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कहानी- बस ऐसे ही (Short Story- Bas Aise Hi)

“नहीं दोस्तों, सच तो यह है कि हम सबसे अद्भुत और सबसे समझदार पीढ़ी हैं. हम वो अंतिम पीढ़ी हैं, जो अपने से बड़ों की सुनते हैं और साथ ही हम ही वो पहली पीढ़ी हेैं, जो अपने बच्चों की सुनते हैैं. माना हम कोई बहुत विशिष्ट भी नहीं हैं, पर हमें भगवान का विशेष आशीर्वाद प्राप्त है. हम बहुत ही सीमित और दुर्लभ पीढ़ी हैं, जो जनरेशन गैप का आनंद उठा रही है.” प्रोफेसर साहब के जोश से ओतप्रोत वक्तव्य ने हम सबमें ज़िंदगी जीने की नई ऊर्जा भर दी थी.

इन्द्रा कॉलोनी में शिफ्ट होने के बाद यहां शादी जैसे किसी बड़े सार्वजनिक समारोह में सम्मिलित होने का यह मेरा पहला अवसर था. लगभग पूरी सोसायटी ही आमंत्रित थी. मेरी बमुश्किल तीन-चार लोगों से पहले भेंट हो चुकी थी, वह भी सर्वथा औपचारिक. इसलिए सभी से औपचारिक अभिवादन और परिचय के बाद मैं पुरूषों के एक समूह में मूक दर्शक की भांति खड़ा हो गया था. हम पुरूष वैसे भी गपशप के मामले में स्त्रियों से काफी पीछे है. और जब स्वादेन्द्रिय सहित पूरा मुंह ही बंद हो, तो घ्राणेन्द्रिय, श्रवणेन्द्रिय, दर्शनेन्द्रिय सहित अन्य इन्द्रियों का ज्यादा सक्रिय हो जाना स्वाभाविक है. हम भी वही सब कर रहे थे. मैं देख रहा था कि मेरी श्रीमतीजी बेला मुझसे सर्वथा विपरीत महिलाओं के झुंड में खूब सक्रिय भूमिका अदा कर रही थी. सबसे हंसते-बोलते वह हर बात में अपना मत भी दृढ़ता से रख रही थी.
“हुंह, चौबीसों घंटे खाली बैठे रहने वालों के और काम ही क्या है? इधर-उधर मुंह मारना, लगाई-बुझाई करना, बातों के अलावा इन महिलाओं के पास करने को कुछ होता ही नहीं है. बेला बता रही थी सोसायटी की लेडीज़ ने अपना वाट्सएप ग्रुप भी बना रखा है. और वह भी इससे जुड़ गई है.
उधर महिला मंडल को तो देखो! दिनभर वाट्सएप पर लगे रहने के बावजूद भी इनकी बातें खत्म ही नहीं होतीं. हम पुरूष बेचारों के पास तो बात करने के लिए कभी कुछ होता ही नहीं है. एक-दो बातें राजनीति पर कर लीं, एक-दो क्रिकेट और मौसम की कर ली और बस फिर से चुप्पी.” डॉक्टर मल्होत्रा ने मेरे मन की बात कह दी.
“वो इसलिए कि हम पुरूष अपनी ऊर्जा और व़क्त इधर-उधर की बातों में जाया नहीं करते. हम उसे सोचने में लगाएगें या किसी रचनात्मक कार्य में लगाएगें.” इंजीनियर शर्माजी ने अपना मत रखा.
“ऐसा तो है नहीं कि हम अपना वाट्सएप ग्रुप नहीं बना सकते या हमें नेट इस्तेमाल करना नहीं आता. आधुनिक संसाधनों की हमें ज़्यादा जानकारी है, पर हम उनका सदुपयोग करते हैं, दुरूपयोग नहीं. क्यों मेहताजी?” मेरे पास खड़े रायसाहब ने मेरा कंधा थपथपाया, तो मैं कठपुतली की तरह गर्दन हिलाते बोल उठा, “बिल्कुल, बिल्कुल!”
“वैसे मेहताजी यहां से पहले कहां थे आप?”
“जी, ग्वालियर से आया हूं. हमारा पैतृक निवास स्थान वहीं है. संयुक्त परिवार है. बैंक मैनेजर पद पर प्रमोशन के साथ स्थानान्तरण हुआ, तो बीवी-बच्चों के साथ घर से इतनी दूर आना पड़ा.

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दो बेटे हैं. बड़ा वाला तो घर पर ही है. छोटा साथ आया है. उधर अपनी मम्मी के साथ है. घर थे, तब तो दोनों बच्चों को दादा-दादी के पास छोड़ कहीं भी हो आते थे.”
“सही है. हम लोग हमेशा से माता-पिता के साथ रहने के ही आदी रहे हैं. चाहे वे कमाते हों चाहें हम. पर अब ऐसा नहीं है. हमारे बच्चे तो स्कूली पढ़ाई पूरी होते-होते ही घर से बाहर निकल जाते हैं. पहले हॉस्टल लाइफ जीते हैं और फिर जब ख़ुद कमाने लगते हैं तो अपना घर, गाड़ी ख़रीद लेते हैं. जितना मोटा पैकेज, उतना ज़्यादा काम!” प्रोफेसर सिन्हा ने कहा.
“भई हमारे ज़माने में तो अपनी गाड़ी, अपना घर सेवानिवृति के बाद की बातें होती थीं. और मेरे बेटे सलिल को देखिए. नौकरी लगे दो साल हुए हैं और अभी से अपने फ्लैट के लिए जोड़-तोड़ बैठाने लगा है. गाड़ी तो किश्तों में ख़रीद भी ली है.” सीए मित्तल साहब भी अपनी भड़ास निकालने लगे.
“यह किश्तों का एक नया ही ट्रैंड चल गया है. हमारे बैंक में आधी अर्जियां तो इसी से संबंधित लोन के लिए होती हैं. हम तो उधार की खेती का पानी भी गले के नीचे उतारना पाप समझते थे और आजकल की जनरेशन तो फ्रिज, टीवी भी ईएमआई पर ला रही है. वो भी सिर उठाकर!” मैं भी बातों के दंगल में कूद पड़ा था.
“इस जनरेशन के ख़र्चे ही इतने बढ़ गए हैं. ईएमआई पर ही जीना पड़ेगा उसे! मोबाइल, प्लेस्टेशन, होम थिएटर, कार ये सब अब लग्जरी थोड़े ही रह गए हैं, नेसेसरी हो गए हैं.” अधिवक्ता कमलेशजी आधुनिक पीढ़ी से अपना विरोध जताने में कहां पीछे रहने वाले थे.
“बेटे-बहू तो अपनी आधी सैलरी जिम और हेल्थ सप्लीमेंट्स पर ही लुटा देते हैं. टोकता हूं, तो बोलते हैं आपने वो मशहूर उक्ति नहीं सुनी कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है और पहला सुख निरोगी काया होती है... अरे भई, स्वास्थ्य की महत्ता से कौन इंकार कर रहा है? पर पानी की तरह पैसा बहाकर हेल्थ बनाना भला कहां की समझदारी है? क्यों मल्होत्रा साहब आप तो डॉक्टर हैं, कुछ प्रकाश डालिए.” शुक्लाजी ने अपनी बात समाप्त कर बॉल फिर से डॉक्टर साहब के पाले में उछाल दी थी.
“सब बदलती हवा है. आजकल तो ऐसी-ऐसी बीमारियां हो गई हैं जिनके बारे में न कभी पढ़ा, न कभी सुना. यह खाने से एलर्जी हो जाएगी, वो छूने से इंफेक्शन हो जाएगा. कल एक दो बरस का बच्चा मेरे पास लाया गया. उसे आटे, सूजी आदि अन्न से एलर्जी हेै. पैरेंट्स की समस्या यह कि बच्चे को खिलाएं तो क्या खिलाएं? जिस उम्र में बच्चा खाना सीखता है उस उम्र में यह सब? इसलिए हेल्थ सप्लीेमेंट्स लेना अब मजबूरी बन गया हेै. और यूं शौकिया लेने वालों की भी कमी नहीं है. सिक्स पैक्स बनाने के लिए, अच्छी फिगर के लिए भी लोग हेल्थ सप्लीमेंट्स और जिम पर पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं, वरना हमारे आपके समय कहां जिम आदि का चलन था?”
“ज़रूरत ही कहां थी डॉ. साहब! हमारा तो ज़माना ही कुछ और था. रोज़ एक प्लेट मिठाई और चावल खाकर भी हम कभी मोटे नहीं हुए. ठेले का एक ग्लास गन्ने का जूस चार दोस्त शेयर करके पीने पर भी कभी बीमार नहीं पड़े. कभी मिनरल वॉटर की बोतल लेकर नहीं घूमना पड़ा. जहां प्यास लगी, सार्वजनिक नल खोलकर पानी पी लिया. नंगे पांव ही पूरे गली-मोहल्ले और बाज़ार तक की खाक छान आते थे.
यदि कभी बीमार भी पड़ते थे, तो दादी, नानी के घरेलू नुस्ख़ों से ही ठीक हो जाते थे. अस्पताल जाने की नौबत तो ऑपरेशन के व़क्त ही आती थी. आजकल के तो अस्पताल ही  फाइव स्टार, सेवन स्टार होटल से कम नहीं हैं. फिर इलाज भी वैसा ही महंगा!” खान साहब बोले.
मुझे अब बातों में अच्छा-ख़ासा रस आने लगा था. सब एक जैसी मानसिकता वाले लोग थे इसलिए कौन बोल रहा है यह अब मेरे लिए मायने नहीं रख रहा था. क्या बोला जा रहा है इस पर मेरेे कान लग गए थे. साथ ही मैं भी पूरे जोश से वार्तालाप का हिस्सा बनता जा रहा था.
“अरे अस्पताल छोड़िए, आजकल तो स्कूल-कॉलेज भी ज्ञान बांटने वाली इमारतें नहीं रह गई हैं, नोट छापने की मशीनें हो गई हैं. जिसकी जितनी औकात उतने अच्छे स्कूल-कॉलेज में दाख़िला. छोटे बेटे का नर्सरी में एडमिशन करवाने में ही बुरी तरह से परेशान हो गया. मेरा और बेला का अच्छा-खासा इंटरव्यू ले लिया.”
“और बेचारे छोटे-छोटे बच्चों को देखो. बस्तों के बोझ से कंधे दबे जा रहे हैं, पर भेड़ बकरियों की तरह ऑटो में ठूंस दिए जाते हेंै. होमवर्क और प्रोजेक्ट्स का टेंशन उनसे ज़्यादा उनके पैरेंट्स को है. मनोरंजन के नाम पर टीवी, वीडियोगेम्स, आइफोन्स बस यही सब... पकड़ा-पकड़ी, सतोलिया, गिल्ली-डंडा, छुपाछुपी जैसे हमारे मनोरंजक आउटडोर गेम्स की तो उन्हें जानकारी ही नहीं है. हम तो स्कूल से छूटने पर घर आकर जो बस्ता पटकते थे, तो अगले दिन स्कूल जाते व़क्त ही उसे उठाते थे. सूरज ढलने तक बाहर खेलना और मां द्वारा खाने के लिए पुकारने पर ही घर लौटना हमारा रूटीन था. फिर भी देखो आज सभी अच्छा कमा-खा रहे हैं. मुझे तो आजकल के बच्चों पर दया आती है.”


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“वैसे अब ई बुक्स का ज़माना आ रहा है, तो बस्तों के बोझ से तो कम से कम बच्चों को छुटकारा मिल ही जाएगा. पर संसाधनों पर निर्भरता और बढ़ जाएगी. नेट के बगैर तो आजकल के बच्चे गाय पर भी चार लाइन नहीं लिख सकते.”
“हम तो दोस्तों से पूछते थे, माता-पिता से जानकारी जुटाते थे, ढेरों किताबें खंगालते थे. अब तो नेट ही दोस्त बन गया है. सच्चे दोस्त तो क़िस्से-कहानियों में रह गए हैं.”
“दोस्तों की भली कही! कल का ही क़िस्सा बताता हूं. बेटा आया हुआ है, तो कल मैेंने सपत्नीक एक पुराने दोस्त के यहां जाने का प्लान बनाया. बेटे ने कहा फोन करके पूछ लीजिए वे फ्री हैं या नहीं? मैंने कहा उसने भी वीआरएस ले लिया है और मैंने भी, सब फ्री ही फ्री हैं. दोस्तों के यहां जाने से पहले भी कोई अपांइटमेंट लेते हैं क्या? जब मर्ज़ी हुई चले गए और खा-पीकर ही घर लौटते हैं. बेटा बेचारा चुप रह गया. पहुंचते ही दोस्त और उसकी पत्नी बड़े प्यार से मिले. पांच मिनट में चाय-नाश्ता भी आ गया. लेकिन 10 मिनट बीतते-बीतते अंदर से खुसर-पुसर और इशारेबाजज़ी शुरू हो गई. दोस्त ने क्षमा मांगते हुए कहा, आज दरअसल बच्चों के साथ बाहर डिनर का प्रोग्राम था. मेरा बेटा तुरंत यह कहते हुए उठ खड़ा हुआ कि कोई बात नहीं अंकल मम्मी-पापा को फिर कभी ले आऊंगा. अंदर से उसकी बहू भी आ गई. बोली आप यदि फोन करके आते तो हम बता देते या अपना प्रोग्राम बदल लेते. बेटा हमें घूर रहा था. खिसियाते हुए हम घर लौटे.”
अब तो किसी के घर जाने का ज़माना ही नहीं रहा. वाट्सएप पर ही जन्मदिन, एनिवर्सरी की बधाई के बुके और केक भेज दो, राखी की भी फोटो भेज दो. बदले में मोबाइल पर ही रिटर्न गिफ्ट का फोटो आ जाएगा. रिश्ते दिल के तारों से नहीं इंटरनेट के तारों से जुड़ने लगे हैं.”
“बातों से ही पेट भरने का इरादा है क्या? चलो खाना ले लेते हैं. कोई मनुहार करने नहीं आएगा. वेडिंग प्लानर का ज़माना हेै. बराती-घराती सब बराबर हैं.” जैन साहब ने याद दिलाया तो हम सब खाने के पंडाल की ओर बढ़ने लगे. तभी एक पुराने परिचित नज़र आ गए, तो मैं उनसे बतियाने रूक गया.
“अरे मेहता साहब कहां रह गए थे? आपने तो आते ही नए-नए दोस्त बना लिए. हमें भी तो मिलवाते उनसे?” शर्माजी ने उलाहना दिया.
“वो यहां का नहीं है. पुराना परिचित है. शादी में सम्मिलित होने बाहर से आया है. कह रहा था बच्चों की परीक्षाएं अभी-अभी ख़त्म हुई हैं. बरसों बाद सपरिवार किसी शादी में शरीक होने का मौक़ा मिला है. वरना तो लोकल आना जाना भी बच्चों के एग्जाम ओर कोचिंग के हिसाब से तय करना पड़ता है. मेरा तो ख़ुद का यही हाल है.
छोटा अभी नर्सरी में है पर बारहों मास उसके एग्जाम चलते रहते हैं. कभी समेटिव तो कभी फॉर्मेटिव! उसके टाइम टेबल के अनुसार ही उसकी मम्मी कहीं आने-जाने का प्रोग्राम बनाती है. लो शैतान को याद किया और शैतान हाज़िर! क्यों छोटू, ममी ने भेजा है कि जाकर पापा से खाना खा ले.” मैं छोटू को कौर खिलाने लगा.
“बड़ा प्यारा बच्चा है! बिल्कुल आप पर गया है. बाप बेटे ने शर्ट्स भी एक जैसी पहन रखी हेंै.” शर्माजी ने छोटू को पुचकारा तो मैंने तुरंत टोक दिया.
“श्श धीरे बोलिए. अभी फैल गया, तो यहीं शर्ट उतार देगा. मैं तो दोनों भाइयों के लिए एक जैसा कपड़ा लाया था. पर बड़ा वाला तो देखते ही भड़क गया. एक जैसे कपड़े पहनकर हमें बाबू बैंड नहीं बनना. मजबूरन दूसरी शर्ट मुझे बनवानी पड़ी.”
“सच में क्या ज़माना आ गया है! हम भाई-बहन या भाई-भाई तो एक जैसे कपड़े पहनने में शान समझते थे. हममें कॉमन वाली नहीं एकता वाली फीलिंग आती थी. और इन्हें देखो इन्हें एक जैसे कपड़े पहनते शर्म आती है... अरे शुक्लाजी आपने प्लेट में इतना कम खाना कैसे लिया है?” शर्माजी दूसरी ओर मुखातिब हो गए थे.
आजकल प्लेट में खाना कम दवाइयां ज़्यादा खानी पड़ रही हैं. मैं तो डायबिटीज़, ब्लडप्रेशर को  एलीट क्लास की निशानियां बताकर ख़ुद पर गर्व करना सीख रहा हूं. वैसे भी यहां पिज़्ज़ा, चाउमीन, मोमोज़ वगैरह के स्टॉल्स ज़्यादा हैं, जो मुझे कम पसंद आते हैं.” शुक्लाजी ने कहा, तो थोड़ी दूर खड़े मिश्राजी भी सहमति में गर्दन हिलाते आ गए.
“मुझे भी यह जंक फूड पसंद नहीं है. पर बच्चों को देखो कैसे टूटे पड़ रहे हैं? आजकल तो छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी पसंद का खाएगें, पहनेगें और खिलौनों की मांग करेगें. हम भी यह सोचकर उनकी सब मांगें मान लेते हैं कि क्या हुआ जो हमें यह सब नहीं मिला. कम से कम हमारे बच्चों को तो ज़िंदगी में कोई अभाव महसूस न हो. हमें तो जो मां-बाप पहना देते थे, पहन लेते थे, जो टूटा-फूटा खिलोैना या बर्तन-चाबी हाथ में पकड़ा देते थे, उसी से खेल लेते थे. मेरा तो पूरा बचपन बड़े भाई-बहनों की उतरन पहनकर ही गुज़रा है.” मिश्रा जी को अनायास ही अपना बचपन याद आ गया था.
“अरे आपका क्या, हम सभी का बचपन ऐसे ही गुज़रा है. बचपन क्या जवानी, बुढ़ापा सब ऐसे ही गुज़र जाएगा. दोस्तों, कभी-कभी तो मुझे लगता है हम जो 1950 से 1980 के बीच जन्मे हैं, बहुत ही लल्लू प्रकृति के लोग हैं, जो अपने से बड़ों और छोटों के बीच सैंडविच बनकर रह गए हैं. दोनों ही पीढ़ी के लोग हमें इमोशनल फूल बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैें.” शुक्ला जी बहुत गंभीर हो गए थे.
“नहीं दोस्तों, सच तो यह है कि हम सबसे अद्भुत और सबसे समझदार पीढ़ी हैं. हम वो अंतिम पीढ़ी हैं, जो अपने से बड़ों की सुनते हैं और साथ ही हम ही वो पहली पीढ़ी हेैं, जो अपने बच्चों की सुनते हैैं. माना हम कोई बहुत विशिष्ट भी नहीं हैं, पर हमें भगवान का विशेष आशीर्वाद प्राप्त है. हम बहुत ही सीमित और दुर्लभ पीढ़ी हैं, जो जनरेशन गैप का आनंद उठा रही है.” प्रोफेसर साहब के जोश से ओतप्रोत वक्तव्य ने हम सबमें ज़िंदगी जीने की नई ऊर्जा भर दी थी.
महिलाओं का झुंड हमें ढूंढ़ते हुए इधर ही आ रहा था. हम लोगों ने परस्पर विदा लेने में ही खैरियत समझी.
“आज तो सभी जेंट्स बड़े बातों में खोए हुए थे. घर लौटने का भी ख़्याल नहीं रहा. हमें ही बुलाने आना पड़ा.” बेला ने उलाहना दिया.
“हूं.”
“क्यूं जी, क्या बातें हो रही थीं? हमें भी तो मालूम हो?”
“कुछ नहीं, ऐसे ही... मैं कभी पूछता हूं. तुम लोग क्या बातें कर रही थीं?”
“हमारी छोड़िए, पर हमें उत्सुकता है आप लोग इतनी देर क्या बातें कर रहे थे? ज़रूर कोई ख़ास विषय रहा होगा?”
“हूं... नहीं... बस ऐसे ही...”

संगीता माथुर


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