"तमीज़ बिल्कुल नहीं है. हर समय ही ही ही, ऐसे ही शादी में खींसे निपोरती रही. अरे, पहली बार सास-ससुर आए हैं. साड़ी ना सही, सूट तो पहन सकती है. शशि की बहू भी तो नौकरी करती है. हर दिन पैर छूकर जाती है. ऐसे नहीं बाय पापा… बाय मम्मा…"
"हम लोग ऑफिस के लिए निकल रहे हैं पापा! शाम को मिलते हैं."अनुराग बैग उठाते हुए बोला.
"अरे, इतनी जल्दी?और नाश्ता?" इनको आश्चर्य हुआ.
"इतनी सुबह कुछ खाने का मन नहीं करता पापा. हम लोग नाश्ता-खाना सब ले जाते हैं. आपका नाश्ता डायनिंग टेबल पर है… और मम्मा आपका नीले कैसरोल में, बिना लहसुन-प्याज़ का… बाय…" बहू शिखा मुस्कुराते हुए चली गई.
"बड़ी हंसमुख बच्ची है." ये दरवाज़ा बंद करते हुए बोले.
मैं फट पड़ी, "तमीज़ बिल्कुल नहीं है. हर समय ही ही ही, ऐसे ही शादी में खींसे निपोरती रही. अरे, पहली बार सास-ससुर आए हैं. साड़ी ना सही, सूट तो पहन सकती है. शशि की बहू भी तो नौकरी करती है. हर दिन पैर छूकर जाती है. ऐसे नहीं बाय पापा… बाय मम्मा…"
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"ओफ्फो! सब तो कर रही है. ठीक है… तुलना मत किया करो. जब से आई हो मुंह बनाए बैठी हो. पता था ये सब होगा, इसीलिए दो टिकट कराई हैं… एक इस मंगलवार की, एक अगले की… देख लेना जैसा मन करे." ये बड़बड़ाते रहे.
मुझे तो आश्चर्य होता था कि शिखा हम लोगों के साथ इतनी सहज कैसे हो जाती थी?.. मोबाइल फोन से चुटकुले पढ़कर सुनाना, इनके साथ टहलने जाना और मेरा हाथ पकड़कर बच्चों की तरह ज़िद करना, "मम्मा, प्लीज़ कुछ दिन और रुक जाइए…" वैसे घर का माहौल अच्छा लगता था. कभी-कभी ग़ुस्सा भी आ जाता था. इतवार को सुबह उठते ही मेरे पास आई, "आज ये लोग तो मैच देखेंगे. हम दोनों कहीं घूमने चलें?"
घर से तो मैं बिना मन के निकली थी, लेकिन थोड़ी देर में ही मेरा चेहरा खिल गया. सबसे पहले फिल्म देखी, फिर मेरा मनपसंद खाना खाया, शाम को चौपाटी, लहरों के साथ मस्ती, चाट-पकौड़ी… हम दोनों भाग रहे थे, हंस रहे थे… शायद कई सालों बाद मैं इतनी ख़ुश हुई.
"आज तो तुम लोग ख़ूब घूम आई. थक गई होगी. कल अटैची लगा लेना… परसों निकलना है ना…" इन्होंने याद दिलाया.
मैं एकदम से बुझ गई. इतनी जल्दी आ गया मंगलवार?क्या करू़ अब?
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मैंने धीरे से कहा, "आज शशि से बात हुई थी. बता रही थी कानपुर में अभी गर्मी कम नहीं हुई है. यहां का मौसम बढ़िया है, तो परसों रहने दीजिए… अगले मंगलवार को निकलते हैं!"
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