें अपना बचपन याद आया, जो उनकी आंखें नम कर गया. दोनों बच्चों को उन्होंने सीने से लगा लिया. बेटी राधा तो उनके सीने से चिपक गई, लेकिन बेटा राहुल कुछ दूर खड़ा रहा. राहुल ने जो दूरी उस दिन बनाई थी वह दूरी उसने हमेशा बनाए रखी. राधा हमेशा ही उनके क़रीब रही. उसने कभी भी किसी से नहीं कहा कि यह मेरी जन्मदात्री नहीं हैं.
पति शिवकुमार शारदाजी से बीस वर्ष बड़े थे. अतः विचारों का तालमेल कम ही था. बच्चों को मां का प्यार मिले, इसीलिए उन्होंने पुर्नविवाह किया था. जब उन्हें लगने लगा कि वह उनकी कसौटी पर खरी उतरी हैं, तब वह बच्चों की तरफ़ से निश्चिंत होकर अपने व्यापार व दोस्तों को अधिक समय देने लगे. शारदाजी से तो उनका अंतरंग रिश्ता बन ही नहीं पाया. आदि के जन्म पर भी उन्हें विशेष प्रसन्नता हुई हो ऐसा उन्होंने महसूस नहीं किया.
समय बीतता गया. राधा डॉक्टर बनकर अपने डॉक्टर पति के साथ विदेश में जा बसी. राहुल भी अपने परिवार के साथ अलग घर लेकर रहने लगा.
किशोर आदि, अधेड़ शारदाजी एवं वृद्ध चिड़चिड़े व बीमार शिवकुमार बस यही तीन प्राणी बचे थे इस परिवार में. शारदाजी को पति की सेवा एवं घर-गृहस्थी के कामों के बाद जो समय मिलता वह सत्संग आदि में जाकर व्यतीत करती. कक्षा छह-सात तक पढ़ी शारदाजी धार्मिक पुस्तकें पढ़कर अपना खाली समय बिताती. आदि भी उनकी परछाई बना उनके साथ-साथ लगा रहता. वह मां की भांति ही धार्मिक प्रवृत्ति का बनता चला गया.
सिगरेट व शराब की बदबू ने उसे कभी भी अपने पिता के क़रीब नहीं जाने दिया. उस समय शारदाजी को अपने पुत्र की धार्मिक सोच पर गर्व ही होता था. उन्हें इस बात से प्रसन्नता होती कि उनका जवान होता हुआ बेटा बुरी लतों से बचा हुआ है, वरना अपने पिता के संग पैग टकराने में भला उसे क्या देर लगती?
आदि की गृहस्थी बसने से पहले ही उसके पिता स्वर्गवासी हो चुके थे. उस समय शारदाजी ने पुत्र की शिक्षा ही पूरी नहीं कराई वरन् एक कुलीन लड़की से उसका विवाह भी करवाया. यह सब करते-करते वह खोखली हो चुकी थी.
उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था. उन्हें सेवा व इलाज की सख़्त आवश्यकता थी. प्रायः ही उन्हें अपने सीने में दर्द महसूस होता. वह चाहती थी कि अपनी बीमारी के बारे में आदि को बताएं. डॉक्टर को दिखाने को कहें. ऐसी परिस्थिति में आदि का यूं तीर्थों पर जाना उन्हें धन और समय का अपव्यय ही लगता.
इस बार आदि के लौटने पर वे उससे स्पष्ट बात करना चाहती थीं. वह चाहती थीं कि आदि को अपने पास बुलाएं और बैठाकर समझाएं कि ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ चाहें उसका उद्देश्य कितना ही अच्छा क्यों न हो. वह यह भी चाहती थीं कि आदि से कहें कि अब कुछ धन का संचय करें, जिससे उसका भविष्य भी सुरक्षित हो. उनकी वृद्धावस्था पैसे की मांग कर रही है.
कभी-कभी उन्हें बसन्ती पर बड़ी दया आती. उसकी बेटी की पढ़ाई बीच में छूट गई, क्योंकि उसके पास फीस के पैसे नहीं थे. वह चाहती थी कि आदि से कहकर उसकी बेटी की पढ़ाई पुनः शुरू कराएं, वरना पैसे के अभाव में एक मेधावी लड़की गुमनामियों के अंधेरे में गुम हो जाएगी.
पूरी रात वे ऐसे ही विचारों से घिरी जागती रहीं. उनका सिर दुखने लगा. आदि के आने पर इस बार वह उससे अवश्य ही बात करेंगी. इस निश्चय के साथ उन्होंने सोने का प्रयास किया.
इधर आदित्य राय का भी यही हाल था. वह रातभर जागते रहे व इलाहाबाद पहुंचने का बेसब्री से इंतज़ार करते रहे. आज उन्हें लग रहा था कि उन्होंने अपनी तीर्थयात्राओं के चलते अपनी वृद्धा मां की कितनी अवहेलना की है.
'इस अवस्था में उन्हें मेरी आवश्यकता है. यह मैंने कभी सोचा क्यों नहीं? अपनी पूजा-पाठ के कारण अपने बच्चों के प्रति भी अपना कर्त्तव्य ठीक से कहां निभा पाया? न अच्छा पिता बन सका न बेटा.' उन्हें अपने धार्मिक प्रवृत्ति आज अर्थहीन लगने लगी. वह ग्लानि से भर उठे.
'जीवित मां को अकेले छोड़कर पत्थर की मूर्तियों के पीछे भटक रहा हूं. क्या हो गया है मुझे?'
इलाहाबाद पहुंचने पर सुबह हो चुकी थी. घर में ताला लगा देख दोनों का दिल धक् से रह गया. पड़ोसियों ने बताया कि शारदाजी को सुबह चार बजे दिल का दौरा पड़ा है. पड़ोसी ही उन्हें अस्पताल लेकर गए. वह आईसीयू में भर्ती हैं.
अस्पताल पहुंचकर जब आदित्य ने मां की गंभीर स्थिति देखी, तो उनके पैरों तले की ज़मीन खिसक गई. डॉक्टर ने बताया कि अत्यधिक तनाव के कारण दिल का दौरा पड़ा है. कब तक होश आएगा? यह भी डॉक्टर नहीं बता पा रहे थे?
तीन दिन तक जब तक मां होश में नहीं आ गई. आदित्य राय मां का हाथ पकड़े, बिना कुछ खाए-पीए उनके पलंग से सटे बैठे रहे. पत्नी को उन्होंने घर भेज दिया. इन तीन दिनों में उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी का मंथन कर डाला.
'मेरी मां जिन्हें कभी प्यार नहीं मिला, जीवन के अंतिम दिनों में मुझसे बस थोड़े से प्यार व भावनात्मक संबल की आवश्यकता थी. वह ही मैं उन्हें नहीं दे पाया. कैसा बेटा हूं मैं?' यही ग्लानि बार-बार उनकी आंखें नम किए दे रही थी.
उन्हें इस बात का अत्याधिक अफ़सोस था कि वह इतनी सी बात क्यों नहीं समझ पाए कि जिस मां ने उन्हें जन्म दिया है उनकी सेवा करना क्या किसी तीर्थ से कम है. असली चारों धाम तो मां के चरणों के नीचे है. वह यह भी कहां समझ पाए कि सच्चे मन से जहां भी ईश्वर का स्मरण किया जाए वही स्थान तीर्थस्थान बन जाता है.
"अभी तक मैं भटक ही तो रहा था. खोने-पाने का विश्लेषण करूं, तो मैंने खोया ही अधिक है. मां, मैं अपनी सब भूल सुधार लूंगा.” लेकिन शारदाजी की तन्द्रा तो टूट ही नहीं रही थी. क्या करे आदित्य राय?
तीन दिन बाद शारदाजी ने आंखें खोलीं. उनकी सांसें सामान्य हो चली थी. मास्क उतार दिया गया था. डॉक्टर ने उन्हें ख़तरे से बाहर घोषित कर दिया था. आदित्य राय प्रसन्नता के कारण रो पड़े.
शारदाजी ने बड़े प्यार से बेटे को निहारा. पश्चाताप की आग में जल रहे बेटे के सिर पर उन्होंने ममता का हाथ रख दिया. उस क्षण आदित्य राय को लगा मानो मां ने उनके सारे अपराध क्षमा कर दिए दिए हैं.
- मृदुला गुप्ता
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