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कहानी- अंधविश्वास (Short Story- Andhvishwas)

"अरे, शांति चाची अस्पताल में परिवारवालों से बिनती कर रही हैं- बंगाली दादा को बुलाओ."  
"क्या? क्यों?"  
"उन्हें विश्वास है कि आपकी दी हुई दवा से वे ठीक हो जाएंगी."  
"पागल हैं?"  
"उनके घरवाले भी यही कह रहे हैं, मगर वे टस से मस नहीं. कहती है- बंगाली दादा की दवा जादू जैसा काम करती है."        

                         

शाम के सात बज रहे थे. कोलकाता के इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइंस से निकलकर मैं एक चाय की दुकान पर जाने वाला था. सिर में तेज़ दर्द था. होता भी क्यों नहीं? पिताजी की सेहत में कोई सुधार नहीं हो रहा था. यही बात लगातार मन को कचोट रही थी. व्यापक सेरिव्राल हमारेज के चलते मस्तिष्क मे खून जम गया हैं, जिसके कारण इलाज ठीक से नहीं हो पा रहा है. इस उम्र में डॉक्टर सर्जिकल इलाज का जोख़िम नहीं लेना चाहते. बीस दिन हो गए, दवाओं से ज़रा भी फ़र्क़ नहीं पड़ा. हल्की सी चेतना है. पास जाओ तो हाथ पकड़ने की कोशिश करते हैं, चेहरे से दर्द झलकता है.
मुझसे शिकायत सी करते हैं, "इतनी तकलीफ़… क्या कोई इलाज नहीं?"
झूठी आशा देता हूं, "दवा चल रही है, कुछ दिन में ठीक हो जाएंगे." मैं जानता था चमत्कार के अलावा कुछ नहीं बचा. डॉक्टरों ने भी यही कहा था. 
रास्ते में चलते हुए अचानक फोन बजा. पटना से पड़ोसी मिस्टर दत्त का फोन‌ था. वे मेरे फ्लैट के ऊपर रहते हैं. लगा, हालचाल जानने के लिए फोन किया होगा. बोला, "हेलो, दत्त साहब बताइए."  
उधर से आवाज़ आई, "कैसे हैं चाचाजी?"  
उदास स्वर में कहा, "बिल्कुल ठीक नहीं. कोशिश चल रही है. आप तो जानते ही हैं."  
कुछ पल चुप रहकर दत्त साहब बोले, "यहां एक और घटना हुई है. शांति चाची अस्पताल में भर्ती हैं. उनकी हालत भी ख़राब है. उनकी बेटी-दामाद आज आपको ढूंढ़ने आए थे."  
चिंतित होकर पूछा, "क्यों? पैसे की ज़रूरत है क्या?"  
"नहीं, वैसी कोई बात नहीं."  
"फिर?"  
"अरे, शांति चाची अस्पताल में परिवारवालों से बिनती कर रही हैं- बंगाली दादा को बुलाओ."  
"क्या? क्यों?"  

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"उन्हें विश्वास है कि आपकी दी हुई दवा से वे ठीक हो जाएंगी."  
"पागल हैं?"  
"उनके घरवाले भी यही कह रहे हैं, मगर वे टस से मस नहीं. कहती है- बंगाली दादा की दवा जादू जैसा काम करती है."                                                         2
"ऐसा भी होता है क्या?"  
दत्त साहब ने गहरी सांस लेकर कहा, "कुछ दिन पहले भी उनके लोग आपको ढूंढ़ने आए थे.  हमने बताया, आपके पिताजी बीमार हैं, आप कोलकाता गए हैं. आज फिर वही अर्जी लेकर आए. शांति चाची बार-बार कह रही हैं- बंगाली दादा को बोलो, दो दिन के लिए आ जाएं." अस्पताल के डॉक्टर भी इस बात पर हंस रहे थे. आख़िर में उन्होंने कहा- इतना विश्वास है तो उनको बुला ही लो, मनोबल बढ़ेगा."
मैंने व्यथित स्वर में कहा, "इतना बुला रही हैं… वो भी कितनी नेकदिल इंसान हैं. जा पाता तो अच्छा होता, मगर करूं क्या? पिताजी की देखभाल अकेले संभाल रहा हूं. छोटा भाई कश्मीर में है, छुट्टी नहीं मिल पाई. जब वह आ जाएगा, तब पटना आऊंगा."  
पटना में मेरा अपार्टमेंट तब तक पूरी तरह तैयार नहीं हुआ था. बिल्डर ने जल्दबाज़ी में मेरा फ्लैट पूरा कर दिया. मुश्किल यह थी कि जिस मकान में मैं किराए पर रहता था, मकान मालिक ने उसका आधा हिस्सा बेच दिया था. पूरा मकान टुकड़े-टुकड़े में बेचकर वे कोलकाता जानेवाले थे. ऐसे में जोख़िम उठाकर मैंने ६४ फ्लैट वाले अपार्टमेंट मे पहला अधिवासी या ओक्यूपंट बनकर पत्नी श्रावंती और पांच साल की बेटी को लेकर अर्धसमाप्त अपार्टमेंट मे ही डेरा डाल दिया.  
पचास साल की उम्र वाली बिहारी महिला मज़दूर शांति चाची बिल्डर के यहां काम करती थीं. उनका परिवार पटना से तीस किलोमीटर दूर खुसरूपुर में रहता था. शांति चाची पंद्रह दिन में एक बार घर जाती थीं. उनके पति बेहद सुंदर थे, मगर शराब और असंयमित जीवन के कारण जल्दी चल बसे. शांति चाची कहतीं, "सारा दोष मेरा है. राजकुमार जैसे लड़के के साथ काली चुडैल की शादी कराओगे तो वह भागेगा ही!" जव उनके बेटे को  देखा, तो हमे लगा, पति के बारे में बताने में शायद उन्होंने अतिशयोक्ति नहीं की थी.  

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शांति चाची में कई गुण थे. मेहनती, सभ्य बोलचाल वाली, मददगार इत्यादि. ऐसी शांति चाची को मेरी पत्नी श्रावंती ने घर के काम पर रख लिया. सुबह बिल्डर के काम पर जाने से पहले और शाम को लौटकर वे हमारे घर का काम करतीं. शाम को आते ही श्रावंती उनके लिए नाश्ता तैयार रखती. चाय-नाश्ता पाकर शांति चाची ख़ुशी से गदगद हो जातीं थीं.
नवंबर के अंत में एक दिन सुबह वे काम पर नहीं आईं. श्रावंती ने ढूंढ़ा तो पाया, एक अधूरे फ्लैट में बुखार से तप रही हैं. खिड़कियों में शीशे नहीं लगे थे. पूरी रात ठंडी हवा लगने से तबीयत बिगड़ गई. इसी प्रकार के कमरे में ही सभी मजदूर रहते थे.
हम उन्हें अपने घर ले आए. दवा और देखभाल से चार दिन में ठीक हो गईं. श्रावंती ने कहा, "आज से रात को यहीं सोना."
हमारे छोटे से परिवार और खाली पड़े कमरों ने शांति चाची का रैन बसेरा बना दिया. दिन में पास की दुकान से खाना लातीं, रात में श्रावंती के हाथ का खाना खातीं.
बेचारी कृतज्ञता से भर गईं. रोटी बनाने का काम ख़ुद संभाल लिया. मौका मिलते ही पंखे की धूल साफ़ करतीं, किताबों की आलमारी चमकातीं.
मना करने पर नहीं मानतीं, "ये मेरे भइया का घर है. मेरा फर्ज़ बनता है." उनके आने से हमें भी सुकून मिला. पहले शाम को बाहर जाने में डर लगता था, इतने बड़े कॉम्प्लेक्स में अकेले रहते थे. अब वह डर नहीं रहा. पत्नी बच्ची को छोड़कर टूर पर भी निश्चिंत होकर जाने लगी. 
एक रात क़रीब दो बजे श्रावंती ने झकझोरकर जगाया, "सुनो, इतनी रात को चूड़ियों की आवाज़ कहां से आ रही है? कहीं भूत-प्रेत तो नहीं?" डरते-डरते ड्रॉइंगरूम गया तो देखा, शांति चाची बैठी पैर दबा रही हैं. उनके हाथों की चूड़ियां खनकने लगीं. नींद खुल गई. मुझे देखकर शर्मिंदा हुईं, "बहुत दर्द हो रहा था भइया, नींद नहीं आई." मैंने दर्द नाशक क्रीम दी. बेचारी इस उम्र में इतना काम करतीं, हाथ-पैर का दर्द तो होगा ही.
एक शनिवार को वे घर गईं. मंगलवार तक नहीं लौटीं. बुधवार को उनका पोता आया, "दादी को पेट की तकलीफ़ है."
पूछा, "दवा ली?"  
"गांव का दुकानदार ने गोली दी थी, काम नहीं की." उसने जेब से दवा निकाली, देखने से ही लगा दवाइयां नकली हो सकती हैं. मैंने अच्छी कंपनी की दवा लिखकर दी. तीन दिन बाद शांति चाची हंसती हुई आई, "भइया की दवा ने रामबाण जैसा काम किया!"  
उसके बाद छोटी-मोटी बीमारी होने पर वे सीधे मेरे पास आतीं. मुंह में छाले, ज़ुकाम, बुखार… सब ठीक हो जाता.
बिल्डर का काम पूरा हो गया. शांति चाची को उन्होंने अपने पास रख लिया. उनका पता बदल गया, मगर वे हमें नहीं भूलीं. रविवार को छुट्टी लेकर आ जातीं. श्रावंती के साथ घर का काम करके लौट जाती. पिताजी की बीमारी के एक महीना पहले भी आई थीं.      

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छोटा भाई कश्मीर से लौट आया. पिताजी को अस्पताल से घर ले आए. डॉक्टरों ने मुंह मोड़ लिया था. अब घर पर ही देखभाल. भाई को ज़िम्मेदारी सौंपकर मैं पटना लौटा.  
फ्लैट में घुसते ही ख़बर मिली- शांति चाची नहीं रहीं. उनकी बेटी और दामाद मिलने आए. मुंह दिखाने की हिम्मत नहीं थी, मगर उनके चेहरे पर शिकायत नहीं थी. बेटी बोली, "मामाजी, मां आपका रास्ता देखते-देखते चली गईं. कितना भरोसा था- भइया की दवा से ठीक हो जाऊंगी."
मेरे पास कहने को कुछ नहीं था. चली गईं शांति चाची… पर आज भी याद आती हैं. शांति चाची को याद करते हुए रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास 'चोखेर बाली' का वह कथन याद आता है- "संसार में न कोई अपना होता है, न पराया. जो अपना समझ लेता है, वही अपना होता है."

सुमित सेनगुप्ता  

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