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कहानी- बड़ी मां (Short Story- Badi Maa)

बड़ी मां समझ गई वे बुआ की ओर इशारा कर रहे हैं. बोली, "तुम लोगों का ही आसरा है. तुम तो जानते हो लाला, मुझ बांझ की औलादें नहीं बैठी सम्पत्ति हथियाने के लिए. भगवान तुम्हे बरकत दे. तुम्हारे बेटे ही मेरे बेटे हैं. मेरे मरने के बाद लोग कभी-कभी नरेन्द्र-महेन्द्र की बड़ी मां और उनके बच्चों की बड़ी दादी कहकर मेरा ज़िक्र कर लिया करेंगे, बस. मैं तर जाऊंगी. मेरी सम्पत्ति तुम्हारी ही है, चाहे रखो या बहन को दो, मुझे क्या?" कहते हुए बड़ी मां बिलख-बिलख कर रोने लगीं. मेरी आंखें नम हो गईं और पिताजी एक अपराधी की भांति नतमुख हुए बैठे रहे.

मैं कॉलेज से घर पहुं‌ची, तो मां का कर्कश नाद पड़ा कानों में, वे भाभी से कह रही थीं, "देखती है सुमन, बुढ़िया को नए-नए शौक चर्रा रहे हैं बुढ़ापे में. सवेरे से घर में टेप रिकॉर्डर बज रहा है, पता नहीं किससे मंगाया है. जेठजी थाती छोड़ गए हैं, तो उड़ा रही है बुढ़िया.
भाभी ने क्या उत्तर दिया मैं‌ सुन नहीं पाई, चुपचाप अपने कमरे में चली गई. यदि बड़ी मां ने टेप रिकॉर्डर ख़रीदा है, तो मां से पैसा नहीं मांगा. पर मां तो चाहती है बड़ी मां अपने‌ं शौक या ज़रूरतों पर एक पैसा भी ख़र्च न करें. दो साड़ियां पहन, रूखी सूखी खा जल्दी ही भगवान को प्यारी हो जाए और वे उनकी सम्पत्ति पर अपना सर्वाधिकार सुरक्षित कर सकें.
वैसे बड़ी मां ख़र्च करती भी क्या हैं? सन्तानहीनता और वैधव्य की विशाल शिला अपनी छाती पर धरे, भगवत भजन कर दिन काट रही हैं. बेचारी टेप रिकॉर्डर का शौक क्या करेंगी? वो तो कल शाम उनके एक स्नेही किराएदार उनका मन बहलाने के लिए ये टेप रिकॉर्डर उठा लाए. मैं बड़ी मां के घर पर ही थी उस वक़्त. वे ना नुकुर करती रहीं, पर जब किराएदार ने गीत बजा दिया, मेरा नादान बालमा न जाने दिल की बात… तो ऐसी सुध-बुध खोई कि टेप रिकॉर्डर को लौटाना ही भूल गईं.
मुझसे बोली थीं, "वृषाली, तेरे ताऊजी एक बार कोई फिल्म देखकर आए थे, उसी फिल्म का गीत है ये. मुझे चिढ़ा-चिढ़ा कर इसे उल्टी-सीधी राग में गाते रहे थे कई दिन तक." आज उसी टेप रिकार्डर के लिए मां संताप प्रकट कर रही थीं.

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पिताजी, मैं, महेन्द्र भैया और नरेन्द्र, मां को कई बार समझा चुके है़ं कि वे बड़ी मां के कार्य-व्यवहार की आलोचना न करें, पर मां की नज़रों में वैधव्य से बड़ा अपराध दूसरा नहीं है और वे नहीं चाहती कि वैधव्य भोगती स्त्री चैन की सांस ले. वैसे मां ने असली विरोध प्रदर्शन तब से किया है जब से बड़ी मां का भतीजा केतन उनके साथ आकर रहने लगा है. उसकेतन के आगमन की सूचना पाते ही मां ने सुदीर्घ प्रलाप शुरू कर दिया था.
"अरे उस बुढ़िया को थाह पाना बड़ा कठिन है. देख लेना सब मायकेवालों को दे जाएगी. खून ज़ोर मारता है न. जेठजी होते तो अपने भाई-भतीजों को देते, पर जेठानी में कौन-सा इस परिवार का खून है? वह मुस्टण्डा केतन, पढ़ने के बहाने सारी सम्पत्ति हडप करने आया है."
नरेन्द्र ने उनकी बात का खण्डन किया था.
"मा, अपने शहर में मेडिकल कॉलेज है और केतन भैया मेडिकल की पढ़ाई के लिए यहां आए हैं. बुआ का घर होते हुए उन्हें छात्रावास में रहते क्या अच्छा लगेगा?"
"तुम बड़ी मां के पक्षधर मत बनी नरेन्द्र." मां भृकुटी तान कर बोली, "जेठानी ने सब सोच-समझकर तय किया है. मुझे तो लगता है बाप-दादा की कमाई गई हाथ से. इतना बड़ा मकान है, ढेरों किराया आता है. हुण्डियां भर गई होंगी हुण्डियां. मां बड़ी देर तक अपने मन में संचित होता विष उगलती रहीं.


मां जब भी बड़ी मां का दो मंजिला मकान देखती हैं उनकी छाती पर सांप लोट जाता है. वे सोचती है पूरा घर किराए पर उठा रखा है, ख़ूब किराया जमा होता होगा और केतन गुलछर्रे उड़ाता होगा. पता नहीं इस आय का कितना हिस्सा मायकेवालों को जाता होगा. तभी तो दुख-सुख पूछने के बहाने आ डटते हैं…
इन कुछ ख़ास मुद्दों में मां हरदम उलझी रहती. हमारा मकान भी किराएदारों से भरा था और अच्छी आय होनी थी, पर ताऊजी के देहांत के बाद मां ने अपने निजी मकान, जो बड़ी मा के मकान से सटकर बना है, में रहने का निर्णय कर लिया. पिताजी बोले थे, "बच्चों की पढ़ाई और मेरे खाने-पीने का क्या होगा?"
"वहां भी बच्चों की पढ़ाई हो जाएगी और तुम्हारा खाना-पीना नौकर-चाकर देख लेंगे. बीच-बीच में आते रहना. हमारे वहां रहने से जेठानी को सहारा हो जाएगा. पिताजी ने स्वीकृति दे दी, पर जब हमारी व्यवस्था कराने साथ आए, तो घर से किराएदार हटा दिए. मां ने विरोध किया, "ये क्या? कितना पैसा आ रहा है, हमारे लिए दो-तीन कमरे पर्याप्त हैं. जेठानी का घर देखो किराएदारों से भरा है."
पिताजी ने स्पष्ट कह दिया, "भैया भी सेवानिवृति के बाद यहां रहने आते, तो किराएदार हटा देते. पर अब, जब भैया नहीं रहे, तो भाभी को किराएदारों से सहारा भी होगा और कुछ आय भी. लेकिन मैं घर मे जवान बेटी रहते किराएदार नहीं रख सकता." मां मन मसोस कर रह गईं.
इस तरह मां, पिताजी के नौकरी के ठाट छोड़ यहां रहने चली आईं.

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धीरे-धीरे उनके नेक इरादे सामने आने लगे. एक दिन बातों ही बातों में बोलीं, "जेठजी ख़त्म हो गए जेठानी का क्या भरोसा कब मायके जाकर सारी सम्पत्ति का वारा न्यारा कर आए. मैं यहां इसलिए आई हूं कि सारी गतिवधि पर नज़र रख सकूं." यह सुन मेरे दोनों भाई हतप्रभ रह गए थे. महेन्द्र भैया ने कहा भी, "मां, तुम ये क्या कह रही हो? बड़ी मा अपनी सम्पत्ति का क्या करेंगी ये उनकी समस्या है, तुम्हें तो उन्हें हरदम भावनात्मक सहारा देने का प्रयास करना चाहिए. उनका हमारे अलावा है ही कौन?" मां स्वर को खुफ़िया बना कर बोली थीं, "तुम उनके सगे मत बनो. देखना बुढिया तुम लोगों को पूछेगी भी नहीं. मायके में भतीजे-भांजों की अच्छी ख़ासी फौज है, उन्हें दे जाएगी सब."
तब से मां दरोगा सी बड़ी मां पर मुस्तैदी से निगाह रखने लगीं. एक दिन बड़ी मां, अपनी साड़ियों का बक्सा खोल साड़ियों को धूप दिखा रही थीं. मैं उनसे एक गुलाबी सिल्क की साड़ी पहनने की ज़िद कर बैठी. बड़ी मां ने आह भरी, "बिटिया, जिन्होंने लाकर दी जब वे ही नहीं रहे तो पहन कर क्या करूंगी?"
"ताऊजी नहीं तो क्या हुआ बड़ी मां, हम लोग तो हैं. मेरी ख़ातिर आज पहनो इसे." वे मेरा हठ रखने के लिए सकुचाती-लजाती न जाने किस मधुर स्मृति से लाल अनार होती हुई पहन आई उस साड़ी को. दुखों के बोझ से मुरझाया चेहरा दमक उठा था उस क्षण. तभी मुझे पुकारती हुई मां वहीं पहुंच गई और बड़ी मां का यह रूप देख जल-भुन गईं. फिर तो वह साडी प्रकरण स्पेशल बुलेटिन सा ही मां ने पूरे मोहल्ले में प्रसारित कर दिया, "बुढ़िया का पहनना-ओढ़ना देखे कोई जवान छोरियों को मात कर दे. अरे, सुहाग ही नहीं रहा, तो काहे करती है ये चोंचले!.."


मैंने प्रतिकार किया था, "मां, ताऊजी नहीं रहे, तो क्या‌ बड़ी मां भी घुट-घुट कर मर जाएं? देखती नहीं क्या हालत हो गई है उनकी." मां ने हाथ फटकारा, "वृषाली बहुत बढ़-बढ़ कर मत बोल. जेठानी ने मीठी-मोठी बातें कर फुसला लिया है तुझे, तभी ती दिन में चार-छह चक्कर उस घर के लगाती है. पर देखना हाथ कुछ नहीं लगेगा." मां की बातें सुन मुझे मर्मान्तक पीड़ा हुई थी.
जीवन का उ‌द्देश्य खोजती बड़ी मां की व्याकुल-उदास आंखें देख कलेजा मुंह‌ को आता है, पर किस मि‌ट्टी की बनी है मेरी मां, जो नारी जाति की स्वभावगत कोमलता, भावुकता, ममता भूल इतनों कुर होती जा रही है बड़ी मां के प्रति.
क्या ऐसा ही होता है सम्पति का मोह?
फिर महेन्द्र भैया की शादी हुई. उन्हें मुंह दिखाई में बड़ी मा ने सवा तोले सोने की चेन दी. कुछ अधिक पाने की आशा करती मांं उत्तेजित हो उठीं.
विवाह में आई बुआ से कहने लगीं, "जीजी, तुमने देखा था न, महेन्द्र के व्रतबंध में जेठानी ने कितने भारी-भारी गहने पहने थे. पूरे मोहल्ले की आंखें चुंधिया गई थीं.
और अब देखो, न कुछ पहना, न उसमें से कुछ बहू को दिया. पेरे है. तमाम मायाजाल घेरे हैं. उन्हें तो बस पतली सी चेन थमा दी. बाकी जे़वर भाई-भतीजों को देंगी, क्या पता दे भी चुकी हों, वर्ना पहनती नहीं?"
बुआ ने मां का विरोध नहीं किया, क्योंकि मां धीरे-धीरे उनके भी कान भरती जा रही थीं कि अब किसी को कुछ
नहीं मिलनेवाला, सब उनके मायकेवालों का समझो. बस, फिर क्या था, हमारी इकलौती बुआ एकाएक ही मां की राज़दार बन बैठीं. जबकि मां और बुआ की कभी नहीं पटी, पर सम्पत्ति पर हाथ साफ़ करने के ध्येय में सफल होने के लिए मां ने बुआ के साथ कई गुप्त बैठकें की. फिर भी जो बुआ अपनी धन सम्पन्नता का ढिंढोरा पीटती कार में लकदक आती और उनके बहुमूल्य गहने कपड़े देख हम बच्चे सम्मोहित से उनके पीछे-पीछे घूमते, वे सचमुच ही बड़ी मां से हिस्से की बात कर डालेंगी ये किसी ने नहीं सोचा था. कैसे बेबाक़ स्वर में कह गई थीं.
बुआ, मानो भाई नहीं रहे, तो भाभी से जिस ढंग से चाहो बोलने की छूट मिल गई हो.
"बड़ी भाभी, तुम तो अजगर की तरह बैठ गई हो पूरी धन-सम्पत्ति पर. इस घर में मेरा भी हिस्सा बनता है." बड़ी मां काठ हो गई थीं, अस्फुट से स्वर में बोलो थीं, "जीजी, जब तक मैं ज़िंदा हूं मुझे शांति से रहने दो. मेरे मरने के बाद जो चाहे ले लेना. मैं अपने साथ कुछ नहीं ले जाऊंगी."
बड़ी मां यूं असहाय हो बोल रही थीं मानो ये घर ताऊजी की नहीं बुजा की कमाई से बना है और बुआ चाहे जब उन्हें बेदख़ल कर सकती हैं. ये गृह निर्माण ताऊजी का करवाया हुआ है. हमारा और बड़ी मां का मकान लगभग साथ-साथ बना, पर सरकारी नौकरी में घर के कारण कोई बखेड़ा खड़ा न हो, इसलिए ये घर दादाजी के नाम से बना था. आज उसी का लाभ ले बुआ के लोभ में इतनी प्रगति हो गई थी.
बड़ी मां की बात पर मां द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त बुआ ने दूसरा तर्क रख दिया था, "तुम तो अपने साथ नहीं ले जाओगी, पर तुम्हारे जो भाई-भतीजे, बहन, भांजे आए दिन इसे सराय समझ टिके रहते हैं, उनसे कौन निपटेगा?" परकटे पंछी को तरह फड़फड़ा कर बोली थीं बड़ी मां, "अपने भाई-भतीजों को यहां आने से कैसे रोक सकती हूं? वे मेरा दुख-दर्द बांटने आते हैं कुछ लेने नहीं. छोटी से तो इतना नहीं होता कि कभी मेरे पास आकर दो बातें कर ले." बड़ी मां की इस बात को अशिष्टता मान बुआ अपनी पुरानी अदा से मुंह बिचकाती हुई लौटने लगीं.


बड़ी मां ने कहा भी, "मेरे घर में रहो." पर वे, "छोटी भाभी के पास ठीक हूं." कहती हुई तीर की तरह निकल गईं. घर पहुंच सारी बातें  सत्यनारायण की कथा की तरह मां को कह सुनाई.
कुछ बुआ की क्रोधाग्नि को मां ने भली प्रकार प्रज्ज्वलित किया, "जीजी, अब तुम चुप होकर न बैठ जाना, ताकि हमारा भी हौसला रहे, वरना बाप-दादाओं की कमाई हाथ से गई. कितना बड़ा मकान है. ढेरों गहने है. बैंक में भी लाखों रुपया जमा होगा."
उस बार बुआ कई दिन रुकी थी. बड़ी मां की सम्पत्ति को लेकर घर में जो कुछ हो रहा था वह पिताजी से गुप्त रखा जाता था. फिर भी जब पिताजी छुट्‌टी में आए, तो नरेन्द्र के मुंह से निकल ही गया, "पिताजी, बुआ को न जाने क्या हो गया है? बड़ी मां से सम्पति की बात करती हैं."
पिताजी अविश्वास से चीख रहे थे, "मेरे जीते जी किसी ने भाभी को परेशान किया, तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा."  मां चेतावनी के स्वर में बोली, "तुम क्यों पड़ते हो बीच में? जीजी जानें और जेठानी जानें."
पिताजी उसी तेज़ी से बोले, "हद कर दी तुमने महेन्द्र की मां, जीजी को समझाना तो दूर उल्टे तरफ़दारी कर रही हो. तुम ख़ुद तो भाभी से ऐसा व्यवहार करने लगी हो मानो वे तुम्हारी दुश्मन है. अब जीजी को भी उकसाने लगी हो. भैया के सामने इन्हीं भाभी का तुम और जीजी कितना आदर करती थी. अब वे तुम लोगों की आंख की किरकिरी बन गई हैं."
मां ने हाथ फटकारा, "मैं तो उन्हें किरकिरी समझती हूं, पर वो कौन सा मुझे या मेरे बच्चों को अपना मानती है? क्या दे देती हैं? उनके लिए तो मायकेवाले ही सब कुछ हैं." मां की इस घृणा पर पिताजी बेतरह भड़क उठे, "मायकेवालों को सब कुछ न माने तो क्या करें? तुमसे तो इतना भी नहीं होता कि कभी जाकर उनका सुख-दुख पूछ लो. अरे, अब वे कितने दिन की है."
महेन्द्र भैया ने पिताजी की बात का अनुमोदन किया, "पिताजी ठीक कहते है मां. किसी से कुछ अपेक्षा करने से पहले स्वयं के व्यवहार को सुधारना थाहिए. तुम बड़ी मां को सहायक बनोगी, तो वे भी तुमसे अपनी समस्याएं बताएगीं. पर तुम्हें तो उनका खाना, पहनना, हंसना, बोलना सब कुछ अखरता है."
अपने इस दबंग और स्पष्टवादी ज्येष्ठ पुत्र से मां सदैव घबराती रही है, अतः मौन रोष प्रकट करने के अलावा कुछ न कर सकीं. भैया, मां को समझाते रहे और मैं व पिताजी बड़ी मां के पास चले आए.
"आओ लाला आओ", बड़ी मां पिताजी को देख उत्साहित हुई. पिताजी सकुचाए से बोले, "कल वापस जा रहा हूं भाभी, पर तुम कभी अपने को अकेले मत समझना मैं हू न. किसी ने कुछ कहा हो, तो उसकी बातों में ध्यान मत देना."
बड़ी मां समझ गई वे बुआ की ओर इशारा कर रहे हैं. बोली, "तुम लोगों का ही आसरा है. तुम तो जानते हो लाला, मुझ बांझ की औलादें नहीं बैठी सम्पत्ति हथियाने के लिए. भगवान तुम्हे बरकत दे. तुम्हारे बेटे ही मेरे बेटे हैं. मेरे मरने के बाद लोग कभी-कभी नरेन्द्र-महेन्द्र की बड़ी मां और उनके बच्चों की बड़ी दादी कहकर मेरा ज़िक्र कर लिया करेंगे, बस. मैं तर जाऊंगी. मेरी सम्पत्ति तुम्हारी ही है, चाहे रखो या बहन को दो, मुझे क्या?" कहते हुए बड़ी मां बिलख-बिलख कर रोने लगीं. मेरी आंखें नम हो गईं और पिताजी एक अपराधी की भांति नतमुख हुए बैठे रहे. यह रूदन-विलाप चल ही रहा था कि अपने दो-चार मित्रों को समेटे, सफ़ेद एप्रेन पहने उछलता, कूदता केतन, "बुआ-बुआ…" की गुहार लगाता आ धमका.
"बुआ, फटाफट चार कप चाय बना…"
कलपती बड़ी मां को देखकर वह बुरी तरह चौंका, "ये क्या बुआ? रो रोकर बीमार पड़ जाओगी क्या? यही सब करना है, तो मैं छात्रावास चला जाऊंगा. चलो, उठो चाय पियो और हमें भी पिला दो." हठी भतीजे के सामने बड़ी मां की एक न चली. आंसू पोंछती हुई वे चाय बनाने चली गईं  इधर केतन, पिताजी से बोला, "आप ही समझाइए बुआ को और अन्य लोगों को. आप तो जानते ही हैं उच्च रक्तचाप से लेकर जाने कितनी बीमारी लगा बैठी हैं वे. उन्हें सुख और शांति की ज़रूरत है."
पिताजी ने केतन के कंधे थपथपाते हुए कहा था, "मैं तो देखूंगा ही, पर बेटा तुम, अपनी बुआ का विशेष ध्यान रखना. अच्छा हुआ जो तुम यहां हो, तुम्हारे कारण वे समय पर बनाती-खाती तो हैं, वर्ना अकेली दीवारों से सिर फोड़ती न जाने किस हालत में होतीं."
चाय पीकर हम घर पहुंचे, तो मैं सस्भावित गृहयुद्ध से आंतकित थी, पर बड़ी मां के बिलखने का असर पिताजी के हृदय पर इतना पुरज़ोर था कि रात के खाने के लिए इ़कार करते हुए, चद्दर तान लेट गए. मां की हिम्मत नहीं हुई कुछ पूछने की उनसे. मुझसे ही पूछा, मैंने बताया, तो बड़ी मां के व्यवहार को, 'तिरिया चरित्र', की संज्ञा दे डाली उन्होंने.
मैं जानती हूं बड़ी मा का सब कुछ हमें ही मिलना है. वे अक्सर कहती हैं मुझसे, "वृषाली, मेरा सब कुछ तुम लोगों का है. सब दे जाऊंगी. अभी दे दूंगी, तो दूध की मक्खी की तरह फेंक दी जाऊंगी. जब तक मैं हूं सब कुछ मेरे हाथ में रहेगा. अपना हाथ जगन्नाथ." कहकर वे मेरी पीठ में घौल जमा हंसती और मैं हतप्रभ होती कि उनकी सीधी-सरल निष्कपट बुद्धि में ये गूढ़ बात उपजी कैसे? पर मां, बड़ी मां की इस बात को कूटनीति कहती हैं.
इस बार महेन्द्र भैया के समझाने का मां पर धनात्मक प्रभाव पड़ा और शायद इसी तरह सम्पत्ति मिल सके, सोच वो दूसरे दिन पहुंच गई बड़ी मां के पास.
"आज कैसे आना हुआ छोटी?" बड़ी मां कुछ चकित हो बोलीं.
"क्या बताऊं दीदी, आज तो तुम्हारे देवर ने मुझे बहुत फटकारा बोले, "गृहस्थी में तुम कितनी भी व्यस्त हो, पर इतनी व्यस्त नहीं हो गई हो कि भाभी के पास दो घड़ी बैठ भी न सको."
सरल हृदया बड़ी मां बोली, "छोटी, भरे-पूरे परिवार में बहुत काम होते हैं. मैं तो बस भगवान को याद कर दिन काट रही हूं."
"भगवान का नाम लेकर तुमने अच्छी याद दिलाई." मां रहस्यो‌द्घाटन सा करती हुई बोलीं, "आज जेठजी ने मुझे सपना दिया कि तुम जेठानी को अपना मान कर चलो. उन्हें आराम दो और उनकी सम्पत्ति की देखभाल करो. घर की सम्पत्ति घरवालों को मिलेगी, तो मेरी आत्मा को ठण्डक पहुंचेगी." मां के इस मिथ्याचार पर मेरी आंखें शर्म से ज़मीन में गड़ गई.

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सम्पत्ति हथियाने के लिए उन्होंने मृतात्मा को भी नहीं छोड़ा, पर बड़ी मां सारी बात को सोलह आना सच मान कह उठी थीं, "ठीक ही तो कहा तुम्हारे जेठजी ने छोटी. घर की ज़मीन-जायदाद घर में ही रहनी चाहिए." पता नहीं मां उनकी बातों से संतुष्ट हुई कि नहीं, पर उस दिन से गाहे-बगाहे उनके पास जाने लगी. इस बात की टोह लेना भी तो आवश्यक रहता था कि बड़ी मा के मायके से कौन कब आया, क्या खाया और क्या ले गया?
इसी बात को लेकर एक बार मैं उलझ गई थी मां से, "मां, मामा, मौसी या उनके बच्चे आते हैं, तो उनके स्वागत-सत्कार में तुम पूरा घर सिर पर उठा लेती हो. फिर बड़ी मां अपने मायकेवालों के लिए कुछ करती हैं, तो तुम्हे बुरा क्यों लगता है?" मां, दीदे फाड़कर कुछ देर मेरी तरफ़ देखती रहीं फिर बोली, "मैं मायकेवालों को घर नहीं लुटा रही हूं, पर वो मुस्टण्डा केतन तो सब हड़पने ही आया है." केतन के लिए मां के मुंह से हरदम मुस्टण्डा ही निकलता है.
बड़ी मां को जानकारी है, पर वे युद्ध को न्योता नहीं देना चाहती, अन्यथा मुझ पर सीमा पार न करने की बंदिश लग जाएगी. जो मुझे व बड़ी मां को कतई सहन नहीं होगा.
फिर सब कुछ बड़ी तेजी से घटता गया. केतन चिकित्सक बन गया. नरेद्र नौकरी में लग बाहर चला गया. महेन्द्र भैया तो बाहर ही थे. मेरा विवाह हो गया और बड़ी मां एकदम
अकेली रह गईं. धीर-धीरे अकेलेपन और तमाम छोटी-बड़ी बीमारियों ने बड़ी मां को तोड़ दिया. एक बार खटिया से लगीं, तो फिर नहीं उठीं. अंत समय में हम सभी उनके पास पहुंच गए थे. केतन ने तो चिकित्सकों की छोटी-मोटी भीड़ जुटा डाली, पर वे बड़ी मा में जीने की इच्छाशक्ति जाग्रत नहीं कर पाए.
अंतिम यात्रा पर जाती बड़ी मां सब कुछ पिताजी को सौंप गई, "लाला, संभालों अपना घर और मुझे ज़िम्मेदारी से मुक्ति दो." मां के झर-झर आंसू बहने लगे थे पता नहीं, इतना कुछ पाने के आनन्द में या बड़ी मां के प्रति स्वयं के दुराग्रह को लेकर पाश्चाताप स्वरूप हो. मैं बड़ी मां को पुकारती रह गई, पर वे सारे रिश्ते-नाते तोड़ सुविकसित चिकित्सा विज्ञान को ठेंगा दिखा इस निष्ठुर संसार से विदा हो गईं.
दूसरे शब्दों में कहूं तो बड़ी मां की मृत्यु यात्रा तो उसी दिन शुरू हो गई थी जिस दिन ताऊजी ने उनका साथ छोड़ा था. मां और बुआ का दुर्व्यवहार झेलती, ताऊजी के सान्निध्य का सख़्त अभाव महूसस करती बड़ी मां तिल-तिल चुकती गईं. यदि उन्हें सब का भावनात्मक सहारा मिला होता, तो परिस्थिति सम्भवतः कुछ और होती, पर अब तो जो होना था हो चुका था!

सुषमा मुनीन्द्र

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