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कहानी- आख़िरी ख़त (Short Story- Aakhiri Khat)

मेरी वेदना और पल-पल रिसते घावों की पीड़ा से तुम अनजान नहीं हो. सारा दुख-दर्द सदा तुम्हारे साथ बांटती आयी हूं. अंतिम पीड़ा भी आज बांट लूं. तुम्हें जब पत्र मिलेगा, मेरा अस्तित्व मिट चुका होगा. बताओ नीरजा! मेरा क्या दोष था? क्यों मेरी मासूम भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ? मेरी संवेदनाओं, भावनाओं, सपनों, उमंगों की जघन्य हत्या करनेवाले समाज की मुख्य धारा से जुड़े लोग चैन से जी रहे हैं… और मैं, जिसके अरमानों का ख़ून हुआ, आत्महत्या पर मजबूर हूं. आख़िर क्यों नीरजा? क्या स़िर्फ इसलिए कि एक लड़की की भावनाओं की कद्र आज भी किसी को नहीं है.

‘दहेज की भारी मांग के कारण सगाई टूटने पर युवती ने आत्महत्या की.’
सुबह का अख़बार पढ़ा, तो मन भारी हो उठा. वही पुरातन ख़बर, जो प्राय: सुर्खियां बनती हैं और वर्षों से बनती चली आ रही हैं. न जाने इसका अंत कब होगा? इस ख़बर ने एक बार फिर साक्षी की कहानी याद दिला दी.
साक्षी की कहानी कोई कपोल कल्पित कथा नहीं, सच्चाई है. वर्षों पहले की घटना आंखों में आंसू बनकर छलक उठी.
उस सुबह चार बजे फ़ोन की घंटी ने हड़बड़ा कर उठा दिया था. ख़बर मिली थी, “नीरजा दी! साक्षी दीदी ने आत्महत्या कर ली. मैं उनकी छोटी बहन ममता बोल रही हूं.”
“क्या?” मेरा सर्वांग सिहर उठा था. साक्षी मेरी बचपन की सखी- हंसमुख, मिलनसार ज़िंदादिली से भरपूर. कॉलेज में भी हम दोनों साथ थे. मैं हिन्दी ऑनर्स की छात्रा थी और वो गणित की. ऐसी अभिन्न मित्रता जैसे दो शरीर और एक प्राण.
“नीरजा, हम दोनों कभी जुदा नहीं होंगे.” कहने वाली साक्षी इस तरह अचानक मुंह मोड़कर उस दुनिया में चली जाएगी, जहां से कोई वापस नहीं लौट सकता. इसकी कल्पना तक न थी. मैं भागी-भागी साक्षी के घर पहुंची.
आंगन में साक्षी का नश्‍वर शरीर रखा हुआ था. परिजनों का हृदयविदारक रुदन सबको पीड़ा से जड़ बना रहा था. मुझे देखते ही साक्षी की मां चीख पड़ी, “नीरजा! तेरी सहेली हम सबको दगा दे गयी.”
मैं मूक-बधिर सी बैठी थी. सांत्वना के सारे शब्द न जाने कहां विलुप्त हो गए थे. ज़मीन पर पड़ी गहरी नींद में सो रही साक्षी का मासूम चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे अचानक वो खिलखिलाती हुई उठ जाएगी और कहेगी ‘डरा दिया न?’ उसके नीले पड़ते चेहरे को एकटक निहारती मैं गहरी सोच में डूबती चली गयी.
हंसमुख, चंचल और बेहद सुन्दर साक्षी अपने मृदु व्यवहार से सबके दिल में घर कर जाती थी. दूसरों की आवाज़ की नकल करने में इतनी माहिर कि मेरी मां भी उसकी आवाज़ सुनकर समझती कि मैं बोल रही हूं. कुशाग्र बुद्धि, सुघड़, मिलनसार, साक्षी की ख़ुशियों को उसी दिन से मानो ग्रहण लग गया था, जिस दिन उसका विवाह समीर के साथ तय हुआ था. विवाह तय होने पर भावी ख़ुशनुमा जीवन की मधुर अनुभूति ने उसके मासूम हृदय पर जो मीठी-सी दस्तक दी थी, वो कल गहरे घाव में बदल उसका जीवन ही लील जाएगी, साक्षी को इसका तनिक भी आभास न था. उसने जब अपने भावी पति समीर के बारे में मुझे बताया था, तब उसके मुखड़े पर प्रतिबिंबित लज्जा की लाली और आंखों की चमक में बहुत कुछ कौंधा था.
उसकी आशाएं, सपने, उसकी प्रतीक्षा, मानो मुखर हो उठी थी. “वो एम.बी.ए. करके मुम्बई की एक बड़ी कम्पनी में काम करते हैं. अपना फ्लैट, कार सब कुछ है. वो बहुत सुन्दर हैं.” उसकी पलकें लाज से भारी हो उठी थीं.

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“हां भई! अब तो तुझे ससुराल और अपने ‘उन’ के सिवा कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा. इतने बड़े घर की बहू जो बनने जा रही है. लगता है शादी के बाद तू मुझे भी भूल जाएगी.” मैंने मीठी चुहल की तो वो बेसाख़्ता मेरे गले से लिपट भीगे स्वर में बोली, “कैसी बातें करती है नीरू. मैं और तुझे भूल जाऊं? दुनिया इधर की उधर हो जाए, पर ये कभी नहीं हो सकता. एक तू ही तो है, जिससे मैं सारा दुख-दर्द बांट सकती हूं.”
कितना ग़लत कहा था साक्षी ने, कहां बांट पायी वो अपना सारा दुख-दर्द? अगर मुझे उसकी खण्डित मानसिक दशा का ज़रा भी अनुमान होता, तो क्या आज वो सारे रिश्ते-नाते तोड़ जा सकती?
भीषण आर्तनाद, भारी विलाप के स्वर ने मेरी सोच पर विराम लगा दिया था. साक्षी का पार्थिव शरीर चार कंधों पर चढ़कर अन्तिम यात्रा हेतु तैयार था. हे ईश्‍वर! जो कुछ साक्षी के साथ घटा किसी भी लड़की के साथ न घटे. मन-ही-मन प्रार्थना करती मैं जार-जार रो पड़ी थी. हृदय वेदना से फटा जा रहा था और भीगी आंखों में बीती घटनाएं पुन: चलचित्र की भांति नृत्य कर उठी थीं.
अपनी सगाई के दिन कितनी ख़ुश थी साक्षी. सबकी नज़रें बचाकर वो बार-बार ड्रेसिंग टेबल की दराज में रखी समीर की तस्वीर निहार रही थी. उसकी ये हरकत मेरी दृष्टि से छिपी नहीं थी और चोरी पकड़ी जाने पर कितनी लजा गयी थी. वह और मैं दिल खोलकर हंस पड़ी थी. समीर और उसके परिवारवालों को देख कर सबने साक्षी के भाग्य को सराहा था. माता-पिता, दो छोटी बहनें, एक छोटा भाई, भरा-पूरा परिवार था समीर का.
अब साक्षी प्राय: सपनों की मादक दुनिया में खोई रहती. दो महीने बाद शादी की तिथि निर्धारित हुई थी. एक दिन वह मेरे घर आयी तो उसके सुन्दर मुखड़े पर विषाद की गहरी बदलियां देख मैंने टोका था, “क्या हुआ साक्षी?”
“नीरजा! क्या बेटी के रूप में जन्म लेना पाप है?”
“ये तू क्या कह रही है?” मैं हतप्रभ थी.
“लड़कियों के गुण, उनकी शिक्षा, आचार-व्यवहार सब कुछ रुपयों के आगे गौण क्यों समझ लिए जाते हैं? अगर समीर एक अच्छे उपयुक्त ‘वर’ हैं तो क्या मैं भी उनके योग्य नहीं हूं?”
“आख़िर हुआ क्या?”
“उन लोगों ने सात लाख कैश और एक मारुति वैन मांगी है. पता है मुझे उदास देखकर पापा ने क्या कहा, बोले, बेटी! मन में कोई अपराधबोध मत पालो. ये समाज की रीत है. पिता का फर्ज़ है. तुम बस आनेवाले ख़ुशनुमा भविष्य के बारे में सोचो. पर नीरजा! आज मुझे अपने अस्तित्व पर शर्म आ रही है. पापा घर के बगल की चार कट्ठा ज़मीन भी बेच रहे हैं, जहां हमारा बचपन खेलते-कूदते, घरौंदे बनाते गुज़रा है.” वो फूट-फूट कर रो पड़ी थी.
मेरी समझ में नहीं आ रहा था मैं उसे कैसे सांत्वना दूं? मैं भी तो एक लड़की थी उसी की तरह विवाह की दहलीज़ पर खड़ी. भविष्य के सुन्दर स्वप्न बुनती, पर भीतर से भयभीत. समाज, रीति-रिवाज़ इन सब चीज़ों से मुझे भी तो दो-चार होना पड़ेगा, यह सोचती गहरी व्यथा से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करती.
वक़्त अपनी गति से बीतता रहा. साक्षी की विवाह की तिथि विभिन्न कारणों से टलती रही. एक दिन मैंने पूछा तो वो फट पड़ी. “अब मैं क्या कहूं? मेरे भावी ससुरजी का कहना है, पहले उनकी बेटी का ब्याह होगा, फिर हमारी शादी होगी. पापा बता रहे थे हमारे दिए रुपए ही उन्होंने अपनी बेटी के ससुरालवालों को दिए हैं.”
“अच्छा! कब होगी तेरी ननद की शादी?”
“दिसंबर में!”
“इसका मतलब है जनवरी-फरवरी में तेरे ब्याह की मिठाई खा सकूंगी… है न?” मैंने हंसकर कहा था तो वो भारी स्वर में बोली थी, “पता नहीं.”

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इन्सान जो सोचता है, हमेशा वही नहीं होता, व़क़्त कभी-कभी हर मोड़ पर परीक्षक की तरह खड़ा मिलता है. न जाने साक्षी को अभी कितनी परीक्षाओं से गुज़रना था. इस बीच एक ऐसी घटना घटी, जिसने साक्षी को तोड़ कर रख दिया. एक सुबह उसके भावी ससुराल से फ़ोन आया कि गाड़ी और शेष दो लाख रुपये, जो विवाह के समय देने थे, सप्ताहभर के भीतर दे दिए जाएं, तभी विवाह की तिथि तय होगी. साक्षी के पिता ने बार-बार विनती की कि वे अतिशीघ्र सब कुछ दे देंगे. शादी जल्द-से-जल्द नहीं हुई तो लोग तरह-तरह की बातें बनाएंगे. समाज और रिश्तेदारी में भी विभिन्न तरह की बातें उठेंगी.
लगभग डेढ़ वर्ष से केवल तिथियां दी जा रही हैं. पर समीर के पिता की एक ही ज़िद थी, अभी सब कुछ दे दिया जाए. जून के पहले सप्ताह में शादी ज़रूर हो जाएगी. साक्षी के पिता मजबूर थे. मन में विचारों का बवंडर उठ खड़ा हुआ था. आख़िर क्यों बार-बार शादी की तिथि बढ़ाई जा रही है? लड़का सगाई के बाद न तो एक बार भी आया है, न कभी फ़ोन या पत्र के माध्यम से सम्पर्क हुआ है. ऊपर से बार-बार रुपयों की मांग? कोई संवेदना, कोई गहन विचार नहीं. बेटी की चिन्ता उन्हें घुन की भांति अन्दर-ही-अन्दर खाए जा रही थी. चिन्ता का परिणाम यह हुआ कि अचानक गहरे मानसिक तनाव के कारण हृदयाघात से मौत. इस घटना से पूरा परिवार सन्न रह गया और पिता की असमय मौत के लिए स्वयं को ही ज़िम्मेदार मानने वाली साक्षी परकटे पंछी की तरह मर्मान्तक पीड़ा के अगाध सागर में डूबती चली गयी.
साक्षी के पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके भावी ससुरालवाले भी मातमपूर्सी के लिए आए, तो समाज के गणमान्य लोगों ने भी जल्द-से-जल्द विवाह सम्पन्न कराने की बात कही.
पर जिस व्यक्ति के मन में जीवित व्यक्ति के प्रति कोई संवेदना न हो, उससे मृत व्यक्ति की आत्मा की शान्ति हेतु उपाय करने की याचना करना भी सर्वथा ग़लत साबित हुआ. दबी ज़ुबान से ही सही, पर साक्षी के ससुर ने स्पष्ट कह दिया, “हमने जो कहा है, उसे तो आपको मानना ही होगा. आप जल्द-से-जल्द व्यवस्था करें. समीर दशहरे की छुट्टियों में आ रहा है, शादी भी हो जाएगी.”
साक्षी की मां और बड़े भाई का बुरा हाल था. साक्षी के बाद उसकी छोटी बहन ममता का विवाह भी करना था. कैसे सारी व्यवस्था होगी? ये कराल प्रश्‍न मुंह बाए खड़ा था. आख़िरकार तय हुआ कि साक्षी के पिता के प्रोविडेंट फंड और गांव की पुश्तैनी ज़मीन बेचकर किसी तरह साक्षी का विवाह कर दिया जाए. इन सारे घटनाक्रमों के बीच साक्षी जल बिन मछली की तरह तड़प रही थी. मैं साक्षी की आन्तरिक वेदना से अनभिज्ञ नहीं थी. पल-पल रिसते-टीसते उसके घावों की पीड़ा को मैंने भी महसूस किया था. एक दिन वो घर आयी, तो उसके पिता की मौत पर दुख प्रकट करने के लिए फ़ोन किया था. आहत साक्षी ने विह्वल होकर मुझसे कहा था.
“लगता है समीर पिता के दबाव में आकर शादी कर रहा है. सूखी-सी संवेदना प्रकट की उसने. उसके शब्दों में, वेदना या प्रेम की उष्मा लेशमात्र न थी. ऐसा लगा मानो कर्त्तव्य निभाया हो.”
साक्षी की बातें कई प्रश्‍नों को जन्म दे रही थीं. अन्तर्मन में गूंजते प्रश्‍नों के घेरे में कैद वो तड़प रही थी. धीरे-धीरे उसने घर से बाहर निकलना भी छोड़ दिया था. लोगों की भेदती नज़रें, कई निरर्थक टोही प्रश्‍न उसकी पीड़ा को द्विगुणित जो कर देते थे.
एक दिन उसके सारे सवालों के हल अचानक मेरे सामने आ खड़े हुए. मेरा मौसेरा भाई कुन्दन जो मुम्बई में नौकरी करता है, तीन साल बाद घर आया, तो हम सब बहुत ख़ुश हुए. बातों-ही-बातों में पता चला कि समीर उसका जिगरी दोस्त है.
“बेचारा, मां-बाप ही दुश्मन बने हुए हैं उसके. एक तो बिना उससे पूछे उसकी शादी तय कर दी, ऊपर से लाखों रुपये दहेज के ले लिए.”
मैंने बीच में ही बात काटते हुए पूछा, “तो शादी क्यों नहीं कर लेता?”
“वो एक महाराष्ट्रियन लड़की से, जो उसकी सहकर्मी भी है, प्रेम करता है.”
“अगर किसी से प्रेम करता था, तो माता-पिता को अन्धेरे में क्यों रखा?”
“उसने सारी बातें परिवारवालों को बता दी थीं, पर घरवाले इस विजातीय विवाह के  लिए राजी नहीं थे. समीर की मां ने अन्न-जल त्याग दिया. ज़हर खा लेने की धमकी दी, तो वो बेमन से लड़की देखने को तो सहमत हो गया, पर साफ़-साफ़ कह दिया, उसे सोचने के लिए वक़्त चाहिए. बिना उससे पूछे बात आगे न बढ़ायी जाए.”
“फिर?” मेरे मन में तेज़ आंधियां शोर मचाने लगी थीं.
“फिर क्या? अब वो ठानकर आया है कि शादी नहीं करेगा. उसे इस बात पर बेहद ग़ुस्सा आया है कि लड़कीवालों से रुपये लेकर उसकी बहन की शादी में ख़र्च भी कर दिए गए और उसे कुछ पता भी नहीं चलने दिया. शायद उसके पिता के मन में भय था कि अगर समीर ने प्रेम-विवाह कर लिया तो अपनी बेटी के ब्याह के लिए वो लाखों रुपये कहां से लाएंगे. सच कहता हूं नीरजा! समीर जैसा लड़का लाखों में एक होता है. वो तो माता-पिता की बात मानकर अपने प्रेम की भी बलि देने को तैयार था. पर पिता ने उसे मोहरा बनाकर अपना मतलब साधा है, ये बात उसे भीतर तक दंश दे गयी है. अगले महीने वो उसी महाराष्ट्रियन लड़की से कोर्ट-मैरिज करनेवाला है.” कुन्दन भैया ने बताया तो मेरे पांव तले ज़मीन खिसक गयी. साक्षी का भोला चेहरा आंखों में घूमने लगा. मन का गुबार शब्दों के रूप में बह निकला, “भैया कभी सोचा है, बाप-बेटे की तकरार की चक्की में आख़िर पिसेगी तो एक मासूम निर्दोष लड़की ही न! सगाई के एक-डेढ़ साल बाद शादी टूट जाने पर लड़की पर क्या बीतेगी? समाज में उसकी बदनामी का ज़िम्मेदार कौन होगा? कितने लोग सच्चाई जान पाएंगे? लड़की के माथे ही कोई-न-कोई दाग़ लगा दिया जाएगा.”
मन में वेदना का बवंडर समेटती मैं साक्षी के घर पहुंची. एक कटु सत्य बताने के लिए मन-ही-मन हिम्मत जुटा रही थी कि साक्षी की मां ने बताया, रुपयों की व्यवस्था कर ली गयी है गांववाला घर गिरवी रख कर. मैं आगे सुन नहीं सकी और वो सब कुछ बताती चली गयी, जो कुन्दन भैया से पता चला था. साक्षी की मां हतप्रभ रह गयी थी और साक्षी का गोरा मुखड़ा फांसी की सज़ा पाए कैदी की तरह स्याह हो गया था.

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“हे भगवान! ये तो नीचता की हद हो गयी. अब क्या होगा..?” कहते हुए साक्षी की मां ने सारी बात साक्षी के बड़े भाई रवि को बताई, तो वो भी सकते में आ गया. “क्या आदमी इतना नीचे भी गिर सकता है? पैसों की ख़ातिर अपने बेटे के साथ-साथ एक मासूम लड़की की ज़िन्दगी भी नर्क में झोंक दी कमीनों ने. अब तो वो चाहेंगे भी, तो मैं बहन को कुएं में नहीं धकेलूंगा. रुपए तो उन्हें हर हाल में लौटाने होंगे.”
“बेटा! जोश से नहीं, होश से काम लो.” साक्षी की मां ने कहा.
“होश से ही तो काम कर रहा हूं मां, नहीं तो ऐसे पाखण्डियों के ख़िलाफ़ मैं पुलिस में रिपोर्ट कर देता. पर जानता हूं पुलिस-कचहरी के चक्करों से हमारी ही बदनामी होगी.” रवि ने कहा था.
“साक्षी! तू दुखी मत हो. ये तो अच्छा हुआ सब कुछ पता चल गया. अगर कहीं दबाव में शादी हो जाती और तुझे तकलीफ़ झेलने पर मजबूर होना पड़ता तब क्या होता? जहां विधि ने लिखा होगा वहां विवाह हो जाएगा.” मां समझाने लगी, तो साक्षी चुपचाप उठकर भीतर चली गयी थी. कुछ दिन बीते… एक दिन पता चला रवि के बार-बार कहने पर भी समीर के पिता ने रुपये वापस नहीं किए थे. रवि बेहद खिन्न था और अचानक वो आघातदायी हृदयविदारक घटना घट गयी. मानसिक परेशानियों का भीषण दबाव सहन कर सकने में असमर्थ साक्षी ने आत्महत्या कर ली.
पूरी रात मैं सो नहीं पायी. आंगन में पड़ा साक्षी का मृत शरीर बार-बार आंखों में कौंधता रहा… मैं अपने ही आंसुओं के सैलाब में डूबती चली गयी.
इस घटना के तीसरे ही दिन डाक से एक पत्र मिला. पत्र मेरे नाम था… लिखावट देखकर मैं चौंक पड़ी. ये तो साक्षी की लिखावट है. जल्दी से पत्र खोलकर पढ़ने लगी. जैसे-जैसे एक-एक शब्द पढ़ती गयी, पूरा शरीर पसीने से भीगता चला गया. आंखों के सिवा पूरा शरीर जैसे जड़ हो गया था. उसने लिखा था.
मेरी प्यारी सखी,
मेरी वेदना और पल-पल रिसते घावों की पीड़ा से तुम अनजान नहीं हो. सारा दुख-दर्द सदा तुम्हारे साथ बांटती आयी हूं. अंतिम पीड़ा भी आज बांट लूं. तुम्हें जब पत्र मिलेगा, मेरा अस्तित्व मिट चुका होगा. बताओ नीरजा! मेरा क्या दोष था? क्यों मेरी मासूम भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ? मेरी संवेदनाओं, भावनाओं, सपनों, उमंगों की जघन्य हत्या करनेवाले समाज की मुख्य धारा से जुड़े लोग चैन से जी रहे हैं… और मैं, जिसके अरमानों का ख़ून हुआ, आत्महत्या पर मजबूर हूं. आख़िर क्यों नीरजा? क्या स़िर्फ इसलिए कि एक लड़की की भावनाओं की कद्र आज भी किसी को नहीं है.
मैं जानती हूं, मेरे जाने के बाद भी किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. मेरा दर्द केवल मेरे स्वजनों का दर्द मात्र बनकर रह जाएगा. न दहेज प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठेगी, न बेटी का दर्द कोई समझेगा. समाज की नज़रों में मैं आज आत्महत्या कर रही हूं, पर मेरी मौत तो उसी दिन हो गयी थी जब मेरे विवाह की चिन्ता में पापा चल बसे थे.
समीर ने कितनी आसानी से रिश्ता तोड़ दिया. भैया रुपया वापस पाने के जुगाड़ में लग गए और मां ने कह दिया, जहां लिखा होगा, वहां विवाह हो जाएगा. पर नीरजा! सब भूल गए, मैं कोई काठ की गुड़िया नहीं. जीती-जागती एक स्त्री हूं. सगाई के बाद समीर के साथ जो नेह बन्धन जुड़ा, तो मृत्युपर्यन्त कायम रहेगा. स्त्री एक बार ही किसी को अपना हृदय सौंपती है. मैंने भी समीर को पति मानकर सर्वस्व सौंप दिया था. अब कैसे किसी दूसरे के साथ निभा पाती, बोलो?
मेरी मौत तो उसी क्षण हो गयी थी जब समीर के मन में सगाई के महीनों बाद भी मेरे प्रति कोई स्नेहिल संवेदना जागृत नहीं हुई थी. ये एक स्त्री का अपमान था न नीरजा? मैं आहत हूं. इस गहरे दंश से उबर नहीं पा रही हूं. अनकही वेदना का भार असह्य हो उठा है, इसलिए कई उम्मीदें साथ लिए जा रही हूं. पर ईश्‍वर से प्रार्थना करती हूं कि मैं फिर लड़की के रूप में ही जन्म लूं, जिसमें अपने सारे बिखरे ख़्वाब सजा सकूं. पर तब, जब समाज से दहेज का कोढ़ मिट जाए. विकसित समाज का ये बदनुमा दाग़ धुल जाए. फिर कोई लड़की भविष्य के मीठे सपनों का साक्षात्कार करने की तमन्ना लिए मृत्यु के अन्धकार की साक्षी न बने. क्या ऐसा स्वर्णिम समय कभी आएगा? अगर हां, तो मैं भी आऊंगी. और नहीं, तो समझना तुम्हारी साक्षी चली गयी..! बस. अब आख़िरी विदा.”
पत्र पढ़कर मैं संज्ञाशून्य-सी बैठी रह गयी थी. “क्या ऐसा समय कभी आएगा?” इन शब्दों की गूंज से आत्मा छटपटाने लगी थी. वर्षों बीत गए… आज भी ये प्रश्‍न अन्तर्मन में गूंज ही रहा है.

डॉ. निरुपमा राय

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