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कहानी- भोगा हुआ सच (Short Story- Bhoga Huwa Sach)

वंशी के व्यावहारिक ज्ञान के सामने निशा की कल्पनाएं बौनी हो गई थीं. वंशी ने जो कुछ बताया वह भोगा हुआ सच था. अपने अनुभव की पुनरावृत्ति वह अपनी बेटी के साथ नहीं चाहती थी. तभी समझौतावादी बन कर मुन्नी को पिता की छत्रछाया दे दी थी उसने. आत्मनिर्भर होकर भी बहादुर जैसे पति के साथ निर्वाह करना आसान काम नहीं था.

कॉलबेल की आवाज़ सुनकर वंशी ने दरवाज़ा खोला. सामने राजेश को खड़ा देखकर बुरा सा मुंह बनाया और 'नमस्ते' करके वह अंदर चली गई, राजेश ड्रॉइंगरूम से होता हुआ बिना हिचके सीधे बेडरूम में आ गया. बेड पर कंबल ओढ़कर निशा लेटी हुई थी. राजेश को देखकर निशा के चेहरे पर मुस्कान खिल गई. उठने की कोशिश करते हुए बोली, "आज जल्दी कैसे चले आए?"
"शोरूम में मि. गुप्ता मिले थे. उन्हीं से पता चला तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है." चिंतित होते हुए राजेश बोले..
"चिंता की कोई बात नहीं, मौसम बदलने के कारण थोड़ी हरारत हो गयी है बस."
"थैंक गॉड, मैं तो घबरा ही गया था." राजेश ने निशा का हाथ अपने हाथ में लिया. तभी वंशी दो कप चाय लेकर बेडरूम में आ गई. निशा ने राजेश के हाथों से अपना हाथ छुड़ा लिया, वंशी के चेहरे के भाव देखकर निशा समझ गई कि राजेश का इस तरह सीधे बेडरूम में आना उसे अच्छा नहीं लगा,
एक घंटे तक बातचीत करने के बाद निशा को ज़रूरी हिदायत देकर राजेश चले गए. उनके जाते ही वंशी बेडरूम में आकर बोली, "एक बात कहूं मेमसाब."
"हां कहो."
"ये राजेश साहब हमें बिल्कुल अच्छे नहीं लगते, देखो तो कैसे सीधे अंदर बेडरूम तक चले आए." वंशी ने दिल का गुबार निकाला.
"क्या बुराई दिख गई तुझे राजेश में, अच्छा-भला सभ्य आदमी तो है."
निशा ने राजेश का पक्ष लिया.
"आप कुछ भी कहो, आपके सभी दोस्तों में हमें पीयूष साहब ही सबसे अच्छे लगते हैं." बहुत दिनों से दिल में दबी बात कह ही दी वंशी ने.
पीयूष का नाम सुनकर निशा गंभीर हो गई. वर्तमान से अतीत में उतरते हुए निशा बीती ज़िंदगी याद करने लगी… पीयूष से उसका विवाह परंपरागत तरीक़े से क़रीब दस वर्ष पूर्व हुआ था. निशा के आधुनिक कहे जाने वाले मायके की तुलना में पीयूष का परिवार पिछड़ा हुआ था. विचारों एवं संस्कारों के अंतर के कारण निशा की ससुराल में निभ न सकी. पीयूष ने निशा को बहुत समझाया, पर कोई फ़ायदा न हुआ. हारकर भाग्य से समझौता करना ही पीयूष ने उचित समझा और निशा के साथ उसी शहर में परिवार से अलग एक फ्लैट लेकर रहने लगा. निशा के मायके वालों की ज़रूरत से ज़्यादा दख़लअंदाज़ी के कारण निशा पीयूष से भी सामंजस्य न बिठा सकी. तभी निशा की गोद में ध्रुवता आ गई. पीयूष को एक आशा की किरण दिखाई दी. दो बरस ध्रुवता को बड़ा करने में घिसट-घिसट कर गुज़र गए. पीयूष को लगा अब सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन यह उसका भ्रम मात्र था. कुछ समय के लिए निशा ने समय एवं परिस्थितियों के साथ समझौता तो कर लिया, लेकिन गुज़रते वक़्त के साथ वह फिर समझौता छोड़कर हक़ीक़त में आ गई थी.
जल्द ही ध्रुवता को आया के सुपुर्द कर निशा नौकरी करने लगी. पीयूष का सब्र अब टूटने लगा व मतभेदों के गलियारे चौडे होने लगे. दुनिया का मुंह बंद करने के लिए उसने अपना तबादला कानपुर करवा लिया और ध्रुवता को लेकर निशा यहां आ गई.
बिना दांवपेंच और एक-दूसरे पर लांछन लगाए पीयूष व निशा एक अदृश्य तलाक़ को स्वीकार कर चुके थे. दो माह में एक बार पीयूष ध्रुवता से मिलने आते, उसे दिन भर अपने साथ घुमाते व रात होटल में गुज़ार कर वापस चले जाते. निशा ने कभी पीयूष से घर पर रुकने का आग्रह नहीं किया. संकोचवश पीयूष भी निशा के घर पर अपना अधिकार नहीं जतला पाए. उन दोनों के बीच मात्र औपचारिक बातें होतीं, वह भी ध्रुवता को लेकर.
वंशी को पीयूष का आना बहुत अच्छा लगता. पिछले छह सालों से पीयूष ध्रुवता के प्रति अपना कर्तव्य नियमित तरीक़े से निभा रहे थे. पापा के आने पर ध्रुवता के चेहरे से ख़ुशी का अतिरेक छलकने लगता. वह पापा के बारे में वंशी से ढेर सारी बातें करती, पर निशा से कुछ न कहती. अलग-अलग रहने वाले मां-पिता के बच्चे वक़्त से पहले ही बहुत समझवार हो जाते हैं. आठ वर्ष की ध्रुवता से मिलकर कोई भी अपनी यह राय कायम कर सकता था,
निशा के खुले व्यवहार एवं आधुनिक होने के कारण नए शहर में निशा के स्त्री मित्रों के अलावा पुरुष मित्रों की भी कमी न थी. उसकी सुंदरता से आकर्षित होकर कई पुरुषों ने निशा की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था.नेपाली मूल की वंशी ने जब से निशा के घर का काम संभाला, तब से ध्रुवता की ओर से निशा निश्चिंत हो गई थी. सारा दिन वंशी निशा का घर संभालती तथा शाम ढले अपने परिवार के पास लौट आती. अतीत के गलियारे में घूमती निशा को वर्तमान में लौटाते हुए वंशी बोली, "मेमसाब, खाना बनाकर रख दिया है, खा लेना. ध्रुवता को मैंने सब समझा दिया है. अब मैं जाती हूं."
"सुबह जल्दी आ जाना, ध्रुवता का नाश्ता भी तुम्हें ही तैयार करना है." निशा बोली.
"आप बिल्कुल चिंता मत करना. मुझे मालूम है." कहकर वंशी चली गई.
निशा के दोस्त और शुभचिंतक देर रात तक फोन पर उसकी कुशलता पूछते रहे. लगभग छह वर्षों में यहां निशा के पुरुष मित्रो में बैंक मैनेजर मि. गुप्ता, प्रोफेसर डॉ. दिनेश और राजेश प्रमुख थे. मि. गुप्ता और प्रोफेसर दिनेश उससे काफ़ी बड़े होने के बावजूद निशा के साथ अपने को जवान दिखाने का भरसक प्रयास करते.
राजेश निशा का हमउम्र ही था. अविवाहित राजेश का अपना इलेक्ट्रॉनिक्स का शोरूम था. निशा से उसकी मुलाक़ात शोरूम में ही हुई थी. फिर छोटी-छोटी मुलाक़ातें कालांतर में दोस्ती में बदल गई और दोस्ती अंतरगता में. वंशी जानती थी कि निशा और राजेश एक-दूसरे के बहुत क़रीब है, निशा भी वंशी के सामने राजेश के
साथ अपने संबंधों को लेकर कभी दुराव-छिपाव न करती, एकांत के क्षणों में राजेश के प्रति आकर्षण को रोकना निशा के लिए कठिन हो जाता. ध्रुवता की खातिर निशा ने पीयूष से विधिवत् तलाक़ नहीं लिया था.
"कैसी तबियत है आपकी?" दूसरे दिन वंशी ने आते ही पूछा.
"आज कुछ बेहतर है."
"कहो तो साहब को ख़बर कर दूं."
"नहीं रहने दो, राजेश है ना, वही देख लेगा?" वंशी की इच्छा को नज़रअंदाज़ कर दिया निशा ने.
"ये राजेश साहब एक दिन आपको ज़रूर धोखा देगा, देख लेना."
वंशी राजेश के प्रति निशा के झुकाव से कुढ़कर अनायास ही बोल पड़ी.
"क्या बकवास कर रही हो? बिना सोचे जो मुंह में आता है बोल देती हो." निशा ने वंशी को झिड़का.
डांट खाकर वंशी चुपचाप किचन में जाकर काम करने लगी.
एक अनपढ़ गंवार औरत के मुंह से राजेश के लिए अपशब्द निशा को बहुत बुरे लगे,
कितना ख़्याल रखता है राजेश उसका. ध्रुवता के कारण वह ख़ुद ही तो उसकी ओर कदम नहीं बढ़ा पा रही है, नहीं तो राजेश उसे कब का अपना लेता.
ध्रुवता का ख़्याल आते ही निशा कल्पनाओं को छोड़कर यथार्थ के धरातल पर आ गई और उसके आगे पीयूष का चेहरा घूम गया.
"कितना प्यार करता है पीयूष ध्रुवता को. क्या कोई और व्यक्ति उसे पिता का प्यार दे सकता है?.. मन की गहराई से आवाज़ उठी 'नहीं'…
तभी मुंह फुलाए चाय का प्याला लिए वंशी आ गई. वंशी का ग़ुस्सा दूर करने के लिए निशा ने ही बात छेड़ी, "तूने किसी से कभी प्यार किया है?"
वंशी ने गौर से निशा को देखा जैसे जताना चाहती हो कि प्यार जैसा शब्द उसके लिए अजनबी नहीं, वह रुखाई से बोली, "हां."
"क्या? बहादुर से तेरी लव मैरिज है." निशा ने आश्चर्य से पूछा. निशा को अपने में रुचि लेते देखकर वंशी की नाराज़गी कम हो गई. वह सामान्य होकर बोली, "बहादुर से मेरी शादी नहीं हुई, उसके साथ तो में भागकर आई हूं." निशा की उत्सुकता वंशी में बढ़ने लगी. निशा की भावनाओं को जानकर वंशी अपनी चाय भी बेडरूम में ले आई और आराम से फ़र्श पर पसरकर बोली, "यह मेरा तीसरा मरद है मेमसाब. मरद बदलकर भी देख लिया, सब एक जैसे होते हैं, कोई अंतर नहीं. मुन्नी के पैदा होते ही मैंने फ़ैसला कर लिया, अब मरद नहीं बदलूंगी."
निशा का मुख खुला का खुला ही रह गया. वंशी कुछ मिनट पहले तक उसे गंवार दिख रही थी. पुरुषों के बारे में उसके अनुभव एवं राय जानकर एकाएक निशा की नज़र में अनुभवी हो गई थी वंशी.
निशा ने हिम्मत कर पूछा, "पहले दो मरदों को क्यों छोड़ा तूने?"
"पहले वाले ने मुझे छोड़ दिया. वह अपनी भाभी के साथ भाग गया था. मैं भी पड़ोस में रहने वाले रमन्ना के साथ चली गई. वो मजदूरी करता था. उसके साथ मैं दो साल तक रही. मेरा मनु उसी का बेटा है. वह बड़ा बेरहम था मेमसाब…" एक लंबी सांस खीचकर वंशी बोली.
तभी घड़ी ने बारह बजने की सूचना दी. बात अधूरी छोड़कर वंशी उठ गई.
"मैं ध्रुवता को लेने स्कूल जा रही हूं." निशा की दिलचस्पी वंशी की आपबीती में बढ़ती जा रही थी. चाह कर भी वह वंशी को न रोक सकी. मोटे नाक-नक्श, सांवली व दोहरी देह वाली वंशी को निशा ध्यान से जाते हुए देखती रही और सोचने लगी, 'जीवन के प्रति वंशी का नज़रिया कितना साफ़ एवं यथार्थ है. उसने जो कुछ भोगा उससे कितनी जल्दी निष्कर्ष निकाल लिया कि औरत भोग्या है. उसे कोई भी भोगे क्या फ़र्क़ पड़ता है?'
शाम को निशा की कुशलता जानने के लिए राजेश आए थे. निशा का माथा छूकर बोले, "आज तो तुम कल से बेहतर लग रही हो."
"हां, आज काफ़ी ठीक हूं." फिर वह कुछ सोचकर बोली, "राजेश, मैं सोच रही हूं पीयूष से तलाक़ ले लूं."
"अचानक तुम्हें तलाक़ का ख़्याल कैसे आ गया?" राजेश ने चौंककर पूछा.
"मैं चाहती हूं तुमसे शादी कर लूं." निशा ने साफ़ लफ़्ज़ों में अपनी बात राजेश के सामने रख दी.
"और ध्रुवता, क्या वह मुझे अपना पिता स्वीकार कर सकेगी?" राजेश ने पूछा.
"ध्रुवता की छोड़ो, तुम तो उसे बेटी मानने के लिए तैयार हो ना?"
"हां-हां, क्यों नहीं." राजेश अचकचाकर बोले.
"पहले तुम ठीक हो जाओ, इस विषय पर बाद में इत्मिनान से बात करेंगे." कुछ देर इधर-उधर की बात करके आज राजेश समय से पहले ही चले गए.
निशा ने महसूस किया कि ध्रुवता को अपनाने में राजेश को हिचक हो रही थी, तभी उसे ख़्याल आया कि शादी के बारे में भी उसने स्पष्ट कुछ नहीं कहा. सिर्फ़ बातों का रुख ध्रुवता की ओर मोड़ दिया.
निशा की आंखों में वंशी का चेहरा घूम गया. अतीत की यादों और भविष्य की कल्पना से दूर वर्तमान को स्वीकार करती हुई, उसकी नज़र में, मर्द औरत के दिशाहीन भटकाव को रोकने के लिए एक रुकावट मात्र है. शादी और पति का लेबल लगा होने से औरत की ओर नज़र उठाने का साहस हर कोई नहीं कर सकता. लेबल के हट जाने पर बिकाऊ वस्तु की तरह कोई भी उसे उलट-पुलट कर मात्र देखना चाहता है.
वंशी की पुरुषों के बारे में धारणा इतनी सटीक होगी, इसकी तो निशा ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. अनायास ही वह वंशी का अतीत जानने के लिए बेचैन हो उठी.
दूसरे दिन वंशी के आते ही उसे अपने पास बिठाकर निशा ने पूछा, "तुझे कभी रमन्ना की याद नहीं आती?"
"याद करके क्या करूंगी? आया था पिछले बरस मुझे साथ ले जाने के लिए. कहता था, तेरे जाने के बाद जो औरत मैंने रखी थी, वह भी भाग गई. तू मेरे साथ चल. मैंने तो साफ़ मना कर दिया. मैं बहादुर को नहीं छोड़ सकती, फिर मेरे घर मत आना." वंशी ने सपाट उत्तर दिया.
निशा का ध्यान बरबस बहादुर पर अटका था. वह उसकी प्रतिक्रिया जानना चाहती थी. वंशी की बातों को बहादुर पर केन्द्रित करके बोली, "बहादुर ने रमन्ना को कुछ नहीं कहा?"
"क्या कहता? वह भी तो मुझे रमन्ना की मारपीट से बचाने के लिए अपने साथ भगा लाया था. तब मुन्नी मेरे पेट में थी. बहादुर से मुझे कोई भी बच्चा नहीं हुआ."
"तो क्या वह तेरे बच्ची को प्यार करता है?" निशा ने उत्सुकतावश पूछा.
"हां, बहुत प्यार करता है, फिर भी मर्द जात का क्या भरोसा? मैं मुन्नी को बहादुर के साथ कभी अकेला नहीं छोडती." वंशी ने उत्तर दिया.
निशा मानो आकाश से गिर पड़ी. अपनी मनमानी और अरमानों को पूरा करने के लिए उसने ध्रुवता के बारे में कभी इतनी गंभीरता से सोचा ही नहीं.
वंशी के व्यावहारिक ज्ञान के सामने निशा की कल्पनाएं बौनी हो गई थीं. वंशी ने जो कुछ बताया वह भोगा हुआ सच था. अपने अनुभव की पुनरावृत्ति वह अपनी बेटी के साथ नहीं चाहती थी. तभी समझौतावादी बन कर मुन्नी को पिता की छत्रछाया दे दी थी उसने. आत्मनिर्भर होकर भी बहादुर जैसे पति के साथ निर्वाह करना आसान काम नहीं था.
निशा के सामने पीयूष का चेहरा घूमने लगा. पिछले कुछ वर्षों से प्रौढ़ता झलकने लगी थी उसके मुख पर. पीयूष के साथ किए व्यवहार पर निशा को पछतावा होने लगा. आधुनिकता के दिखावे में वह कितनी स्वार्थी हो गई थी, सोचकर निशा की आंखें पश्चाताप से डबडबा गईं. उसने गौर से वंशी को देखा, पहले की तरह वह अपने काम में व्यस्त थी.
निशा ने इस बार छुट्टियों में वापस पीयूष के पास जाने का मन बना लिया. निशा को सामान बांधते देख वंशी बोली, "अबकी बार छुट्टियां पीयूष साहब के पास बिताना मेमसाब. ध्रुवता बेबी बहुत ख़ुश होगी."
वंशी के प्रस्ताव से निशा के अपने इरादे को और सहारा मिल गया.
"ठीक है." वह बोली,
"सच मेमसाब अब कभी यहां लौटकर मत आना. मेरे काम की चिंता भी मत करना. मैं कोई दूसरा घर ढूंढ़ लूंगी. ध्रुवता बेबी को अब पापा मिल जाएंगे, हमेशा के लिए अपने असली पापा." वंशी ख़ुशी से उछल पड़ी. वंशी का उत्साह देखकर निशा भी खिलखिला पड़ी.
"तूने मेरी आंखें खोल दीं वंशी. ध्रुवता का बचपन बीतने में अभी समय है. उसके ढलने से पहले मुझे उसे संवारने का मौक़ा मिल गया तेरे अनुभव से. यह कम है क्या?"

- डॉ. के. रानी

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