Close

कहानी- अभागन (Short Story- Abhagan)

वैसे तो वह कभी कुछ नहीं कहा करती थीं, लेकिन धीरे-धीरे हमारी पहचान होने लगी थी, तो मैं ऑफिस जाते समय उनके लिए भी अक्सर टिफिन ले जाया करती थी.
उसके बदले में वे मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया करती थीं.
पर कभी मैंने उनसे उनके बारे में पूछा नहीं और न ही उन्होंने मुझे अपने बारे में बताया.

“निशा… निशा… तुमने कुछ सुना?” हडबड़ाती हुई कुसुम की आवाज़ सुन कर मैं थोडा़ घबरा गई.
अभी चंद हफ़्ते ही गुज़रे थे मुझे यहां आए हुए, मैं न तो किसी को जानती ही थी, न ही ऐसा मौक़ा ही मिला था.
“क्या हुआ कुसुम?” मैं संदेहात्मक रवैये से पूछा, तो उसने बहुत ही दुख भरे लफ़्ज़ों में कहा, “वो मंदिर वाली आंटी नहीं रही़?”
“मंदिर वाली.. ओह!" मैंने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया, फिर याद आया, साईं बाबा के मंदिर की सीढियों पर किनारे की ओर एक वृद्धा बैठा करती थीं.
मंदिर से मिले भिक्षावृत्ति पर ही गुज़ारा करती थीं.
“अरे कुसुम, यह कब हुआ? क्या हुआ था उन्हें?” मैंने हैरानी से पूछा.
“बुखार था फिर शायद हार्ट अटैक… पुलिस आई हुई है.”
“ओह बहुत ही दुखद! भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें.”


“हां निशा, पता नहीं कौन थीं. हमेशा वहीं रहती थीं. रात में पीछे बने हुए शेड में सो जाया करती थीं. 
"न जाने उनका क्या इतिहास है? अब पुलिस क्या ढूंढ़ पाती है देखते हैं.”

यह भी पढ़ें: आज़ाद भारत की आधी आबादी का सच (Women’s Place In Indian Society Today)

थोड़ी देर बैठकर कुसुम चली गई.
मेरे दिमाग़ में कई बातें घूमने लगी. कुसुम और मैं पहले एक ही ऑफिस में काम किया करते थे. दो साल पहले उसका ट्रांसफर हो गया.
क़िस्मत से उसके कुछ साल बाद मेरा भी इसी शहर में स्थानांतरण कर दिया गया.
पहले तो मैं बहुत ही ज़्यादा नर्वस थी, क्योंकि यह शहर मेरे लिए बिल्कुल ही नया था. लेकिन फिर मुझे कुसुम की याद आई. उसने मेरी पूरी मदद की थी.
अपने नीचे वाले फ्लोर में घर दिलवा दिया था. अपने घर से पहली बार मैं दूर हुई थी. मुझे तो यहां एडजस्ट करने में ही दिक़्क़त हो रही थी. खाली समय में मैं अक्सर वहीं साईं बाबा वाले मंदिर में चली जाती थी. वहां बैठकर मुझे बड़ी शांति मिलती थी. वही मंदिर के किनारे एक बुज़ुर्ग आंटी बैठा करती थीं. बिल्कुल ही सफ़ेद बाल, चेहरे पर झुर्रियां. कुछ दिनों के बाद धीरे-धीरे हमारी जान-पहचान होने लगी थी.
वैसे तो वह कभी कुछ नहीं कहा करती थीं, लेकिन धीरे-धीरे हमारी पहचान होने लगी थी, तो मैं ऑफिस जाते समय उनके लिए भी अक्सर टिफिन ले जाया करती थी.
उसके बदले में वे मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया करती थीं.
पर कभी मैंने उनसे उनके बारे में पूछा नहीं और न ही उन्होंने मुझे अपने बारे में बताया.
थोड़ी देर मैं अनमनी सी रही. फिर तैयार होकर मैंने कुसुम को फोन किया.
“कुसुम एक बार मंदिर चलें क्या? आंटी को एक बार देख लें?”
“बिल्कुल ठीक कहा तुमने निशा, चलो चलते हैं.”
मंदिर में काफ़ी भीड़ थी. कुछ देर बाद आंटी को दाह संस्कार के लिए ले जाया गया.
मंदिर ट्रस्ट के लोगों और आसपास के सोसायटी के लोगों ने ही अपनी तरफ़ से पैसे ख़र्च कर आंटी के दाह संस्कार और श्राद्ध का इंतजाम किया था.

यह भी पढ़ें: अब बेटे भी हो गए पराए (When People Abandon Their Old Parents)

वहां लोग कह रहे थे, “दो-दो बेटे हैं आंटी के, दोनों अमेरिका में सेटल हैं. बुज़ुर्ग दंपति अकेले रहते थे. पहले उनके पति की मृत्यु हुई. रिश्तेदारों ने धोखे से घर हथिया लिया."
"बेटे-बहू पूछते तक नहीं. मजबूरी में आंटी इसी मंदिर में आ गई थीं. यहां के पुजारी से उनकी जान-पहचान पुरानी थी."
"यहां से दो घंटे दूर कमला नगर सोसाइटी में ही उनका एक शानदार फ्लैट है, मगर कोई कहेगा क्या इतने बड़े आदमी की पत्नी रही होगी या दो कामयाब बच्चों की मां! बड़ी अभागन थी बेचारी! ऐसी क़िस्मत भगवान किसी को ना दे!..”
कुछ लोग कह रहे थे, “बड़ी अच्छी क़िस्मत थी. सुबह बाबा का दर्शन करने आई, तभी कह रही थीं कि छाती में दर्द उठ रहा है. जब तक लोग समझते, वह वहीं गिरी और ढेर हो गईं."
"कितनी क़िस्मत वाली थी कि बाबा के चरणों में उसके प्राण निकले!”


क़िस्मत और बदक़िस्मती मेरे दिमाग़ से ऊपर चला गया. परंतु मैं वाकई हैरान थी. पूरी तरह से स्तब्ध!
क्या ऐसा भी होता है किसी महिला के पास सब कुछ है, मगर उसे अनाथों की तरह रहना पड़े…
कम से कम उनके दोनों बच्चे वृद्धाश्रम तक पहुंचा देते. न जाने क्या मजबूरी रही होगी उनके दोनों बेटों के पास…
तभी “राम नाम सत्य है… राम नाम सत्य है…” की आवाज़ मेरे कानों से टकराया.
आंटी को कफ़न में लपेटकर ले जाया जा रहा था. धीरे-धीरे यह आवाज़ और दृश्य धीरे-धीरे धूमिल होता चला गया. 
मैं गुमसुम सी वहां खड़ी रही.
“तीन दिन बाद प्रसाद बंटेगा. सब लोग आकर प्रसाद ले लेना और उस अभागन को आशीर्वाद दे देना. उसकी आत्मा को शांति मिले.” पंडितजी वहां खड़ी उसी भीड़ से कह रहे थे.

यह भी पढ़ें: करें एक वादा ख़ुद से (Inspirational: Make a Promise to yourself)

“अभागन!” मैं मन ही मन बुदबुदाई.
फिर कुसुम के साथ अपने घर की तरफ़ लौट आई.
- सीमा प्रियदर्शिनी सहाय

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

Photo Courtesy: Freepik

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.

Share this article