मेरी खिड़की पर आकर उसने शायद मुझे पुकारा. बिना नाम की एक आवाज़ में. और मैंने बिना आवाज़ के एक वाक्य में अपनी अनामिका में चमक रही अंगूठी उसे दिखा दी. उसने खिड़की के शीशे पर हल्की दस्तक दी. मेरे ड्राइवर ने उस तरफ़ देखा, सहेली ने मुझे. मैंने दोनों को नहीं देखा और खिड़की का शीशा हल्का नीचे कर लिया.
इस बार हम अतिथि बने बादलों के और पहुंच गये उसके घर, बादलों के घर, मेघालय. शिलांग की ठंडी रात में मौन पड़ी सुस्त सड़कों पर घूमते हुए मैं और मेरी सहेली साथ होते हुए भी कुछ तन्हा से हो गये. अगली सुबह जयंतिया हिल्स के छोटे शहर डावकी निकलना न होता तो बहुत संभव है कि हम दोनों पूरी रात इस सफ़र में ही निकाल देते. लेकिन, रुक जाना और आगे बढ़ना जब दोनों ही रोमानी हो तो किसी एक का भी चयन, मन में एक टीस तो छोड़ ही जाता है.
कार में बैठकर जैसे ही यात्रा आरंभ हुई समझ आ गया कि अगला दो-ढाई घंटा मुझे मंत्रमुग्ध कर देने वाला है. मेरी सहेली का मेरे समीप बैठे होना मेरे लिए बिल्कुल वैसे ही विलुप्त हो गया जैसे ड्राइवर का बीच-बीच में कुछ-कुछ बोलते रहना हम दोनों के लिए हो गया था. हवा में ड्राइवर के शब्द नृत्य करते से प्रतीत होते और हम बिना कुछ कहे-सुने मुस्कुरा भर देते. मेरी सहेली तो फिर भी हां-हूं में उसके कहे का सम्मान कर लेती, पर मेरे लिए तो गाड़ी का वह हिस्सा जहां मैं बैठी थी, गाड़ी से कब का अलग हो चुका था. और, मैं उड़ने लगी संग-संग चल रही पहाड़ियो में, घुमावदार सड़कों पर किसी दरवेश के समान ध्यान में मग्न कुम्हार के चाक की तरह घूमने लगी. क्या नाम दूं, कह देती हूं खुली आंखों का बंद होना. तभी आंखों की पुतलियों पर चमका निऑन हरा रंग और मैं जाग गई.
देखा तो सामने एक काली बाइक की फ्यूल टैंक पर बंधा हुआ बैग था. बैग से फिसलकर नज़र टकराई बाइक चलाने वाले के काले चश्मे से, आंखें तो क्या ही दिखती, हां, पर मुड़ी गर्दन ने बताया कि उस पल में वह भी मुझे ही देख रहा है. तभी जाने कहां से एक नन्हा बादल सामने आया और हम दोनों पर से होकर गुज़र गया. उसने अपनी गर्दन हल्की-सी झुकाई और मैं मुस्कुरा दी. और वह आगे बढ़ गया. उसके पीछे-पीछे उसके ग्रुप के अन्य बाइकर्स भी आगे निकल गये. सब कुछ नन्हे-नन्हे चहबच्चों-से पलों में घटित हुआ होगा. मैं भी पुनः नज़ारों में खो गई. कभी-कभी हम अनजाने ही किसी पल को अपनी कहानी का हिस्सा बना लेते हैं. यह हम तब नहीं समझ पाते जब वह पल चल रहा होता, तब समझते हैं, जब वह पुनः सामने आ खड़ा होता है.
थोड़ी दूर ही गए होंगे कि ड्राइवर ने अचानक से गाड़ी रोक दी. हालांकि गाड़ी उन्होंने अचानक नहीं रोकी, उन्होंने सहेली से थोड़ा रुककर चाय-कॉफी पीने की बात कही होगी जिसे पहाड़ियों के आकर्षण में बंधी मैं, सुन नहीं पाई. ड्राइवर चाय पीने चले गये, सहेली तस्वीरे लेने और, मैं अपनी बांहों के तकिए को गाड़ी की खिड़की पर टिकाकर बाहर घूम रही मुर्गियों और उसके चूज़ों के झुंड को देखने में व्यस्त हो गई. यह ध्यान ही नहीं दिया कि थोड़ी दूर पर बाइकर्स का एक ग्रुप खड़ा धूप और चाय दोनों पी रहा और, वह निऑन बैग खुल चुका है, बिस्किट-ब्रेड का ख़ज़ाना बंद था अब तक जिसमें.
मेरा ध्यान भंग हुआ जब उस निऑन बैग वाले ने अपनी बंद पड़ी बाइक के स्टार्ट होने की सूचना एसिलेटर को दो-तीन बार घूमाकर दी. और मैंने उसे देखा. चेहरे पर हेलमेट अभी भी था, लेकिन आंखों पर चश्मा नहीं. कत्थई रंग में हल्का काला रंग घोल दिया हो किसी ने. बरबस ही मेरा ध्यान, मेरे नेलपेंट पर चला गया. उसकी आंखों के रंग से ही तो रंगे हैं मेरे नाख़ून.
जिस रोज़ मेघालय के लिए निकलना था उसके पहले की एक रात को जब मैं रंग रही थी अपने नाख़ूनों को मेरे मंगेतर ने हंसते हुए चिढ़ाया, “यह रंग तो कॉकरोच के शरीर के रंग से मेल खा रहा.” कितना चिढ़ गई थी मैं तब. पर क्यों? अगर कि वह इस रंग को तितली के पंखों के रंग सा कहता तो मैं क्या चिढ़ती! नहीं, फ्रेडरिक निएत्जस्चे ने सही ही कहा है कि यदि हम एक कॉकरोच को कुचल देते हैं तो नायक हैं. लेकिन, अगर सुंदर तितली को कुचल दे तो खलनायक हैं. नैतिकता के मापदंड सौंदर्य संबंधी होते हैं. तभी आज उसके आंखों का वही रंग देखकर मेरे नाख़ूनों के रंग की उलझन अचानक से विलुप्त हो गई जिसे जल्दबाज़ी में मैं उतार नहीं पाई. कुछ अधिक देर देख लिया मैंने उसे, उसने मुझे, तभी जब उसकी कत्थई में स्याह रंग घुली आंखें मुस्काईं, मुझे कहीं दूर से सफ़र कर लौट आने जैसा अनुभव हुआ.
मेरी सहेली और ड्राइवर भी आ गए. ड्राइवर ने यात्रा आगे बढ़ाने के लिए गाड़ी स्टार्ट की और मैं ख़्यालों को पीछे छोड़ आगे बढ़ने को तैयार हो गई, हालांकि मैंने रुक जाना भी चाहा.
अक्सर सोचती हूं, मैं एक साथ दो या तीन जगहों पर क्यों नहीं हो सकती? एक जगह होने के लिए कई सारी जगहों से अनुपस्थित होना पड़ता है. कई बार किसी के साथ के अपने साथ को वर्षों में गिन लेते हैं, जबकि उन मीलों की दूरी को नापना रह जाता जब हम साथ तो थे पर साथ नहीं थे. अलग-अलग स्थानों पर अपना-अपना जीवन बना रहे होते. फिर एक दिन अकस्मात वह प्रिय इस दुनिया से सदा के लिए चला जाता, वहां जहां वीडियो कॉल की सुविधा नहीं. और फिर हम उसके साथ के अपने साथ को वर्षों में गिन लेते इस बात से बेपरवाह कि कितनी-कितनी दूरियों वाले दिन अलग-अलग जिये गये हैं.
एक-दूसरे के जीवन में होकर भी, न होने की यह व्यथा हर मन झेल रहा. पांव-पांव चलते मन की यह यात्रा जीवन है. पांव थकता है, तो खड़े-खड़े मिल लेते. पांव मोड़कर बैठ जाने को ही मौत कहते होंगे.
मेरी खिड़की पर आकर उसने शायद मुझे पुकारा. बिना नाम की एक आवाज़ में. और मैंने बिना आवाज़ के एक वाक्य में अपनी अनामिका में चमक रही अंगूठी उसे दिखा दी. उसने खिड़की के शीशे पर हल्की दस्तक दी. मेरे ड्राइवर ने उस तरफ़ देखा, सहेली ने मुझे. मैंने दोनों को नहीं देखा और खिड़की का शीशा हल्का नीचे कर लिया. ज्यों ही मैंने शीशा नीचे किया, उसने हेलमेट के पीछे से ही कहा, “आपकी अनामिका का तिल देखा, बहुत सुंदर है, इसे अंगूठी से मत ढकिएगा, यह आज़ाद ही अच्छी लगती है.” और एक किक के साथ गाड़ी स्टार्ट कर हवा में ग़ायब हो गया.
सहेली कुछ बोलती, ड्राइवर कुछ पूछता कि मैंने ख़ुद को सहेली से कहते हुए सुना, “मुझे नेलपेंट रिमूवर चाहिए!”
पल्लवी पुंडीर
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