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कहानी- अंतिम संस्कार (Short Story- Antim Sanskar)

बेटों से कहा, "बेटा पेंशन के पैसे तो मेरे पास रहने दिया करो." पर उन तीनों ने टका-सा जवाब दे दिया कि इस उम्र में पैसा का क्या
करोगी. बना बनाया खाना मिलता है न…
अम्माजी स्वाभिमानी थीं. बेटियों से कभी कुछ न कहतीं और न ही किसी से मांग सकती थीं. अपने घर में जैसे गुज़र हो रही थी ज़िंदगी गुज़ार रही थी.

"पापा… पापा… जल्दी चलो मम्मी आपको बुला रही हैं. सात वर्षीय रोहन ने आकर राकेश से कहा.
"क्या हुआ, क्यों बुला रही हैं?" राकेश ने बेटे से पूछा.
"वो दादी कुछ बोलती नही." रोहन बोला.
"क्या!" राकेश परेशान हो अम्मा के कमरे की ओर भागा.
"क्या हुआ अम्मा को?" उसने अपनी पत्नी सुमन से पूछा, जो कमरे मे पहले से ही अम्मा के पास थी.
"देखो न अम्मा को कुछ बोलती नही." राकेश ने अम्मा को हाथ लगा उठाना चाहा, मगर ये क्या अम्मा के तन मे कोई हरकत ही न थी.
हिलाया-डुलाया, अम्मा-अम्मा… आवाज दी पर कोई फ़ायदा नही. अम्मा परलोक गमन कर चुकी थी.
सुमन दहाड़ें मार रोने लगी और राकेश से बोली, "जाइए दोनो देवरजी को ख़बर करिए."
"हां,जा रहा हूं." बोलकर राकेश बाहर आंगन में भागा और सबको अम्मा के कमरे में आने के लिए आवाज़ दी.
राकेश की आवाज़ सुनकर सभी अम्मा के कमरे की ओर दौड़े. विमला देवी, हां ये नाम है अम्माजी का. पति महेश प्रसाद बिजली विभाग में कार्यरत थे. तीन बेटे राकेश, रमेश, दिनेश और दो बेटियां रूचि, रानी थी. बड़ा-सा घर था. खेती-बाड़ी भी बहुत थी. रुपए-पैसे की कोई कमी नहीं थी.
तीनों बेटों की शादियां हो चुकी थी. सुमन, रेनू, कंचन तीनों बहुएं थीं. बेटियां अपने घर की हो चुकी थी.
तीन बेटे बहू, पोते-पोती से भरापूरा परिवार था अम्माजी का. पूरे घर पर अम्माजी का ही राज चलता था. सब लोग एक ही साथ रहते थे. कोई भी काम बिना उनकी मर्जी के नही होता था.
पर नियति को अम्माजी की ख़ुशी रास न आयी या न जाने किसकी नज़र लग गयी अम्माजी की ख़ुशियों को. महेशप्रसाद जी हृदयाघात से अचानक चल बसे. अम्माजी पर मानो दुखों का पहाड़ गिर पड़ा.
पिता के गुज़रने के छह महीने में ही तीनो बेटों ने घर का बंटवारा कर डाला. तीनों बेटों का पूरे घर पर कब्ज़ा था और अम्माजी के हिस्से आयी छोटी-सी कोठरी. जहां उनका सामान पहुंचा दिया गया था. सामान के नाम पर था भी क्या कुछ कपड़े और उनका बिस्तर.
अब बेटे ही खेती-बाड़ी का, राशन-पानी का हिसाब रखते थे. अम्माजी को मिलनेवाली पेंशन भी तीनों बेटे घर ख़र्च के नाम पर ऐंठ लेते थे. अम्मा के पास कुछ भी पैसा नही छोड़ते थे.
अम्माजी का खाने-पीने का भी बंटवारा हो गया था.
सुबह का चाय-नाश्ता बड़ी बहू, दोपहर का खाना मंझली बहू और रात का खाना छोटी बहू के यहां मिलता था. वो भी एक बार परोसने के बाद दुबारा कोई न पूछता था. अम्माजी तीनो बहुओं के काम करती थी, मगर अपनी इच्छा से न कुछ खा सकती थी, न ही किसी सामान को हाथ लगा सकती थीं.
अगर घर मे कोई मेहमान आ जाए, तो अम्माजी को अपने कमरे में ही रहने की सख्त हिदायत थी. अगर भूल से भी मेहमान के आने पर सामने आ जाए, तो तानों की बौछार शुरू हो जाती थी. एक बार बड़ी बहू के कोई रिश्तेदार आए थे. अम्माजी वही बैठ सब्ज़ी काट रही थी. मेहमान के आग्रह पर एक बिस्किट खा लिया था, तो बड़ी बहू ने कितना कुछ सुनाया था कि इस उम्र में भी ज़ुबान पर लगाम न है, चटोरेपन की हद पार कर दी है. मेहमान के सामने मेरी नाक कटा दी कि हम खाने को नहीं देते… और भी न जाने कितना कुछ.

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उसके बाद से अम्माजी को सख्त हिदायत मिल गयी कि मेहमान के आने पर अपने कमरे से बाहर न निकलने की.
अम्माजी बहुत दुखी होती थीं, पर किससे कहे.
बेटों से कहा, "बेटा पेंशन के पैसे तो मेरे पास रहने दिया करो." पर उन तीनों ने टका-सा जवाब दे दिया कि इस उम्र में पैसा का क्या करोगी. बना बनाया खाना मिलता है न…
अम्माजी स्वाभिमानी थीं. बेटियों से कभी कुछ न कहतीं और न ही किसी से मांग सकती थीं. अपने घर में जैसे गुज़र हो रही थी ज़िंदगी गुज़ार रही थी.
इधर कुछ दिनों से तबीयत सही नही थी. बेटों से कहा कि डॉक्टर को दिखा दो, मगर किसी ने भी ध्यान न दिया.
अम्माजी की हालत बिगड़ी, तो स्थानीय अस्पताल से दवा लाकर दे दी गयी, पर अम्माजी की हालत में सुधार न आया.
बहुओं को सिवाय अपने समय का खाना पहुंचाने के सिवा और कोई मतलब ही न था.
अम्माजी अपने कमरे में ही सिमट कर रह गयी थीं. कभी-कभार बेटे हालचाल ले लेते थे. पोते-पोती भी कमरे में कभी-कभार जाकर खाना पहुंचा देते थे और बरतन उठा लाते थे. बस, इसके सिवाय कोई और मतलब न था किसी को.
आज जब बड़ी-बहू चाय लेकर गयी थी, तो अम्माजी की हालत देखकर अपने पति को बुला भेजी थी.
अम्माजी स्वर्ग सिधार चुकी थीं. उनका पार्थिव शरीर आंगन में लाया जा चुका था. बेटियों को भी ख़बर पहुंचा दी गयी थी. वे भी सपरिवार आ गयी थीं. रो-रोकर बुरा हाल था कि अम्मा मरते-मरते मर गयी, पर किसी से भी अपना दुख-परेशानी नहीं बतायीं. न ही हम लोगों के साथ रहने गयी कि बेटी के घर रहना शोभा नही देता.
अब अम्माजी के अंतिम संस्कार की तैयारी होनी थी, पर कमरे के अंदर तो अलग ही कोहराम मचा हुआ था कि अंतिम संस्कार कैसे हो, कितना ख़र्चा होगा, कैसै किया जाए… तीनों बेटे-बहू में बहस चल रही थी.
राकेश, "मै तो कहता हूं कि जितना भी ख़र्चा हो तीनों लोग बराबर लगाएंगे."
रमेश, "न भैया, मेरे पास इतना ना है. मैं तो कहता हूं कि कम से कम ख़र्चा करो."
दिनेश, "क्यों ना हम अम्मा को विद्युत शवदाह गृह ले जाए, वहां ख़र्च भी कम होगा.
राकेश, "अरे, पर समाज-बिरादरी में तो मुंह दिखाना है ना. अंतिम संस्कार का सामान, पंडित और भोज का ख़र्च मिलाकर कम से कम सत्तर-अस्सी हज़ार का तो आएगा ही."
रमेश, "पर अभी मेरे पास इतना पैसा नहीं है. आप लोग लगा दो मुझसे बाद में ले लेना."
दिनेश, "मेरा तो काम अभी वैसे ही मंदा चल रहा है और अब तो अम्मा की पेंशन भी बंद हो गयी, वो भी नुक़सान हुआ."
बाहर सब सामान के आने का इतंज़ार कर रहे थे और अंदर ख़र्च कौन करे इस पर बहस हो रही थी. तीनों में से कोई भी ख़र्च करने को तैयार ही न था. तीन बेटे मिलकर भी एक मां का अंतिम संस्कार का सामान ना ला पा रहे थे. बहस की आवाज़ बाहर तक आ रही थी.
दोपहर हो रही थी, पर कोई नतीजा न निकला. अम्माजी का पार्थिव शरीर अंतिम विदाई का इतंज़ार कर रहा था. लोगों में कानाफूसी शुरु हो गयी थी.
तभी किसी व्यक्ति ने आकर राकेश को आवाज़ दी. राकेश को बाहर बुलाया गया.
उस व्यक्ति ने सबके सामने राकेश के हाथ में एक लाख रुपए रखे और बोला, "इन पैसों से अम्माजी की अंतिम विदाई का सामान ले आओ और बाकी ख़र्च भी इसमें हो जाएगा."
"मगर ये पैसै मैं कैसे ले सकता हूं. फिर उधार के पैसे से अम्मा की विदाई… न न ये नहीं हो सकता."
"ये पैसे उधार नहीं दे रहा हूं, बल्कि उधार चुका रहा हूं." व्यक्ति ने जवाब दिया.
"मगर कौन-सा उधार? हमें इसके बारे में कुछ नहीं पता है." राकेश बोला.
"जी, मैंने आपके पिताजी से सत्तर हज़ार रुपए उधार लिए थे अपनी बेटी की शादी के लिए. उनके देहांत के बाद जब मैंने अम्माजी को रुपए लौटाने चाहे, तो उन्होंने कहा कि अभी अपने पास रखे रह, जब मुझे ज़रूरत होगी, तो ब्याज़ लगाकर दे दियो.
तब से ये पैसे मैंने संभाल कर रखे थे, जो आज तक के ब्याज़ लगाकर एक लाख हो गए हैं. आज अम्माजी के देहावसान की ख़बर मिली, तो मुझे लगा कि आज उनकी ज़रुरत का समय आ गया है. इन पैसों को अम्माजी की अंतिम विदाई में लगा दीजिए, ताकि उनकी अंतिम विदाई हो सके आत्मसम्मान से!"

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"वाह! अम्माजी बड़ी ही स्वाभिमानी महिला थी. अपनी अंतिम विदाई का भी इतंज़ाम कर रखी थी कि किसी पर भार न पड़े और वो सम्मान से विदाई ले सके इस संसार से." वहां उपस्थित लोगों में से एक व्यक्ति ने कहा.
सभी की आंखें नम थीं और तीनों बेटे-बहू के सिर शर्म से झुके हुए थे.

- रिंकी श्रीवास्तव

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Photo Courtesy: Freepik


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