शिवस्तुति बुदबुदाती मां अपनी सांवली, अनगढ़ उंगलियों से रामायण के पन्ने पलटते हुए मुझे हवनकुंड में आग ले आने का इशारा करतीं. मैं दरवाज़े से निकलते-निकलते साक्षात गौरी बनी मां को देखती, जो पति के सामने ही मृत्यु का वरदान मांगते हुए आंखें मूंद लिया करती थीं. शायद यह उनकी निश्छल बिनती ही थी, जो भगवान ने सुन ली और पूरी कर दी.
मैंने सहमते हुए घर में कदम रखा. सब कुछ अव्यवस्थित था. चारों ओर अनाड़ी हाथों की स्पष्ट छाप थी. घर भर में बिखरी किताबें, काग़ज़, जूते-चप्पलें मां की अनुपस्थिति का एहसास दिला रही थीं. मां थीं, तो घर दमकता रहता था. मजाल है जो एक तिनका भी इधर से उधर हो जाए. उसी घर में आज मक्खियां भिनभिना रही थी. घर में फैला सन्नाटा हृदय की धड़कनें बढ़ा रहा था. चारों ओर भटकती मेरी निगाहें पूजा घर के सामने ठहर गई. ठीक सामने एक छोटा सा सफ़ेद मंदिर. शादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर पापा का दिया यह अप्रतिम उपहार मां को प्राणों से भी ज़्यादा प्यारा था. हर सुबह स्नान ध्यान के बाद उसे आंचल से साफ़ करते समय उनका चेहरा बहुरंगी फुहारों से नहा उठता था. पति का उपहार व भगवान की पूजा- प्रणय और भक्ति के दो रंग अपनी-अपनी छाप छोड़ने की होड़ में तीसरा बन जाते थे. बड़े-बड़े बच्चों के सामने मां की आंतरिक अनुभूतियां छुपाए न छुपतीं, तो वे बिना बात ही हंस पड़ती थीं.
पूजा का कमरा वैसा ही था, जैसा वे रखती थीं. मंदिर के बगल में एक तरफ़ करीने से लगी रामायण-गीता आदि धार्मिक किताबें, तो दूसरी तरफ़ चंदन, रोली, सिंदूर, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चावल, रुई, कलावा और तांबे के बरतन, लगा जैसे थोड़ी ही देर में मां रामायण का सस्वर पाठ करने लगेंगी. मैं कुछ देर तक यूं ही पूजाघर के सामने दरवाज़े से सिर टिकाए खड़ी रही. कंधे पर मृदुल स्पर्श पाकर मैं घूमी, तो सामने पापा खड़े थे. मैं ख़ुद को रोक नहीं पाई और पापा की बांहों में झूल गई. "पापा ये क्या हो गया" कहना चाहती थी, मगर आवाज़ जैसे गले में फंस कर रह गई, जैसे तैसे कह पाई, "आपने मुझे पहले ख़बर भी नहीं दी…"
"हार्ट फेल की पहले से क्या खबर देता बेटा और फिर मृत शरीर बहुत बड़ा भार बन जाता है, जिसे ज़्यादा देर घर में नहीं रखा जा सकता."
पापा की उंगलियां हौले-हौले मेरा सिर सहला रही थीं. कभी-कभी शब्दों से परे भी कितना कुछ संप्रेषित हो जाता है. अपने सिर पर उनकी उंगलियों के स्पर्श से मैंने महसूस किया कि तिल-तिल टूटने लगे हैं पापा. एक ज़माने का लौह पुरुष भीतर ही भीतर खोखला हो गया है. मां थी तो बड़ा सहारा था. अब नितांत अकेले रह गए हैं. ज़िम्मेदारियां कम थोड़ी ही हैं. आशा की शादी करनी है, छोटे की पढ़ाई पूरी करनी है. शायद ये ज़िम्मेदारियां ही उन्हें बिखरने से रोके हुए हैं.
दो-तीन दिनों में मेहमानों से घर भर गया. चाची-ताई-बुआ सब अपने-अपने बाल-बच्चों के साथ आ गईं. घर में भीड़ तो थी, पर एक अजीब सी ख़ामोशी थी. बुआ चाची की कानाफूसियां थीं, तो कहीं मर्दों का जमावड़ा था. बहुएं और लड़कियां काम में लगी हुई थीं. बस नहीं थी तो मां… मेरे विवाह के समय कभी लोगों की आवभगत करती मां, एकांत में बेटी के बिछोह में स्नेह विगलित दुख के आंसू पोंछती मां. रसोई में बैठी आंच से तपते चेहरे वाली मां, आते-जाते मेहमानों के पैर छूती मां, भंडार से सामान निकालती मां, मुंह छिपाए रोते पापा को आत्मीय झिड़कियां देती मां... मां की एक-एक छवि चलचित्र सी मेरी आंखों के सामने तैर रही थीं.
मां की मृत्यु पर संबंधियों के औपचारिक व्यवहार ने हम तीनों भाई-बहनों को स्तब्ध कर दिया था. तेरहवीं के दिन महापात्र को सामान देते समय मुंह में दुपट्टा दबाकर सुबक पड़ने वाली आशा पीछे से आते समवेत रूदन को सुन हिचकियां दबा कर अंदर भाग गई. छोटे के पास बैठी मैं मूक हो गई थी. आशा फिर बाहर जाने को हुई कि आंगन से आती चाची की स्वर लहरी, "हाय जीजी, तुम हमें छोड़ कर क्यों चली गई?" सुन कर ठिठक गई. "दीदी, पापा ने इन सबकी ढोंग दिखाने के लिए क्यों बुला लिया? ये वही चाची है, जो ज़िंदगीभर मां को ताने मार-मार कर छीलती रही हैं." आशा ने भीतर का दुख और ग़ुस्सा दबाकर कहा, "क्या कहूं, क्यों बुला लिया. न बुलाते तो शिकायतों का अटूट सिलसिला पापा को उम्रभर चैन से न जीने देता. उन्हें भी समाज में रहना है. और यही लोग समाज है. आज के सगे भाई-बहन कल रिश्तेदार और परसों समाज बन जाते हैं."
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"आशा, जरा हलवाई से मुन्ने को लड्डू तो दिलवा दें, बड़ी देर से रो रहा है." पसीना पोंछती हुई चाची आई और धम्म से पंखे के सामने बैठ गई.
"चाची, अभी रो कौन रहा था?" आशा ने हैरानी से पूछा, "अरे मैं ही थी, इस मौक़े पर जब कड़ाही में पहली पूरी पड़ती है, तो रोया जाता है. बड़ी जीजी बाहर बैठी थीं, इसलिए मुझे ही पहली पूरी डालने की रस्म निभानी पड़ी."
आशा का चेहरा ग़ुस्से से तमतमा उठा.
मुझे डर लगा कि वह कुछ अनाप-शनाप न कह बैठे. लेकिन चाची आंगन में नवागत पड़ोसन को देख पल्ले से मुंह दबाती कमरे से निकल गईं. वे जीजी के प्रति शोक प्रकट करने का कोई भी मौक़ा छोड़ना नहीं चाहती थीं. कुछ ही देर में उनके औपचारिक रूदन का स्वर वातावरण में फैल गया. चार-पांच महिलाएं उनके सिर और पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्हें चुप कराने लगीं. छोटे मेरे पैर पर सिर रखे-रखे सो गया गया था. उसे लिटाकर उठी, तो अपने और आशा के बारे में सुनाई पड़ा, "लड़कियां कहां हैं?"
"भीतर बैठी हैं." "सुना है बेटियों ने एक भी आंसू नहीं
गिराया… पत्थर का कलेजा है दोनों का." इस पर क्या कहा गया, सुनाई नहीं पड़ा. बाहर गई, तो सब तिरस्कृत निगाहों से घूर रही थीं.
मां चली गई, पर समय नहीं रुका. तेरहवी हो जाने के बाद धीरे-धीरे सारे मेहमान चले गए. आशा का कॉलेज, छोटे का स्कूल और पापा का ऑफिस जाना शुरू हो गया था. मगर घर-आंगन के चप्पे-चप्पे पर एक अजीब सा शून्य फैल गया था. पापा को ऑफिस जाने में रोज़ देर होने लगी. छोटे अक्सर बिना खाए जाने लगा. आशा का कॉलेज भी आज दिन छूटने लगा. मां के अचानक चले जाने के बाद पता लगा कि हम सब कितने आश्रित थे उन पर. आश्चर्य तब हुआ जब मैं नाश्ता लेकर गई, तो देखा छोटे भी पहले घंटी ठुनकने के बाद तैयार होता था. फिर नखरे करके खाना खाता, मां के लाड़-प्यार ने उसे अब भी छोटा बना रखा था, वरना बारह-तेरह साल का लड़का छोटा नहीं होता. आज तैयार होकर ख़ुद नाश्ता करने बैठ गया. आधा परांठा खाया और उठ गया, "दीदी भूख नहीं है."
"खा लो भैया, दिनभर भूखे रहोगे." मैं तो जानती भी नहीं कि मां इसे कैसे मनाती थी. कुछ नहीं सूझा तो पूछा, "मां की याद आ रही है?" उसने आंखें नीची कर लीं, फिर बोला, "दीदी, क्या अब मां कभी वापस नहीं आ सकतीं?"
"नहीं भैया." मैंने मुश्किल से अपने को रोका, वह हिचकियां लेता हुआ मुझसे लिपट गया.
"यह क्या हो रहा है? छोटे, तुम्हें स्कूल नहीं जाना? चलो बस्ता उठाओ."
पापा नहा कर सीधे कमरे में चले आए थे, छोटे ने बस्ता उठाया और चुपचाप निकल गया. मैं बाहर आई. वहां आशा चौखट पकड़े रो रही थी. मुझे देखते ही लिपट गई, पीछे-पीछे पापा भी आ गए.
"आशा, बेटा तुम तो धीरज रखो, तुम्हे देखकर छोटे भी रोएगा. चलो खाना लगाओ." भारी आवाज़ में पापा ने कहा.
इसके बाद दो-चार दिन घर व्यवस्थित करने में निकल गए. अकेला घर काटने को दौड़ रहा था. चारों ओर मां का स्पर्श विह्वल कर रहा था. उस दिन इतवार था. सब लोग घर में ही थे. मैं नहाकर निकली, तो देखा पापा गंदे कपड़ों का ढेर लगाए बैठे थे. मैंने ड्राइक्लीन करने वाले कपडे एक तरफ़ रखे और बाकी कपड़े बाथरूम में डाल आई. खाना लगाकर पापा को बुलाने गई, तो देखा वे बाथरूम में बैठे बनियान में बहुत सा साबुन लगाए उसे धोने की कोशिश कर रहे हैं.
"ये क्या पापा?" मैंने उनके हाथ से बनियान छीन ली, "आप छोड़िए, मैं धो लूंगी."
"तुम कब तक घोओगी. फिर तुम्हारे जाने के बाद अकेली आशा क्या-क्या करेगी. तुम्हारा क्या ठिकाना, कब अशोक लेने आ जाए."
सच ही तो कह रहे हैं पापा, मैं तो भूल ही गई कि मुझे जाना भी है. पता नहीं गुड़िया कैसे रहती होगी. बेचारी, है भी कितनी सी. मैं तो तार पाते ही अशोक के साथ चली आई थी. इतनी छोटी बच्ची मेरे बिना कैसे रहती होगी. गुड़िया के भोले मुख की स्मृति मुझे उदास कर गई. क्या करूं? चली जाऊं या उसे यहीं बुला लूं. मुझे छोड़ने आए अशोक दो दिन रुक कर चले गए थे. तब से कोई पत्र भी नहीं आया, बीस-पच्चीस दिन होने को आए. उन्होंने तो कह दिया था कि जब ठीक समझो, आ जाना. इस बीच अशोक ने अम्माजी को बुला लिया होगा.
गुड़िया परेशान कर देती होगी. क्या पता भूखी ही स्कूल चली जाती हो. एकाएक मेरे हृदय में ऐसी वेदना उठी कि लगा किसी भी तरह गुड़िया मुझे मिल जाए और मैं उसे अंक में भींच लूं. "दीदी, खाना खाने चलो." आशा ने कहा तो मैं चौंक गई, "अरे, पापा पहुंच भी गए." मैं अनमनी सी जाकर बैठ गई, सब चुपचाप खा रहे थे. बीच-बीच में पापा सबको बहलाने की कोशिश कर रहे थे. "नीता, तुम गुड़िया को क्यों छोड़ आई?" पापा ने पूछा.
"जी मैं एकदम से चली आई थी ना. उस समय सुबोध और तारा वहीं थे इसलिए…" मैंने प्लेट में उंगलियां घुमाते हुए कहा.
"उसे ले आती, तो इन दोनों का मन भी लगा रहता. वहां कैसे रहती होगी?" "अम्माजी आ गई होंगी."
"दीदी, गुड़िया को बुला लो ना." छोटे ने कहा.
"अब दीदी कितने दिन के लिए बुलाएगी उसे, इसे भी तो जाना है." फिर मेरी ओर घूमकर बोले, "नीता, तुम बता देना, तुम्हारे लिए क्या-क्या करना होगा. भई मुझे तो कुछ मालूम नहीं है."
सचमुच पापा को कुछ नहीं मालूम था. सारे आडम्बर मां ही समेटती थीं. किसको क्या देना है, कहां क्या व्यवहार निभाना है- सब वहीं बताती थीं. हर बार मेरे जाने के चार दिन पहले से ही तैयारियां शुरू कर देती थीं. ढूंढ़-ढूंढ़ कर मेरी पसंद की चीज़ें बनाती थीं. आशा अक्सर कहती, "दीदी, तुम जल्दी-जल्दी आया करो, तो हमारा भी भला होता रहेगा." और फिर चलते समय सामान की तैयारी कभी डलिया बांध रही हैं, तो कभी मिठाई बना रही हैं. विदाई में मेरी साड़ियां और गुड़िया को कपड़े ज़रूर देती थीं. चलते समय अशोक का टीका भी ज़रूर करती थीं. उनकी डलिया देखकर अशोक कहते थे, "ये सब कैसे जाएगा? वहां सब मिलता है मां."
सुनकर मां की आंखें भर आतीं, "जानती हूं बेटा, तुम्हारे घर में कोई कमी नहीं है. पर मुझे यह सोच कर संतोष मिल जाता है कि अपने घर पहुंच कर भी नीता चार-छह दिन मेरे हाथ की बनी चीज़ें खा लेगी."
"ऐसे समय कुछ नहीं दिया जाता पापा और मैं अभी जा ही कहां रही हूं?" मेरे स्वर में पीड़ा छलक पड़ी.
"दीदी, तुम मत जाना. गुड़िया को भी यहीं बुला लो." छोटे ने लिपट कर कहा.
"और अगर आज ही अशोक आ गए तो..?" पापा ने कहा तो दोनों के चेहरे उत्तर गए. आशा उठ गई, पर जाते-जाते फुसफुसा गई. "दीदी, अभी जाओगी तो मेरी पढ़ाई चौपट समझो."
कैसे जाऊं इन्हें छोड़कर? आशा पढ़ नहीं पाएगी. छोटे रो-रो कर आधा हो जाएगा. नहीं नहीं, मैं अभी नहीं जाऊंगी. गुड़िया को भी यही बुला लूंगी, पर फिर अशोक कैसे रहेंगे? अम्माजी ज़्यादा दिन नहीं रुक सकेंगी, क्योंकि उनके बिना गांव में बाबूजी को परेशानी हो जाएगी. तारा पढ़ेगी या घर संभालेगी? हे भगवान, मैं क्या करूं? चाची को बुला लूं… लेकिन चाची के सामने छोटे के सहमे चेहरे ने मुझे सिहरा दिया.
मैं चुपचाप जाकर मां के पूजाघर में बैठ गई. लगा जैसे सारी उलझनों से मुक्त होकर शांति और पवित्रता के घेरे में आ गई हूं. इस शांति को बूंद-बूंद घुटकते हुए पीतल की मूर्ति को हाथ में लेकर सिंदूर लगाया, तो लगा मां पीछे खड़ी है, "अरे, पहले नहला तो ले भगवान को." और फिर वही चिर-परिचित स्नेहिल हंसी. मेरी आंखों के सामने वे तमाम दृश्य ज्यों के त्यों तैरने लगे. पूजाघर में अगरबत्ती की भीनी-भीनी ख़ुशबू, छोटी सी घंटी की खनक… अशुद्ध उच्चारण में शिवस्तुति बुदबुदाती मां अपनी सांवली, अनगढ़ उंगलियों से रामायण के पन्ने पलटते हुए मुझे हवनकुंड में आग ले आने का इशारा करतीं. मैं दरवाज़े से निकलते-निकलते साक्षात गौरी बनी मां को देखती, जो पति के सामने ही मृत्यु का वरदान मांगते हुए आंखें मूंद लिया करती थीं. शायद यह उनकी निश्छल बिनती ही थी, जो भगवान ने सुन ली और पूरी कर दी.
"दीदी तुम्हारा पत्र आया है."
आशा ने एक लिफ़ाफ़ा मेरी गोद में डाल दिया. अशोक का संक्षिप्त सा पत्र था. "गुड़िया बीमार है, मैं दस की सुबह आ रहा हूं." पढ़कर पत्र मैंने रामायण में दबा दिया, और बैठी की बैठी रह गई निश्चल, निःशब्द, तारीख़ याद करने की कोशिश की तो याद आया, दस तारीख़ तो कल ही है.
- पूनम चतुर्वेदी
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