"पर किसके लिए सोमी? वह जो तुम्हें नहीं मिला, उसके लिए? पर क्या जो तुम्हें मिला, उसका सम्मान किया है तुमने?" शान्तनु ने सोमी की आंखों में झांका. गरम सांसों की तेज़ रफ़्तार सब कुछ समेट लेना चाहती थी. आंचल सीने से ढलक गया. प्रिय का मादक स्पर्श पोर-पोर में सुधा बन घुल रहा था. मानो सारे बंधन टूट जाते आज…
जीवन अपने अंतिम पड़ाव पर है, बस चंद सांसें बची हैं मेरे पास. वादा किया था तुमने कभी कि अंतिम क्षण में तुम साथ होगी, दोगी ना ये हक़..?
क्या सम्बोधन दूं?
शान्तनु
पत्र की मुट्ठी में भीच कर गोला बना दिया, आग को समर्पित करना होगा- सोमी सोच रही थी.
मन जितना पत्र की इबारत से हटाती, अतीत उसकी साड़ी का आंचल पकड़े ठुनकते बच्चे सा पीछे-पीछे चलने लगता. आज क्या कहे अचिन से १५ साल पुरानी बातें. अचिन ने पहले कभी उससे वफ़ा नहीं की, परंतु आज अपने प्यार-विश्वास से उसने सोमी के मन पर छाई हर परछाई को धो दिया है. पूर्ण समर्पित है अचिन उसके प्रति आज. पर आज से १८ साल पहले का उसका अतीत परत दर परत खुलने लगा.
अखबार में विज्ञापन पढ़ पिताजी ने देर न लगाई थी, सोमी का फोटो बायोडाटा के साथ पोस्ट करके ही सांस ली. अब इंतज़ार था, तो बस जवाब का. एक दिन जवाब भी आ गया. 'रविवार को लड़की देखने आ रहे है.'
सोमी के घर में तो जैसे भूचाल आ गया. तैयारियां होने लगीं युद्ध स्तर पर, एनआरआई लड़के, धनाढ्य माता-पिता को प्रभावित करने का हर प्रयत्न कर रहे थे पिताजी. सोमी भी लजा जाती. दर्पण में चुपके-चुपके कभी अपने दूध से उजले रंग को देखती, तो कभी बादामी आंखों को.
अचिन ने सोमी को देखते ही पसंद कर लिया था, बस एक ही शर्त थी, 'शादी अगले हफ़्ते होगी, फिर कुछ महीनों तक इंतजार करना होगा. सब कुछ व्यवस्थित होने पर बुला लूंगा सोमी को भी न्यूयॉर्क में.' एनआरआई दामाद पाने की ख़ुशी में पिताजी के पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे. चाचा-ताऊ सबने समझाया, "अरे अच्छी तरह छानबीन करके देना बेटी, विदेश में बसे लड़कों का क्या भरोसा? बताते कुछ हैं, निकलता कुछ है." अचिन का दिल्ली में शानदार फ्लैट, उसके मम्मी-पापा और छोटे भाई से मिलकर पापा तो निश्चित हो गए थे, मम्मी थी कि हर वक़्त बलैया लेती रहतीं, "क़िस्मत की धनी है मेरी बेटी."
और आने वाले १५ दिनों में वह श्रीमती अचिन बन गई थी. शादी के शुरुआती दिन, अचिन के संग पंख लगाकर उड़ गए. पार्टी, घूमना-फिरना, अचिन की प्यार भरी बातें. एक छोटे से घर की लड़की सोमी के लिए यह सब स्वप्न-सा था.
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पर अचिन के न्यूयॉर्क जाने के बाद वक़्त जैसे सहम गया था. लम्बा-चौड़ा घर, उसमें सास-ससुर, छोटा देवर रोमी. दिन थे कि काटे नहीं कटते, रातें जैसे डसने लगी थीं सोमी को. अचिन से लम्बी-लम्बी बातें होती फोन पर. पर हर बार एक ही आश्वासन, "जल्द ही बुला लूंगा तुम्हें जान. पल्लू से बंधा हूं तुम्हारे, हुक्म करो तो सब कुछ छोड़कर आ जाऊं वापस."
और हर बार उसके इंतज़ार में कुछ महीने और जुड़ जाते. शादी के बाद ही पता चला था, अचिन के पास कोई जॉब नहीं है विदेश में. बस हाथ-पैर मार रहा है वहां जमने के लिए, शादी भी उसने मम्मी-पापा के लिए की है. कभी सास-ससुर की सेवा में लगी रहती, तो कभी छोटे रोमी से खेलती. सोमी को लगने लगा था, जैसे वह छली जा रही हो. अचिन की सच्चाई से वाक़िफ होने पर उसके सारे वादे खोखली बातें लगतीं, जिनका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं था. मां-पिताजी से अचिन की बड़ी शिकायतें की उसने, पर अब लगने लगा था जैसे मां-पिताजी उसका कन्यादान करके मुक्ति पा लेना चाहते थे.
उस दिन अचिन का फोन सोमी के भाग्य का फ़ैसला कर गया, "मैं अभी चार-पांच साल तक भारत नहीं आ सकता. एक नई कंपनी लॉन्च की है मैंने. और हां, तुम्हें भी नहीं बुला पाऊंगा."
"मैं क्या करूं फिर?" सोमी रो पड़ी उस दिन.
"माफ़ करना सोमी, मैं आजकल मेरी के साथ रह रहा हूं. शादी नहीं की, पर पांच साल तक का एग्रीमेन्ट है. निभेगी तो शायद शादी भी कर लें."
अचिन ने बात अधूरी छोड़ दी, "मेरी कंपनी की ७५ प्रतिशत की पार्टनर है."
समझ गई थी सोमी, आगे कुछ न सुन पाई. अब वह क्या करे? जैसे ख़ुशियों के सारे रास्ते बंद हो गए थे उसके लिए. मायके में भी ऐसा कोई नहीं था, जो ज़ख़्मों पर मरहम लगा सके.
सास-ससुर ने ही उसे संभाला, "बेटा, जैसा चल रहा है, चलने दो. यहां तो तुम ही अचिन की पत्नी मानी जाओगी ना. हम अचिन की जगह तो नहीं ले सकते, पर हर चीज़ पर तुम्हारा उतना ही हक़ होगा, जितना दोनों बेटों का है."
अपने आपको संभालने में सोमी को कई दिन लग गए. फिर समझौता कर लिया उसने. जीवन में सबको सब कुछ तो नहीं मिल जाता है ना.
सास-ससुर ने माता-पिता की जगह ले ली थी. उनकी भी तो वह एकमात्र सहारा थी, रोमी अभी छोटा था. बेटे के गैर-ज़िम्मेदारी ने उन्हें भी सोमी का मुंह देखने पर मजबूर कर दिया था.
"मम्मीजी, मैंने बी. एड. किया है. में टीचिंग कर लूं, मन लगा रहेगा." एक दिन सोमी ने हिम्मत करके पूछ ही लिया, तो सास ने सहर्ष मंजूरी दे दी. हालांकि वापस मायके जाने का ख़्याल उसके मन में आया था, पर पिताजी से सारी बातें कहीं, तो उल्टा उसे ही समझाने लगे थे, "अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ो बेटा, फिर क्या कमी है तुम्हें? समाज में इज़्ज़त है, पैसा है, अचिन का नाम भी कितना है, क्या कभी सपने में भी सोचा था तुमने कि इतना सब कुछ मिलेगा तुम्हें?" सोमी ने काफ़ी सोच-समझकर स्कूल ज्वाइन कर लिया था. दिन पलटने शुरू हो गए. आधा दिन बच्चों को पढ़ाने में, बाकी घर के कामों में यूं ही बीत जाता. जीवन की कड़वाहट कुछ कम होने लगी थी. अचिन का परिवार ही उसकी ज़िम्मेदारी बन गया था.
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उस दिन वह रोमी के कमरे में अचानक चाय देने चली गई. रोमी को उसके ट्यूटर पढ़ा रहे थे. सोमी ने देखा, रोमी को होमवर्क देकर यह स्वयं पेपर पर कोई स्केचिंग कर रहे थे. एक लड़की का सुन्दर अक्स बड़ी तन्मयता से उकेरा जा रहा था. सोमी को लगा, जैसे सर के काग़ज़ पर वह स्वयं उतर आई हो. बड़ी-बड़ी स्वप्निल सी आंखें और उन्हें ढंकती धनुषाकार भौंहें सजीव-सी लग रही थीं. कुछ पलों के लिए ठहर सी गई थी सोमी. फिर सर की ओर देखा, तो लगा जैसे चोरी पकड़ी गई हो… २८-३० साल का नौजवान, शर्माले से नयन नक्श, ऊंचा माथा.
"मैं शान्तनु हूं, एक फर्म में इजीनियर हूं, पार्ट टाइम में ट्यूशन लेता हूं." उसी ने नज़रें चुराते हुए अपना परिचय दिया.
सोमी ठहर न पाई कमरे में तेज़ कदमों से बाहर निकल आई.
प्यार की भाषा आंखें ख़ूब समझती हैं, जाने कौन-सी मूक तरंगें उठती हैं कि बिना कुछ बोले ही सब कुछ अपना पराया हो जाता है.
फिर तो शान्तनु सोमी के मन व विचारों के साथ लुका-छिपी खेलने लगे थे. शान्तनु की भी सोमी के प्रति चाहत छुपी नहीं थी. सोमी ही पूछ बैठी एक दिन, "मेरे बारे में सब जानते हो, अपने बारे में कुछ नहीं बताओगे?"
"क्या करोगी जानकर सोमी? मेरे मां-पिता ने मुझे गोद लिया था किसी अस्पताल से. परवरिश की, सब कुछ मिला, पर दोनों एक ऐक्सीडेंट में मारे गए. पहले से ही अकेला था, और भी अकेला हो गया दुनिया में. पढ़ाई पूरी करने के लिए पार्ट टाइम ट्यूशन कर रहा हूं." दुख की रेखाएं शान्तनु के चेहरे पर खिंच आई थीं. सोमी को अपना दुख शान्तनु के दुख के सामने बौना सा लगा, पर जैसे-जैसे मन शान्तनु के प्रति उद्विग्न होने लगा था, अचिन सोमी के मन से घुलता जा रहा था. पर एक अपराध भावना ने जन्म ले लिया था मन में, 'क्या वो जो कर रही है या जो हो रहा है आजकल, वो ठीक है? क्या समझेंगे उसके बारे में उसके परिवार वाले, सास-ससुर?' कभी-कभी कुंठा से घिर जाती सोमी. कैसी ज़िंदगी है उसकी? न वह सधवा है, न विधवा, परित्यक्तता शब्द भी तो नहीं जुड़ा था उसके नाम के साथ. ऐसे ही विचारों के साथ ख़ुद से लड़ती एक दिन सोमी डिप्रेशन का शिकार हो गई.
घर में उस दिन कोई नहीं था. सब किसी रिश्तेदार के यहां गए थे. बिल्कुल अकेली थी, निराश भी, अचिन का परिवार, शान्तनु का प्यार… मकड़ी के जाले में फंस गई हो जैसे. रुलाई फूट पड़ी, सामने नींद की गोलियों की शीशी रखी थी, मां लेती थीं. पानी के लिए किचन की ओर मुड़ी कि दरवाजे पर थाप पड़ी. मुंह पर पानी के छींटें मार अपने आपको सहेजा, दरवाज़े पर शान्तनु खड़े थे.
"यूं रो-रोकर अपनी ज़िंदगी जाया न करो सोमी. रोने से दुख कम नहीं हो जाते." सोमी के लड़खड़ाते कदमों को शान्तनु ने अपनी बलिष्ठ बांहों का सहारा दिया. सोमी अचकचा गई. घर में वह नितान्त अकेली, इस पर शान्तनु."थक गई हूं जीवन से मैं. छोटी सी उम्र में सब कुछ देख-परख चुकी हूं. दुनिया में कोई किसी का नहीं. सोचती हूं नींद की ढेरों गोलियां लेकर सो जाऊं गहरी नींद में, पर जाने क्यों साहस नहीं जुटा पाई." सोमी ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया. पुरुष की बलिष्ठ बांहों में सुकून सा पा रही थी वह.
"पर किसके लिए सोमी? वह जो तुम्हें नहीं मिला, उसके लिए? पर क्या जो तुम्हें मिला, उसका सम्मान किया है तुमने?" शान्तनु ने सोमी की आंखों में झांका. गरम सांसों की तेज़ रफ़्तार सब कुछ समेट लेना चाहती थी. आंचल सीने से ढलक गया. प्रिय का मादक स्पर्श पोर-पोर में सुधा बन घुल रहा था. मानो सारे बंधन टूट जाते आज…
पर शान्तनु ने अपने आप पर काबू किया. जिससे प्यार किया हो, उसके शरीर को बिना अधिकार के स्पर्श करना शान्तनु के आदर्शों से परे था, सो अमृत से अमूल्य उन क्षणों की गिरफ्त से आज़ाद किया अपने आपको, "चलो तुम्हें आज बढ़िया सी कॉफी पिलाता हूं. रसोई किधर है सोमी?" और रसोई की ओर चल पड़े. काफ़ी देर से रोते रहने से सोमी का जी हल्का हो गया. सारा आवेग आंसुओं के साथ बह गया. साड़ी ठीक करके खड़ी हुई, तो देखा शान्तनु खड़े थे कॉफी के साथ, "सोमी, मुझसे शादी करोगी? क्या ये सब छोड़कर चल सकोगी मेरे साथ, एक सीधी-सादी ज़िंदगी जीने के लिए?" कॉफी सिप करते-करते शान्तनु ने उसके सामने प्रस्ताव रखा. "सोच लो सोमी."
मां-पिताजी के आने का वक़्त हो गया था, सो शान्तनु चला गया. वह काम में लग गई, पर विचारों में द्वन्द्व जारी था.
हां, मैं शान्तनु से शादी करूंगी. सुकून भरे चार लम्हे दुखदायी लम्बी रातों से कहीं ज़्यादा बेहतर हैं. सास-ससुर भी उसके अकेलेपन के लिए चिंतित रहते थे. रोमी बड़ा हो रहा है. शादी होते ही आने वाली सब कुछ संभाल लेगी, पर वह इन सबके बारे में क्यों सोच रही है? अचिन से कोई रिश्ता नहीं, फिर उसके परिवारवालों के बारे में क्यों सोचे? सोमी मां-पिताजी से बात करेगी, अन्यथा एक
दिन सब छोड़कर किनारा कर लेगी. अपनी सोच को विराम देकर सो गई थी वह.
सुबह उठी, तो सिर थोड़ा भारी था. सूरज सिर पर चढ़ आया था, पर बदन बिस्तर छोड़ने को तैयार न था. तभी मां की ख़ुशी में सराबोर चीख सुनाई पड़ी.
"अचिन वापस आ रहा है सोमी, परसो साढ़े नौ की फ्लाइट से हमेशा के लिए." मां ने ख़ुशी के अतिरेक में सोमी को अपने अंक में भींच लिया, पर वह अचकचा गई. ये कैसा न्याय है तेरा ईश्वर? इतने लम्बे अरसे से परित्यक्तता की सी ज़िंदगी गुज़ारने के बाद बहार आने वाली थी. ऐसे में अचिन का आना…
घर का जैसे समा ही बदल गया. ऐसा लग रहा था, जैसे किसी को कोई शिकायत ही न हो अचिन से. पूरे घर की सफ़ाई हो रही थी, खाने की लिस्ट में अचिन की मनपसंद सब्ज़ियां, टेलीफोन से सारे खानदान को सूचना देकर पार्टी का प्रोग्राम, सब कुछ उससे बिना पूछे कुछ ही घंटों में तय हो गया था. सास-ससुर तो उम्र का तकाज़ा भूल गए थे. एक वही थी, जो जड़ हुई जा रही थी. क्यों लौट रहा है अचिन अब? पता चला, उसकी कम्पनी पिट गई थी और कर्ज़े की मोटी रकम उसके सिर पर थी. ऐसे में मेरी को उसका साथ भला क्यों गवारा हो? मेरी ने उसको छोड़ दिया था, इसलिए जनाब वापस आ रहे थे. सोमी का मन हुआ, वह भाग जाए कहीं एकांत में, पर कहां? सारे कामों के बीच मम्मीजी की हिदायतें मिल रही थीं.
"अरे सोमी, कुछ अपने आपको बदली, पति को पल्ले से बांध कर रखो. अब की बार तो एक नन्हा-मुन्ना दे दो उसे, ताकि मोह में ऐसा पड़े कि सब कुछ भूल जाए."
सोमी का मन ग्लानि से भर उठा. अचिन, अचिन सब जगह अचिन. अपनी महत्वाकांक्षा के लिए उसे मझधार में छोड़ गया, धोखे से शादी की और मेरी के साथ रह कर भी कुछ न मिला, तो लौट रहा है? जीवन में जैसा उसने चाहा, किया, पर सोमी को किस बात की सज़ा दी? क्या वह अचिन को दुबारा पति का दर्ज़ा दे सकेगी? ख़ासकर जब शान्तनु की सादगी उसके रोम-रोम में बस चुकी हो. अचिन की खुदगर्ज़ी से उसका तन-मन घायल था. अंधेरे में जब अचिन के हाथ उसके बदन का स्पर्श करेंगे, तो क्या वो लिजलिजापन वह बर्दाश्त कर पाएगी? नहीं… सोमी का मन विद्रोह पर उतारू हो उठा.
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पर भारतीय मर्यादा तो पति के सौ खून भी माफ़ कर देती है. पति के घर डोली उतर गई, तो उसी घर से अर्थी उठे स्त्री की' दादी की सीख उसके कानों में गूंजने लगी.
ये त्याग, मर्यादा, सब कुछ स्त्री पर थोपे हुए ढोग है. आदर्श थोप-थोप कर देवी बना डालते हैं, पर इंसान के रूप में सही ढंग से जीने की इजाज़त भी नहीं देते. समाज के नियम में अब कोई और समझौता नहीं कर पाऊंगी. मैं सदा के लिए तुम्हारे पास आ रही हूं शान्तनु. सोमी ने फ़ैसला कर लिया था. कुछ कपड़े सूटकेस में भर लिए, सारी रात बेचैनी में काट दी. सुबह से ही घर में लोगों का आना-जाना शुरू हो गया था. सोमी के माता-पिता भी आए थे. सोमी ने कमरे में ले जाकर जन्मदायिनी मां को अपना फ़ैसला सुना दिया.
"दो खानदानों को तबाह न कर बेटी, पहले चली जाती, तो कोई बात न थी, पर अब तो ख़ुशियां अपने आप चलकर आ रही हैं तेरे पास." मां के वही पुराने वाक्य… समझाने, धमकाने के पैंतरे शुरू हो गए थे,
तभी शान्तनु का फोन आ गया, "सोमी, पति वापस आ रहे हैं. नया जीवन मुबारक हो तुम्हें, इतना स्वार्थी नहीं मैं कि अपने साथ तुम्हें कांटों में घसीट लूं, पर हां, इतना ज़रूर चाहूंगा कि जीवन के अंतिम पलों में जब सांसें साथ छोड़ रही हों, तो तुम मेरे सिरहाने बैठी रहो. मुझे तलाशना मत." और शान्तनु ने बिना कुछ उसकी सुने, फोन रख दिया.
उस दिन पिंजरे में बंद पंछी की तरह उड़ना भूल कर सोमी ने भी ज़िंदगी से लड़ना सीख लिया था. मीता और वशिष्ठ दो बच्चे थे. अब अच्छी-खासी उम्र भी हो गई थी सोमी की, पर कभी मन के गहराइयों में खो जाती तो सोचती, क्या नाम दे वह शान्तनु को, स्वप्न पुरुष? या एक हवा का झोंका, जो उसकी ज़िंदगी के मायने बदल गया. आज शान्तनु का यह पत्र फिर से सोमी को अधीर कर रहा था. आज फिर वह किसी की नहीं सुनेगी, कोई बंधन नहीं मानेगी, शान्तनु के पास ज़रूर जाएगी. अचिन को उसने सब कुछ बता दिया. शान्तनु का वह पत्र अचिन के हाथों में सौंप कर अपना निर्णय भी बता दिया था. सूटकेस में चंद कपड़े डाले. ठीक उसी दिन की तरह पैर घर की दहलीज़ से निकाले, पर आज किसी ने न रिश्तों की दुहाई दी, न रोका. पति ने स्वयं प्रयाग का टिकट देकर ट्रेन में बिठाया.
"शान्तनु का कर्ज़ है मुझ पर सोमी, तुम्हें मुझे वापस सौंपकर उसने मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है. तुम निश्चित होकर जाओ."
- साधना जैन
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