"यह नहीं हो सकता, जब तक अम्मा-बाबूजी हैं मैं इन्हें नहीं छोड़ सकती. मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिससे अम्मा-बाबूजी को किसी प्रकार का भी कष्ट पहुंचे. यही मुझे सीखाया गया है."
"मतलब तुम अम्मा-बाबूजी के लिए मेरी भी भावनाओं का खून कर दोगी?"
"तुम इसका जो भी अर्थ लगाओ, मेरे लिए अम्मा-बाबूजी पहले हैं, बाद में तुम."
मास्टर राम प्रसाद के एक ही लड़का था. बाकी चार लड़कियां थीं, जिनका ब्याह करने में मास्टर साहब की कमर झुक गई थी, एड़ियां घिस गई थीं. बेटा सभी बेटियों के बाद पैदा हुआ था. दरअसल, मास्टर राम प्रसाद ने बेटा पाने की लालसा में चार-चार बेटियों को जन्म वदे दिया था.
जैसी घर की माली हालत थी, उस हिसाब से काफ़ी लाड़-प्यार से पला था बेटा. बी.एससी करने के बाद वह पी.एम.टी. की कोचिंग ज्वाइन करने इलाहाबाद चला गया था. मास्टर साहब जितने घंटे स्कूल में पढ़ाते थे, उससे ज़्यादा समय वे ट्यूशन पढ़ाने में लगाते थे. बच्चों को पढ़ाने का उन्हें बहुत शौक था. वे चाहते थे कि उनके बच्चे कम-से-कम ग्रेजुएट तो हो ही जाएं, और मास्टर साहब की यह मुराद पूरी भी हो गई. बेटे को छोड़ कर उनकी सभी लड़कियां पोस्ट ग्रेजुएट हो गईं.
वे चाहते थे कि उनका बेटा एम.एससी करके पीएचडी करे और किसी कॉलेज में अध्यापक की कुर्सी संभाले, लेकिन लड़के ने एम.एससी करने से इंकार कर दिया, लाड-प्यार में पले लड़के ने साफ़ कह दिया था, "बाबूजी, मैं दो-दो घंटे लैब में नहीं खड़ा रह सकता."
इलाहाबाद में कोचिंग करते रहते हुए लड़का एक सरल लड़की के प्रेम में फंस गया. दोनों ने एक-दूसरे के साथ मरने-जीने की कसम ले ली थीं. शादी करेंगे, तो एक-दूसरे के साथ, नहीं तो सारी ज़िंदगी कुंवारे ही रहेंगे.
सी.पी.एम.टी. में दोनों साथ-साथ बैठे, पर मास्टर साहब का इकलौता बेटा, आंखों का तारा तीन-तीन कोशिशों के बाद भी उसमे सफल नहीं हो सका, जबकि उसकी प्रेमिका पहली ही बार उसमें सफल हो गई. उसने मेडिकल कॉलेज ज्वाइन कर लिया. मास्टर राम प्रसाद का बेटा सड़क छाप मजनुओं की तरह आवारागर्दी करने लगा. मास्टर साहब उसके पीछे हमेशा पड़े रहते थे, जिसका नतीज़ा यह हुआ कि यह कम्पटीशन की तैयारी करने लगा और बैंक में नौकरी पा गया.
नौकरी करते उसे अभी छह महीने ही बीते थे कि लड़कियों के पिता मास्टर साहब के खपरैल के मकान में पंक्तिबद्ध होने लगे. मास्टर साहब ने लड़की के पिता होने की पीड़ा बहुत भोगी थी. उस समय न जाने कितनी बार उन्होंने अपमान का कड़वा घूंट पिया था, जब वे अपनी कन्याओं के लिए सुयोग्य वरों की तलाश कर रहे थे. इसलिए मास्टर साहब विवाह के हर प्रस्ताव पर बड़ी सहानुभूतिपूर्वक विचार करते थे. समय के अनुसार लड़के की राय जानना भी वे ज़रूरी समझते थे. लड़का हर प्रस्ताव पर नाक भौं सिकोड़ता. मास्टर साहब समझ नहीं पाते थे कि आख़िर बेटा चाहता क्या है. कभी-कभी उन्हें भीतर ही भीतर ग़ुस्सा भी आता. लड़का कितना हृदयहीन है, पिता की भी इज़्ज़त करना भूल गया है, पर बेटा करता भी क्या उसके पास तो एक ही हृदय था, जिसे वह पहले ही किसी को अर्पित कर चुका था.
एक दिन मास्टर साहब ने लड़के को अपनी पुश्तैनी छड़ी में इशारा करते हुए अपने पास बुलाया. लड़का भीतर ही भीतर डरा. हालांकि वह २३ साल का हो चुका था, लेकिन जानता था कि बाबूजी का ग़ुस्सा बहुत तेज है, जब वे ग़ुस्से में बोलते हैं, तो लगता है कि आकाश में बिजली कड़क रही है. वह संभलते हुए उनके पास गया और छठी-सातवीं क्लास के बच्चे की तरह उनके सामने बैठ गया.
मास्टर साहब ने उसे प्यार से निहारा. उसके सिर पर हाथ फेरा और बोले, "तनय, तू चाहता क्या है बेटा? तेरे मन में कुछ और हो तो बता."
तनय भीतर ही भीतर चहक उठा, "बाबूजी, एक लड़की है."
"एक लड़की है! दुनिया में तुझे एक ही लड़की नज़र आई?"
"बाबूजी, वह लड़की है, जिससे मैं शादी करना चाहता हूं."
"किसकी लड़की है? कहां रहती है?"
"उसके पिता का नाम श्री राजकुमार है. लड़की इलाहाबाद मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही है, उसका आख़री साल है, इसी शहर में है."
"अच्छा! किस मोहल्ले में. कौन से ब्राह्मण हैं?"
"ब्राह्मण नहीं है बाबूजी."
"एस.सी. या एस.टी. में आते हैं."
"तेरा दिमाग़ ख़राब हो गया है. तूने हरिजन लड़की को पसंद किया. मेरे कुल-खानदान का नाम रोशन करने चला है."
"तो ठीक है बाबूजी, मैं सारी उम्र शादी ही नहीं करूंगा. लड़की भी नहीं करेगी. यदि ज़बरन किसी अन्य के साथ उसकी शादी करने की कोशिश की गई, तो वह आत्महत्या कर लेगी. वह न रही, तो मैं भी जीवित रह कर क्या करूंगा?"
"तू मुझे धमकी देना बंद कर. यह ब्राह्मण की संतान मर जाएगा, पर किसी हरिजन लड़की को अपनी बहू नहीं बनाएगा."
"बाबूजी मैंने आपको कई बार जाति-पाति के ख़िलाफ़ भाषण देते हुए सुना है."
मास्टर साहब ने कोई उत्तर नहीं दिया. वे शोकग्रस्त हो उठे थे. क़रीब महीने भर से अधिक समय हो गया, लेकिन उस विषय पर कोई चर्चा नहीं हुई. तनय के विवाह के प्रस्ताव आते जा रहे थे. 'लड़का अभी शादी नहीं करना चाहता.' यह कहकर बाबूजी सभी प्रस्तावों को टालते रहे. एक शाम तनय ने आकर उनसे कहा, "बाबूजी, शोभा के पापा आए हैं."
"कौन शोभा?"
"वही लड़की, जिसकी मैंने आपसे चर्चा की थी."
"तूने उन्हें बुलाया था?"
"नहीं बाबूजी, हो सकता है शोभा ने भेजा हो."
"मुझे किसी से नहीं मिलना, कह दे मैं घर पर नहीं हूं."
"बाबूजी आप तो हमेशा सच बोलने की शिक्षा देते रहे हैं. घर आए व्यक्ति का अपमान तो नहीं करना चाहिए."
"ठीक है, भेज दे उन्हें."
थोड़ी ही देर में एक सुदर्शन चेहरा आकर मास्टर साहब के सामने खड़ा हो गया. गौर वर्ण, लंबा कद, गोल भरा चेहरा, करीने से कटे बाल, आंखों पर सुनहरे फेम का क़ीमती चश्मा, दूधिया रंग की पैंट-शर्ट.
आगन्तुक ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया. मास्टर साहब ने उन्हें बैठने का इशारा किया. बैठते ही वह कहने लगे, "मुझे राजकुमार कहते हैं."
मास्टर साहब की आंखें आश्चर्य से फैल गई थीं. वे चुपचाप राजकुमार जी को निहारते रहे. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या उत्तर दें. राजकुमार उनका असमंजस भरा चेहरा भलीभांति पढ़ चुके थे.
"ख्वासपुरा में मेरा घर है. मेरे तीन बेटियां और दो बेटे हैं. दोनों बेटे इन्जीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहे हैं. दो बेटियां मेडिकल कॉलेज में हैं. तीसरी बेटी इन्टर में है. बड़ी बेटी का यह आख़री साल है. मेरी बड़ी बेटी शोभा आपके बेटे तनय से शादी करने की हठ कर बैठी है. तनय उसका सहपाठी रहा है. मैंने उसे बहुत समझाया कि इस देश में जातीयता की जड़े बहुत गहराई तक गई हैं. जातियां कर्म के आधार पर बनी थीं, लेकिन धीरे-धीरे जन्म को ही जातीयता का आधार मान लिया गया. एक ब्राह्मण, हरिजन लड़की को अपनी बहू बनाने का साहस कैसे करेगा?
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लेकिन शोभा की मां ने मुझे समझाया कि एक बार मैं आपसे मिलकर आपकी राय जान लूं. हो सकता है कि आप जाति-पाति को न मानते हों. इसलिए आपको कह दिया. मेरी लड़की बड़ी ज़िद्दी है. मैं जानता हूं कि वह कहीं और शादी करने को तैयार नहीं होगी. मैंने यदि उस पर दबाव डाला, तो मैं उसे खो बैठूंगा."
"आप करते क्या हैं?”
"मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र विभाग में रीडर हूं. देखिए, आप एक बार मेरी लड़की, मेरी पत्नी और मेरे दूसरे बच्चों से मिल लें. उनसे बातचीत कर लें. हमारा रहन-सहन देख लें. किसी प्रकार की औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है, शायद आपको मेरा प्रस्ताव पसंद आ जाए."
मास्टर साहब अब भी कुछ नहीं बोल सके. उन्हें लगा कि जैसे आगंतुक ने उन्हें सम्मोहित कर लिया हो. अचानक उनके मुख से स्वतः फूट पड़ा, "कब आएं?"
"अभी चलिए, अपनी मिसेज़ को भी ले लीजिए, मैं आप लोगों को घर छोड़ जाऊंगा."
"ठीक है."
और मास्टर साहब सपत्नी तैयार हो गए. वहां से लौटकर आए, तो उनका सम्मोहन और गहरा गया था. घर के बाहर का लॉन, साज-सज्जा, घर के सदस्यों का सुरुचिपूर्ण व्यवहार, रहन-सहन का ऊंचा स्तर, बड़ी बेटी शोभा, छोटी विभा, सबसे छोटी निशा, बड़ा बेटा वैभव, छोटा मनोज, राजकुमार की पत्नी कल्याणी, उनका रंग-रूप, कद काठी, बातचीत का ढंग, सभी कुछ मास्टर साहब को प्रभावित कर गया. उनके मुख से स्वत ही निकल पड़ा,
"नहीं नहीं, ये हरिजन नहीं हो सकते, न जन्म से न कर्म से... मेरे बेटे की पसंद बुरी नहीं है."
रातभर वे राजकुमार के बारे में सोचते रहे. वे शोभा से बहुत प्रभावित हुए थे. वही दशा मास्टर साहब की पत्नी की भी थी. सुबह होते-होते उन्होंने निर्णय ले लिया, जिसकी सूचना उन्होंने फोन पर राजकुमार को दे दी.
दो महीने बीतते बीतते तनय और शोभा की शादी हो गई. शोभा का एम.बी.एस. पूरा हो चुका था. दौड़-धूप करके शोभा की नियुक्ति नज़दीक ही एक स्वास्थ्य केंद्र पर करवा दी गई. शोभा ने कुछ ही महीनों में मास्टर साहब के पूरे परिवार को अपनी व्यवहार कुशलता के बल पर अपने बस में कर लिया.
तनय राजसी प्रकृति का व्यक्ति था. उसे अपने घर का खानपान अब पसंद नहीं आ रहा था. धीरे-धीरे उसका ध्यान चिकन, मीट, बिरयानी, कबाब, कीमा, मछली, आमलेट आदि की ओर तेजी से जाने लगा था. मास्टर साहब का खपरैल वाला चिरपुरातन मकान अब तनय को अपने स्तर के प्रतिकूल लगने लगा था. शोभा उन्हें
समझाती रुपए एकत्र होने दो, फिर ज़मीन लेकर कहीं ढंग का मकान बनवा लेंगे."
"पर अम्मा-बाबूजी भी तो साथ होंगे."
"क्यों?.. वे कहां जाएंगे? वे तो रहेंगे ही."
"अब मुझे ये साग-पात अच्छा नहीं लगता. मुझे मांसाहारी भोजन चाहिए. गला तर करने के लिए अंग्रेज़ी शराब और साकी बनी मेरे सामने खड़ी तुम. यह तभी संभव होगा, जब हम अपना अलग मकान लेकर रहे."
"यह नहीं हो सकता, जब तक अम्मा-बाबूजी हैं मैं इन्हें नहीं छोड़ सकती. मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगी, जिससे अम्मा-बाबूजी को किसी प्रकार का भी कष्ट पहुंचे. यही मुझे सीखाया गया है."
"मतलब तुम अम्मा-बाबूजी के लिए मेरी भी भावनाओं का खून कर दोगी?"
"तुम इसका जो भी अर्थ लगाओ, मेरे लिए अम्मा-बाबूजी पहले हैं, बाद में तुम."
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"यही तुम्हारा प्रेम है?"
"तुम प्रेम की ग़लत परिभाषा दे रहे हो. प्रेम संकुचित नहीं होता, सच्चा प्रेम जोड़ता है, तोड़ता नहीं."
यह कहकर शोभा रसोई में जाने के लिए अपने कमरे से निकली तो सामने मास्टर साहब को खड़े देखा, तो ठिठक गई. मास्टर साहब ने आगे बढ़कर उसके सिर पर हाथ रखा और कहने लगे, "बेटी, सचमुच तुम बड़े घर की लड़की हो. तुम्हारे सामने मेरा ही खून छोटा हो गया. हमारा चिरपुरातन बड़े होने का गर्व आज खण्ड-खण्ड होकर बिखर गया. सुखी रहो बेटी, तनय हमेशा तुम्हारे अनुकूल रहे." कहते-कहते मास्टर साहब का गला भर गया. उसके बाद और कुछ नहीं कह सके, वे बाहर बैठक में जाने के लिए आगे बढ़े ही थे कि शोभा ने उन्हें रोकते हुए कहा, "बाबूजी, आपने मुझे इतना आशीष दिया, बदले में मुझे अपनी चरण रज तो लेने दें." मास्टर साहब के बढ़ते कदम रुक गए. शोभा ने आगे बढ़कर उनकी चरण धूल अपने मस्तक पर लगाई. मास्टर साहब कुछ सोचते हुए से अपनी जगह पर खड़े रह गए.
- रामदेव लाल श्रीवास्तव
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