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कहानी- बनते-बिगड़ते रिश्ते (Short Story- Bante-Bigadte Rishte)

“सॉरी मॉम! लगता है, मेरी ही सोच ग़लत थी. कल आपसे बात करने के बाद बहुत अनमनी हो गई थी. बार-बार दादी की स्मृतियां दिमाग़ में कौंधती रहीं. यदि आप भी मेरी तरह पूर्वाग्रह से ग्रसित होतीं, तो न केवल मैं दादी के प्यार से वंचित रह जाती, बल्कि सफलता के इस मुक़ाम तक भी न पहुंच पाती.”

“हाय मॉम, कैसी हो?” फोन पर विनी का बुझा-बुझा स्वर ही प्रभा को आभास दे गया था कि बेटी का मूड ठीक नहीं है.
“बिल्कुल ठीक! तू कैसी है? और नन्हे प्रिंस का क्या हाल है? अब तो ख़ूब शैतानियां करने लग गया होगा.”
प्रभा ने यह सोचकर वार्तालाप सामान्य बनाए रखा, ताकि विनी खुद ही सब कुछ उगल दे. वैसे भी प्रभा बेटी के स्वभाव से भली-भांति परिचित थी. कोई भी बात ज़्यादा देर पेट में दबाकर रखने से उसे अपच हो जाती थी.
“मम्मीजी आ रही हैं हमारे संग रहने. हमारे क्या विशेषतः अपने पोते प्रिंस के साथ रहने.” विनी की आवाज़ से लग रहा था उसका मुंह शायद अब भी फूला हुआ था.
“अरे वाह, बहुत अच्छी बात है!”
मॉम की उत्साहित प्रतिक्रिया विनी को दिल की बात कहने से रोक रही थी, लेकिन अब ज़्यादा देर ख़ुद को रोके रखना उसके लिए संभव नहीं था.
“चूंकि वे ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त प्रिंस के साथ बिताना चाहती हैं, इसलिए उनका और सुमित का विशेष आग्रह है कि इस दौरान प्रिंस को क्रेच में न छोड़ा जाए. मैं और सुमित तो सवेरे ही अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं और देर शाम लौटते हैं. पीछे इतना व़क्त प्रिंस मम्मीजी के साथ बिताएगा तो…”
“तो क्या? अच्छा ही तो है. दादी-पोता एंजॉय करेंगे.”
विनी अब झुंझला उठी थी.
“आप समझकर भी नासमझ बन रही हैं मॉम. आपको पता है, मैं प्रिंस को लेकर हर दर्जे तक फ़िक्रमंद रहती हूं. लगभग दस क्रेच छान लेने के बाद मैंने यह क्रेच फाइनल किया था, भले ही घर से दूर है. और आपको यह भी पता है कि हाइजीन को लेकर मैं कितनी कॉन्शियस हूं. मम्मीजी यह सब कहां कर पाएंगी? वे तो खुद अस्थमा की मरीज़ हैं. कहीं खांस-खांसकर प्रिंस को बीमार ही न कर दें? बना तो सब कुछ बाई देगी, लेकिन एंटीसेप्टिक से हाथ धोकर उसे खिलाना-पिलाना, नहलाना… नहीं-नहीं मॉम, मैं कोई रिस्क नहीं ले सकती. प्रिंस ने अभी-अभी बोलना सीखा है और मैं नहीं चाहती कि वह कोई देहाती शब्द या एक्सेंट पकड़े. मम्मीजी तो महीना भर रहकर चली जाएंगी, पर मेरे लिए प्रिंस को वापस ट्रैक पर लाना मुश्किल हो जाएगा.”


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“तो तू क्या चाहती है?”
“मेरे चाहने से कुछ होता है क्या? मैं तो प्रिंस का भला चाहती हूं. और उसका भला इसी में है कि उसे मम्मीजी से ज़्यादा से ज़्यादा दूर रखा जाए.”
“वे प्रिंस की ग्रैंड मदर हैं जैसे मैं हूं.”
“प्लीज़ मॉम, ख़ुद को उनसे कंपेयर मत कीजिए.”
“कैसे न करूं विनी? जब रिश्ता वही है, भावनाएं वही हैं, तो तुलना तो होगी ही न? तेरी बातों ने मुझे तेरी दादी की याद दिला दी है. शायद तुझे भी कुछ याद आ जाए.”
दादी की याद से या फिर मॉम की बातों से विनी का अब और बात करने का मूड न रहा.
“ठीक है मॉम, फिर बात करेंगे. फोन रखती हूं.”
विनी से संपर्क कटा तो प्रभा का विगत से संपर्क जुड़ गया.
जब विनी पैदा हुई थी, तो उसके दादा-दादी ने नाते-रिश्तेदारों सहित पूरे मोहल्ले को मिठाई खिलाई थी. यह सब जानकर प्रभा फूली नहीं समाई थी. उस व़क्त वह मायके में थी. सुमित के पहुंचने तक तो प्रभा के सास, ससुर, देवर आदि सभी पहुंच गए थे. सभी ने प्रभा और बच्ची को हाथों-हाथ लिया था. प्रभा के ससुराल में वैसे भी लड़कियों का अभाव था. न सुमित की और न ही उसके पापा-मम्मी की कोई बहन थी. ख़ूब जश्‍न मना था. प्रभा को मानना पड़ा था कि कन्या जन्म को लेकर लोगों की सोच एक समान नहीं है.
लड़की को जन्म लेते ही मार देना या तो बहुत ही पिछड़ी और छोटी जाति की सोच है या फिर बहुत उच्च तबके के लोग भ्रूण परीक्षण करवाकर कन्या भ्रूण को गर्भ में ही ख़त्म करवा देते हैं. पर आम इंसान तो उसे दैवीय प्रसाद समझकर सहर्ष ग्रहण करते हैं. प्रभा कामकाजी नहीं थी, पर न्यूक्लियर फैमिली में गृहिणी की सारी ज़िम्मेदारियां निर्वाह करते उससे कभी-कभी विनी की अवहेलना हो ही जाती थी. कभी वह नहा रही होती, तो अकेली खेलती विनी गिर जाती और चोट लगा लेती. दादा-दादी जब आते और उन्हें यह सब पता लगता, तो प्रभा और सुमित पर नाराज़ होते. उनके रहते प्रभा का कार्यभार तो बढ़ जाता, पर विनी को लेकर वह एकदम निश्‍चिंत हो जाती थी. उसे नहलाने, खिलाने, पिलाने, सुलाने, साथ खेलने जैसी समस्त ज़िम्मेदारियां दादा-दादी ख़ुशी-ख़ुशी ओढ़ लेते. यहां तक कि सुमित भी उनसे नाराजगी जताने लगता कि लगता ही नहीं वे अपने बेटे से मिलने आए हैं. ऐसा लगता है, स़िर्फ अपनी पोती से मिलने आए हैं. तब प्रभा की सास हंसते हुए बेटे को बताती कि बड़े-बूढ़े ऐसे ही नहीं कह गए हैं कि मूल से सूद हमेशा प्यारा होता है.
ससुरजी गुजर गए तो गांव की पुश्तैनी दुकान समेटकर सुमित मांजी को हमेशा के लिए साथ ले आए थे. दादी हमेशा के लिए साथ क्या रहने आ गईं, विनी को तो मानो खज़ाना हाथ लग गया था. चौबीसों घंटे वह उनके साथ लगी रहती. खाना, नहाना, घूमना… कोई काम उसका दादी के बिना पूरा नहीं हो पाता था. कितनी ही बार वह सोते में उनका बिस्तर गीला कर देती, पर वे उसे कुछ कहना तो दूर प्रभा को भी नहीं बताती थीं. चुपचाप चादर धोकर गद्दा धूप में डाल आतीं. प्रभा देखती तो नाराज़ होती, पर वे उसे मना लेतीं.
“तुझे और भी ढेरों काम हैं. क्या हुआ जो मैंने धो डाली. और विनी पर भी नाराज़ मत हुआ कर. थोड़ी और बड़ी होगी, तो अपने आप आदत छूट जाएगी.”
विनी की फरमाइशें पूरी करते-करते मांजी की अपनी पूजा-पाठ तो धरी रह जाती. दोपहर में थोड़ा सुस्ताने लगतीं, तो विनी अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियों से दादी की आंखें चौड़ी करके पूछती, “दादी, आप सो गईं क्या? गेम नहीं खेलेंगी?”
मांजी बेचारी आंखें मलती, जम्हाइयां लेती उठ बैठतीं. अपने लोहे के बक्स से चौपड़ निकालकर बिछातीं और विनी ख़ुशी-ख़ुशी उनकी नकल करते हुए कौड़ियां चलाने लगती. अधकच्ची नींद से उठाए जाने पर उन्हें उंघते देख प्रभा को उन पर दया आती. वह विनी को ज़बर्दस्ती अपने कमरे में ले जाने लगती, तो विनी दहाड़ें मार-मारकर वहीं पसर जाती. “रहने दे इसे यहीं. नींद तो अब वैसे भी नहीं आएगी. चाय बना दे.”
मांजी चाय स्टील के ग्लास में पीती थीं. विनी के लिए अंदर के पेय पदार्थ से ज्यादा आकर्षण का केंद्र वह ग्लास होता था. उसकी इसी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर प्रभा वैसे ही स्टील के ग्लास में दूध भरकर मांजी के साथ-साथ उसे भी पकड़ा देती थी. ज़्यादा गर्म न होने के बावजूद विनी भी दादी की नकल करते हुए फूंक मार-मारकर सुड़क-सुड़ककर सारा दूध ख़त्म कर देती थी. एक दिन सुमित ने उसे ऐसे दूध पीते देख लिया तो डांट लगा दी थी, “यह क्या सुड़-सुड़ करके दूध पी रही हो विनी, तमीज से पीओ.”
अगले ही दिन प्रभा ने नोटिस किया था. मांजी न केवल ख़ुद बिना आवाज़ किए चाय पी रही थीं, बल्कि विनी को भी ऐसा ही करने के लिए समझा रही थीं. प्रभा की आंखें छलक उठी थीं.

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जब विनी का रिश्ता तय हुआ, तब उसकी सास को देखकर प्रभा को अनायास ही अपनी सास याद आ गई थी. वैसी ही सीधे पल्ले की साड़ी, तेल डालकर कसी हुई चोटी, मांग में ढेर सारा सिंदूर. बहुत आधुनिक तो प्रभा भी नहीं थी, पर सलवार-कमीज़ या फिर उल्टे पल्ले की साड़ी, हील वाली सैंडल, खूबसूरत से हेयरकट और संतुलित देहयष्टि में अपनी उम्र से काफ़ी कम नजर आती थीं. फिर बड़े शहर की संभ्रांत कॉलोनी में बरसों से रहते उनकी चाल-ढाल, बातचीत में भी एक नफासत-सी आ गई थी.
जैसे-जैसे प्रभा विनी की सास के और ज़्यादा संपर्क में आती गईं, वैसे-वैसे वे उसे न केवल बाहरी, बल्कि आंतरिक व्यक्तित्व से भी अपनी सास के समकक्ष नज़र आने लगीं. वैसा ही सरल और सहज व्यवहार, जो कुछ उनके मुंह पर होता, वही अंदर मन में भी. हर किसी के साथ सामंजस्य स्थापित कर लेना, आत्मीय संबंध बना लेना, कहीं कोई बनावट और दोगलापन नहीं. प्रभा जितना उन्हें जानती गईं, उतना ही उनसे आत्मीय होती चली गई थी.
प्रभा अक्सर उन्हें देखने और मिलने के बाद विनी को उसकी दादी की बातें याद दिलाया करती थीं. छुटपन की बातें, जब वह दादी के साथ पास वाले मंदिर जाया करती थी. बेहद धार्मिक और नियम आचरण का पालन करनेवाली मांजी को प्रभा ने अक्सर नन्हीं विनी के सामने आत्मसमर्पण करते देखा था. अपने घुटने टेकने की गाथा वे ख़ुद मंदिर से लौटकर मजे ले लेकर सुनाती थीं, “तेरी यह बेटी तो मेरा धर्म भ्रष्ट करके रहेगी. नहला-धुलाकर इसे घर से ले जाती हूं और यह वहां मंदिर के बाहर पड़ी चप्पलों से खेलती रहती है. सारी चप्पलें इकट्ठी करके, जोड़े बनाकर उन्हें छोटे से बड़े के क्रम में लाइन से जमाती रहती है. जब भूख-प्यास लगती है, तो जाने कब अंदर आकर उन्हीं गंदे हाथों से भगवान के सामने चढ़ा हुआ प्रसाद उठाकर खा जाती है, पंचामृत के लोटे से मुंह लगाकर सारा पानी पी जाती है. आज तो इसने हद ही कर दी. बाहर एक गुब्बारेवाला आया तो उससे गुब्बारा ले लिया. उसने पैसे मांगे तो अंदर जाकर भगवान के सामने चढ़े पैसे उठाकर ले जाने लगी. पंडित जी ने रोकना चाहा, तो रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लिया. आख़िर पंडित जी ने ही गुब्बारे के पैसे चुकाए और इसे चुप कराया. कीर्तन करने आई सारी औरतें हंस रही थीं.”
“कल से आप इसे मत ले जाइएगा मांजी!” प्रभा इससे ज्यादा क्या कहती.
“वाह, क्यूं न ले जाऊं? मैंने पंडित जी को समझा दिया कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं. समझ लो किशन-कन्हैया खुद रूप धरकर आए हैं… और तुझे क्या लगता है, यह मुझे अकेले मंदिर जाने देगी? अब इस उम्र में इसके बहाने मंदिर भी न जाऊं?”
प्रभा बेचारी मुंह ताकती रह जाती. मांजी की ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ के सामने वह हमेशा ऐसे ही निरुत्तर हो जाती थी.
मांजी को याद करती प्रभा को अचानक विनी की भाषा और एक्सेंट वाली बात याद आ गई थी. विनी शायद भूल गई है कि उसके साथ रहते-रहते मांजी भी बलून, शूज़, बैग, बॉटल, प्लीज़ जैसे शब्द बोलने लग गई थीं. तब मंदिर की औरतें उन्हें यह कहकर छेड़ती थीं कि पोती के साथ-साथ दादी भी अंग्रेज हो गई हैं.
प्रभा को अफ़सोस था कि दादी-पोती का यह सफ़र ज़्यादा लंबा नहीं चल पाया था. विनी जब 7-8 बरस की थी, तभी मांजी चल बसी थीं, पर विनी के साथ अपने अल्प प्रवास में ही वे उसके कोमल मन-मस्तिष्क पर ढेरों मीठी यादें हमेशा-हमेशा के लिए अंकित कर गई थीं. उनके इस सुमधुर रिश्ते के बीच प्रभा केवल एक बार ही आने का साहस कर पाई थीं. आज भी उस दिन को याद कर प्रभा की आंखें भर आती हैं. कैसे वह ख़ुद को इतना मजबूत बना गई थी.
मांजी हमेशा अपना खाना थाली में खुद लगाकर अपने कमरे में ले जाकर, भगवान को भोग लगाकर खाती थीं. विनी उनके साथ उनकी थाली में से ही खाती थी. पहले मांजी ख़ुद खिलाती थीं, बाद में वह अपने आप खाने लगी थी. यदि उसे कभी कुछ अलग भी खाना होता था, जैसे- मैगी, बर्गर आदि तो उसे भी वह मांजी की थाली में रखकर ही खाना पसंद करती थी.
उस दिन प्रभा ने चिकन बनाया था. शुद्ध शाकाहारी मांजी के लिए अलग सब्ज़ी बनी थी. वे अपनी थाली लेकर कमरे में चली गई थीं. प्रभा और सुमित विनी को लेकर डाइनिंग टेबल पर खाना खाने बैठे थे. विनी को चिकन बेहद पसंद था, पर इससे पहले जब भी बना था या तो मांजी घर पर नहीं थीं या प्रभा ने उसे पहले ही खिलाकर सुला दिया था. मांजी को थाली कमरे में ले जाते देखते ही विनी अपनी चिकन की प्लेट उठाकर दादी के पीछे भागी. प्रभा और सुमित कुछ समझ पाते इससे पहले वह मांजी के पास धम् से जमीन पर बैठ गई और अपनी प्लेट उनकी थाली में रखने लगी. मांजी ना-ना करती पीछे हटे जा रही थीं. प्रभा ने लपककर विनी से प्लेट छीन ली और उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया. सब कुछ पलक झपकते ही हो गया. किसी को ज़्यादा सोचने-समझने का मौक़ा ही नहीं मिला. मांजी मानो किसी शॉक से उबरने का प्रयास कर रही थीं. पर जल्दी ही उन्होंने ख़ुद को संभाल लिया था. “मार मत बहू उसे. वह नासमझ है. खा लेने दे. मैं बाद में दूसरी थाली लगा लूंगी.”
“नहीं मांजी, अब और नहीं. पहले ही उसकी हर जायज़-नाजायज़ मांग मानकर आपने उसे बहुत ज़िद्दी और हठी बना दिया है. उसे समझ नहीं है इसीलिए तो उसे सही और गलत में भेद समझाना हमारा फर्ज़ है.” प्रभा मचलती हुई विनी और उसकी प्लेट को जबर्दस्ती उठाकर ले गई थी. नादान विनी तो शायद इतना ही समझ पाई थी कि उसे भविष्य में यदि चिकन खाना है तो मम्मी-पापा के साथ डायनिंग टेबल पर बैठकर खाना होगा, लेकिन मांजी समझ गई थीं कि बढ़ती हुई विनी के सुखद भविष्य के लिए उन्हें उसकी हर उचित-अनुचित ज़िद को मानना छोड़ना होगा. मन ही मन वे ख़ुद को प्रभा की गुनहगार और शुक्रगुज़ार समझ रही थीं. गुनहगार इसलिए कि विनी को इस हद तक ज़िद्दी बनाने के लिए वे उत्तरदायी थीं और शुक्रगुज़ार इसलिए कि प्रभा ने समय रहते स्थिति संभाल ली थी. मांजी ने मन ही मन निश्चय किया कि विनी के अच्छे भविष्य के लिए वे भी उसके मम्मी-पापा की तरह अपने लाड़-प्यार पर क़ाबू रखेंगी. उनका यह इरादा शीघ्र ही नज़र भी आने लगा था.
विनी ने स्कूल जाना आरंभ किया तो आम बच्चों की तरह न जाने के लिए खूब रोती-मचलती. मांजी उस वक़्त जान-बूझकर अपने कमरे के किवाड़ बंद कर ज़ोर-ज़ोर से माला जपने लग जाती थीं. कुछ दिनों तक तो रोती विनी आशाभरी नज़रों से बंद किवाड़ ताकती रही, फिर मम्मी-पापा की प्यार भरी समझाइश और दादी के तटस्थ रवैए से ख़ुद ही ख़ुशी-ख़ुशी तैयार होने लगी. प्रभा समझती थी कि उनकी ही तरह मांजी को भी अपना दिल कितना कड़ा करना पड़ा होगा, शायद उनसे भी ज़्यादा. अभी तक वह उनके निश्छल प्यार से अभिभूत थीं, पर अब उनके आत्मसंयम और समर्पण से वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो गई थीं. विनी आज इतनी सफल और सुशिक्षित होने के साथ-साथ इतनी संस्कारी भी है, तो यह उसकी दादी का ही पुण्य प्रताप और आशीर्वाद है.
विनी की सास और उनके नाती प्रिंस का प्यार भी ऐसा ही कुछ रंग लाएगा, ऐसा प्रभा सोचती थी, पर विनी…
‘ट्रिन ट्रिन’ की आवाज़ से प्रभा की विचार शृंखला भंग हुई. विनी का फोन था.


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“सॉरी मॉम! लगता है, मेरी ही सोच ग़लत थी. कल आपसे बात करने के बाद बहुत अनमनी हो गई थी. बार-बार दादी की स्मृतियां दिमाग़ में कौंधती रहीं. यदि आप भी मेरी तरह पूर्वाग्रह से ग्रसित होतीं, तो न केवल मैं दादी के प्यार से वंचित रह जाती, बल्कि सफलता के इस मुक़ाम तक भी न पहुंच पाती.”
विनी की आत्मस्वीकृति से प्रभा के चेहरे पर एक नई आभा जगमगा उठी थी. विनी के एक ही निर्णय ने कई बिगड़ते रिश्तों को अपना बना लिया था.

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