"हमेशा अपने बच्चों की मां बनकर जीने के अलावा नारी को कभी-कभी अपने पति की पत्नी मात्र भी बनना चाहिए, संभव हो तो प्रिया भी. प्रेम का बिरवा ऐसा है कि निरंतर सींचना होता है. रस सूख जाए तो पत्ता भी डाल से टूट कर गिर जाता है. उन्हें अपनी उपस्थिति से आश्वस्त होने दो, चीज़ें ख़ुद-ब-ख़ुद सहज हो जाएंगी."
कभी-कभी ऐसा लगता है की आंखों के आगे दिन दहाड़े अंधेरा छा जाता है. पांवों के नीचे की ज़मीन सरकने लगती है. निविड़ अंधकार में प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती. शायद ऐसे ही क्षणों में आदमी ज़िंदगी की डोर झटक कर तोड़ देने पर मजबूर हो जाता होगा.
कहते तो यह हैं कि जीने की हिम्मत हार गए और आत्महत्या घोर कायरता है, पर सच तो यह है कि हिम्मतवाले ही ज़िंदगी को लात मार सकते हैं, डरपोक तो डर-डर कर, घिसट-घिसट कर, गिन-गिन कर दिन काटते हैं. वो तो घर में पिस्तौल नहीं कि ली और ठांय गोली मार ली. हथियार के नाम पर सब्ज़ी काटने का चाकू भर है. इससे ढंग से आलू तो कटते नहीं, ज़िंदगी की डोर कटेगी.
दुनिया में कौन सी औरत होगी, जिसने कभी न कभी मरने की न ठानी हो, विरली ही होती है, जो सफल होती है. ज़्यादातर की तो हिम्मत ही नहीं पड़ती, बहाने बेशक यह हो कि बालक का भोला चेहरा आंखों के आगे आ गया, कुल-खानदान की याद आ गई कि दाग़ लग जाएगा. कोशिश की और बच गए तो बड़ी किरकिरी होगी! मौत का फ़ैसला एक क्षण का होता है. ज़िंदगी बीत गई, पर यह क्षण था कि हाथ से आते-आते फिसल गया. ऐसा पहली बार नहीं हुआ, कई बार हुआ है. दुनिया नहीं छूटती तो यह देश, यह शहर, यह घर सब छोड़-छाड़ कर कहीं चली जाए, जहां चैन से रहा सके.
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रात का अंधेरा छंटा, हल्का-हल्का भोर का उजाला फैला, भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि अपने पैरों पर खड़ी है और अपना और अपने बच्चों का गुज़ारा अच्छी तरह कर सकती है, फिर क्यों बेवजह दिन-रात का नर्क भोगे? पहले मरने की सोची, फिर घर छोड़ कर जाने की सोची और दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल भी गई थी कि पाले अपने बच्चों को भी, दहेज में नहीं लाई थी. इतनी बड़ी दुनिया में कहीं भी चली जाएगी. अकेली अपना कमाएगी, खाएगी और इन लोगों का न मुंह देखेगी, न अपना दिखाएगी.
दरवाज़ा खुला था. सामने सुनसान गली. गली पार कर सड़क तक पहुंची,
इतनी रात को कोई सवारी भी न थी. जाती कहां? सवारी भी होती तो रात के दो बजे जाना कहां था? मान लो, इतनी रात जाकर पीहर का दरवाज़ा खटखटाती. देखते ही अम्मा सनाका खा जातीं, "इतनी रात को? क्या हुआ?" फिर पीछे झांक कर देखती, कहती, "सुनील कहां हैं. अकेली आई है? क्या हुआ?"
सवाल ही सवाल, जवाब का पता नहीं. पति और बच्चों के साथ सज-संवर कर जाए. थोड़ी देर, थोड़े दिनों को, मेहमान की तरह, तभी शादीशुदा लड़की की पीहर में इज़्ज़त होती है, नहीं तो खोटी चवन्नी सी लौटा दी जाए या कोने में पड़ी रहे. और दूसरी बहनें मोहर अशर्फियों-सी खनकती रहे. अपने ही मन में छोटा लगने लगे अपना आपा.
देहरी से बाहर कदम निकाल ले औरत तो अपना घर भी ऐसा बेगाना सा हो जाए कि बिना बुलाए लगे कि पांव धरा ही नहीं जा सकता, अब बुलाएगा कौन? बच्चे बेख़बर नींद में ग़र्क और सास का जाया मार-पीट कर खरटि ले रहा है. देहरी तक आवाज़ आ रही है. अपने घर के दरवाज़े पर अनमनी सी खड़ी रही वर्तिका. अभी तो सब छोड-छाड़ कर निकल गई थी कि नहीं रहना यहां एक पल भी, जाती कहां? लौट आई. अपने ही घर के दरवाज़े पर अजनबी सी खड़ी रही. रात की गहन कालिमा ज़्यादा कि मन की निराशा ज़्यादा? इसका फ़ैसला कठिन था.
पता नहीं, कितना वक़्त बीता होगा. ऐसे में वक़्त कितनी मुश्किल से बीतता है... लगा, किसी ने अपने घर से बाहर झांककर देख लिया तो सोचेगा, वर्तिका जी आधी रात को घर के बाहर क्यों खड़ी हैं? क्या इमर्जेंसी हो गई?
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गहरी सांस लेकर फिर द्वार ठेल अंदर आई मेरे कदमों से. इसके सिवा जाना कहां? जीना-मरना सब वहीं, इस घर के अलावा कोई ठौर नहीं है. इसी को जान कर कूट-पीट कर लेते हैं कि रो-धो कर अपने आप चुप हो बैठेगी. चौदह बरस हो गए शादी को, ज़िंदगी ऐसे ही रोते-पीटते कटी है.
अपने बेदम से शरीर को बिस्तर पर पटक कर, परकटे पंछी सी फड़फड़ाती रही वर्तिका, क्या करे? कहां जाए? पर अब यह सब और नहीं सहना... तलाक़... सोचा, पर फौरन कानों को हाथ लगा लिया नहीं, नहीं.. और भी तो कोई सम्मानजनक तरीक़ा हो सकता है... अंधेरे में प्रकाश की किरण कौंधी तबादला हां यह ठीक है. तबादला करा कर किसी दूर शहर में चली जाएगी. पति तो अपना काम छोड़ कर संग जाने से रहे. बस मां-बच्चे प्रेम से जिएंगे.
रास्ता मिला तो दिल को चैन सा आ गया. ठीक है... क्यों घुट-घुट कर, पिट-पिट कर जिए.. अभी लंच से आधा घंटा पहले का समय होगा, जब वर्तिका अपनी डायरेक्टर के सामने खड़ी थी,
"प्लीज़, डू मी ए फेवर."
"कहो."
शायद कहने से पहले आंखें डबडबा आई होंगी. हाथ का काग़ज़ छोड़ कर श्रीमती अग्निहोत्री ने कुर्सी से टेक लगा ली और प्यार से बोलीं, "क्या हुआ?"
"मेरा ट्रांसफर करा दीजिए."
"कहां?"
"कहीं भी?
यह कहीं भी कुएं में छलांग लगाने जैसा है. यह भारत देश केवल दिल्ली में नहीं बसता, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और अंडमान, लक्षद्वीप... कहां-कहां तक फैला पड़ा है. वर्तिका को किस कोने में जा छुपना है, क्या पता?
"तबादले का क्या है. दो दिन में हो जाएगा, लेकिन करोगी क्या? बच्चे परेशान होंगे. भागी फिरोगी हर बात को, नया शहर, नई जगह, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की निगाहें, पति साथ न होंगे तो फ़ौरन पास-पडोसी पूछेंगे, "मुन्ने के डैडी नहीं दिखाई देते? इस संडे को भी नहीं आए?"
ज़ुबान पर आएगा कि तुम्हें क्यों चिंता है मुन्ने के डैडी की, पर नहीं कह सकोगी. ऐसे जवाब देते अपना दिल ख़ुद कच्चा होगा. आज जिससे बच कर शहर छोड़ने को उतावली हो रही हो, कल उनकी राह तकोगी कि अभी तक नहीं आए. फिर सारी दिनचर्या उनके चारों ओर घूमती रहेगी. वे अनुपस्थित होकर भी निरंतर उपस्थित बने रहेंगे और तुम उपस्थित होकर भी अनुपस्थित रहोगी. बच्चों के लिए भी उपस्थित मां से अनुपस्थित डैडी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो चुके होंगे. जिस पहचान के लिए तड़प रही हो, वह एक छलावा है. औरत तो वह बीज है, जो मिट्टी में मिलता है, तभी एक छतनार वृक्ष बनता है."
"पहचान के लिए, शांति के लिए तबादला चाहती हूं." वर्तिका के स्वर में अनुनय थी.
"बहुत झगड़ा होता है, मैं तंग आ गई हूं."
"झगड़े का कारण भी तो कुछ होगा?"
"बस ऐसे ही, मुंह से बोल नहीं फूटता, पीटने लगते हैं."
"किस बात पर?"
"बिना बात..."
"कुछ बात न मानती होगी?"
"मेरा दिल रोज़-रोज़ नहीं मानना चाहता..."
"ओह!"
"बस यही एक बात है... अब चौदह बरस हो गए... हर समय यही फ़रमाइश..."
"तुम मना कर देती हो?"
"और क्या? इसी पर मारपीट होती है. अब मारपीट से तो यह नहीं माना जा सकता..."
"तो प्यार से समझाओ."
"कोई समझे भी..."
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वर्तिका की आंखें झुक गई. एक घर की दास्तान सामने थी. बात-बात पर खीझा हुआ पति, कुढ़ी हुई बीवी, सहमे हुए बच्चे, लड़ाई-झगड़े से घुटन भरा, बोझिल वातावरण... न कोई खुल कर सांस ले सके और न हंसी होंठों तक आ सके... क्या है इसके पीछे? वितृष्णा या 'नहीं' कहने का केवल संस्कारगत संकोच, सही है कि चौदह बरस निकट आने के लिए भी बहुत होते हैं और चौदह बरस किसी दरार को खाई बनाने के लिए भी पर्याप्त होते हैं... यह प्रेम की परिणती है कि देह बल की विजय, समर्पण है या अधिकार... यह न जाना जा सकता है, न कहा जा सकता है, न पूछा जा सकता है. कुछ बातें हैं, जो बिना कहे-सुने महसूस की जा सकती है... ऐसे ही एक मोड़ पर रुकी खड़ी थी वर्तिका... श्रीमती अग्निहोत्री ने समझाया,
"हमेशा अपने बच्चों की मां बनकर जीने के अलावा नारी को कभी-कभी अपने पति की पत्नी मात्र भी बनना चाहिए, संभव हो तो प्रिया भी. प्रेम का बिरवा ऐसा है कि निरंतर सींचना होता है. रस सूख जाए तो पत्ता भी डाल से टूट कर गिर जाता है. उन्हें अपनी उपस्थिति से आश्वस्त होने दो, चीज़ें ख़ुद-ब-ख़ुद सहज हो जाएंगी."
श्रीमती अग्निहोत्री के कमरे से बाहर आते हुए लगा कि चीज़ें इतनी बोझिल नहीं होती, जितना हम उन्हें बना लेते हैं, वर्तिका को लगा कि आसमान साफ़ है.
- अलका पाठक
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