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कहानी- आहुति (Short Story- Aahuti)

“मैं तुम्हारे लिए पानी लाती हूं.” उठते हुए मैंने कहा. पर आगे बढ़ नहीं पाई. उसने मेरी साड़ी के पल्लू को पकड़ रखा था, “तुम भी आना. मेरी शादी में… मेरी शादी होगी… दुर्वा के साथ… तुम आओगी ना?” उसके चेहरे पर एक शर्मिला सा भाव आ गया था.
जी तो चाह रहा था कि सब कुछ भूलकर मनीष को गले से लगा लूं. पर, देखा दरवाज़े पर अभी-अभी राजीव आकर खड़े हो गए थे. मेरे पैरों में ज़ंजीर पड़ गई थी.

रीतते-रीतते ज़ख़्म अब भरने लगे थे. मैं भी निश्‍चिंत होकर जीने की अभ्यस्त हो चुकी थी. पर हृदय में दफ़न हो चुकी यादों को भी हवा मिलते ही जी उठना पड़ता है, ऐसा मैं आज महसूस कर रही हूं. कब सोचा था कि फिर एक बार मुझे उसी आबोहवा में लौटना पड़ेगा, जिससे संबंध तोड़ चुकने का दावा मेरे मन ने न जाने कितनी बार अपने आप से किया था.
नागपुर मेरा शहर है. मेरा अपना शहर. बचपन की उन्मुक्त यादों और युवावस्था की संवेदनाओं, ठिठोलियों से जुड़ा शहर. इस शहर में बहनेवाली हवा की ख़ुशबू में मुझे मेरी अपनी सुगंध आती है. यहां की मिट्टी को जैसे मेरा रोम-रोम पहचानता है. यहां के पेड़-पौधों से लगता है, मैं जन्म-जन्मांतर से जुड़ी हुई हूं. यहां से नज़र आनेवाला पूरा आकाश, संपूर्ण धरती, सिमेंट और मिट्टी से बने हर छोटे-बड़े मकान मुझे मेरे अपने लगते हैं.
मुंबई से कल रात जब ट्रेन में चढ़े थे, तो पूरे बारह बरस बाद अपनी जन्मभूमि के दर्शन के ख़्याल भर ने मुझे रोमांचित कर दिया था. यह बात अलग है कि इन बारह सालों में मैंने नागपुर आने के कई आमंत्रणों को अस्वीकार कर दिया था. अपने ही शहर, अपनी ही जन्मभूमि से एक नाराज़गी मुझे सदैव जायज़ लगी थी.
माता-पिता तभी चल बसे थे, जब मैं तुतलाकर कुछ एक शब्दों का ही उच्चारण कर पाती थी. बड़े पितातुल्य भाइयों ने बड़े ही स्नेह और वात्सल्य से पाला था मुझे… कभी शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया था उन्होंने मुझे. पर, आज सालों बाद लगता है उनका स्नेह मेरी शांत, संतुष्ट प्रवृत्ति की परिणीति ही तो थी. उनकी हर आज्ञा को मैंने सदैव सिर आंखों पर लिया. फिर वो मुझसे नाराज़ होते भी तो क्यों?

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माता-पिता विहिन मैंने कब और कैसे अपने भाइयों के स्नेह को, उनकी कृपादृष्टि को अपने पर एहसान मानना शुरू कर दिया, यह मुझे याद नहीं. पर, मैंने न उनसे कभी किसी चीज़ के लिए ज़िद की, न लडियाकर अपने किसी आग्रह को पूरा करने हेतु गुहार लगाई. भाइयों और भाभियों को अपना रहनुमा मानकर मैं किसी भी ख़्वाहिश को अपने दिलो-दिमाग़ में जन्म ही नहीं लेने देती थी.
फिल्मों के लिए पहले से ही टिकट बुक हो जाया करते थे और घर से निकलने के पूर्व एक औपचारिक सा प्रश्‍न पूछ लिया जाता था, “तुम चलोगी?”
तब बहुत इच्छा हुआ करती थी फिल्म देखने की, पर मैं उन्हें किसी भी प्रकार की दुविधा से बचाने के उद्देश्य से ना में जवाब देकर अपनी ख़ुशियों का गला घोंट देती थी. भाभियां मेरे जवाब से राहत महसूस करती थीं. अपनी आकांक्षाओं पर अपनी विवशता का जामा मैंने इतनी ख़ूबसूरती से डाल रखा था कि मेरी आकांक्षाए कभी किसी को नज़र ही नहीं आती थीं.
ज़िंदगी बड़ी शांतिपूर्ण ढंग से चल रही थी, निर्बाध गति से. कॉलेज आना-जाना और घर के कामकाज के बाद अपनी पढ़ाई पूरी करके, बिस्तर पर लुढक जाना, यही मेरी दिनचर्या थी. न कभी कॉलेज बंक करके कोई फिल्म देखने गई, न कभी फैशन और सौंदर्य पर अपनी सखियों से कोई चर्चा करने का साहस कर सकी. मेरा जीवन मेरी सखियों के आगे एक खुली किताब कभी न बन सका. मेहनत से रोजी-रोटी कमानेवाले भाइयों के पैसों को फिल्म और फैशन में उड़ा देना मुझे जायज़ नहीं लगता था. अत: अपनी सखियों के आग्रह को बड़ी बेरुखी से नकार देना मेरी विवशता बन गई थी.
परन्तु कभी-कभी इंसान अपने वश में नहीं रह जाता है. उसके सोचने-समझने की शक्ति पर परदा पड़ जाता है. उस रोज़, पहली बार मेरे भाइयों का ख़्याल मेरे हृदय की धड़कन को वश में नहीं कर पाया. मैं अपने लिए स्वयं से कुछ चाह बैठी थी.
“तुम अनु की सहेली दुर्वा हो ना?” बस में मेरे बिल्कुल बगलवाली सीट पर बड़े अधिकार से बैठते हुए उसने पूछा, तो निश्छल स्नेह से दुमकती उसकी आंखों को अपलक निहारती रह गई थी मैं. वो मुस्कुराया तो मेरे हृदय की युवा धड़कने पहली बार झनझना उठीं और अगले ही पल संकोचवश आंखें झुक गई थीं.
“जी आप?”

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“कैसे पहचानोगी मुझे? पांच-छह साल से नागपुर में था ही नहीं. बैंग्लुरु में इंजीनियरिंग कर रहा था.”
“आप… मनीष?”
“हां…” मेरे मुंह से अपना नाम सुनते ही उसके चेहरे पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई. हमारे घर के पास ही तो था उसका घर. मेरे स्कूल की सहेली अनु का भाई था वो. जब से स्कूल छूटा अनु के घर जाना भी कम हो गया था, इसीलिए मनीष से काफ़ी दिनों के बाद मिलना हुआ. पहले मनीष को कई बार देखा था, पर तब बिल्कुल गंवार सा लगता था. पर अब…
“आप काफ़ी बदल गए हैं.” बात आगे बढ़ाने का प्रयास करते हुए मैंने कहा.
“तुम भी तो बदल गई हो. अब पहले से कहीं ज़्यादा प्यारी लगने लगी हो…” एक प्यारी सी मुस्कान के साथ अपने भावों को तत्काल व्यक्त कर जैसे वो आश्‍वस्त हो गया था. मैं भी बस से बाहर देखते हुए अपनी ख़ुशी को छुपाने का असफल प्रयास करने लगी.
यह क्षण मेरा अपना था. नितांत अपना. न यहां कोई विवशता थी, न औपचारिकता. पहली बार अपने होने का एहसास हुआ था मुझे. पर कहां पता था कि ये पल मेरे जीवन का अर्थ बदल देंगे.
हमारे हृदय में प्रेम का बीज पड़ चुका था और मैं इस पौधे को विश्‍वासरुपी जल से सींचने लगी थी. मनीष से हर रोज़ मुलाक़ात होती. कभी बस में, कभी कॉलेज कैम्पस में, तो कभी घर के आसपास भी. हम उन्मुक्त होकर बातें करते. हमारे प्रेम को किसी का भय नहीं था. मनीष एमआईडीसी में एक फैक्ट्री में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था.
वो बेख़ौफ़ मुझसे मिलता. मैं भी तो बेख़ौफ़ ही थी. सोचती थी एक बार मेरे भाई मुझे मनीष के साथ देख ही लें, तो अच्छा हो, ताकि मुझे स्वयं अपने भाइयों को अपने निर्णय से अवगत न कराना पड़े.
पर, मैं ग़लत थी. जब मैं मनीष के साथ पकड़ी गई, तो घर में बवाल मच गया. हमारी ही जाति व बिरादरी का होने के बावजूद मेरे इस कृत्य को मेरे भाइयों ने अपना अपमान समझा. भाइयों ने कई तमाचों से मेरे गालों को लाल कर दिया और भाभियों ने अपने तानों से मेरे हृदय को छलनी कर दिया.
मुझे बताया गया कि मेरा विवाह छह माह पहले ही तय हो चुका है. अत: मेरे अपने निर्णय का कहीं कोई मोल न था. मेरे ज़रा से विरोध पर मेरे भाइयों ने अपने द्वारा किए गए एहसानों की गिनती करा दी. मैं क्षुब्ध थी, पर स्तब्ध नहीं. भाइयों को समझने में बचपन से मैंने कभी ग़लती नहीं की थी. मैंने बचपन से ही अपने प्रति उनके कर्तव्यों को उनका एहसान ही माना था और उन्होंने भी जता दिया कि वो सिर्फ़ एहसान ही कर रहे थे.
तब कई बार लगा था कि मैंने ही अपने भाइयों की हर आज्ञा को सिर आंखों पर रखकर उन्हें बिगाड़ दिया था. मैं स्वयं भी यदि अपनी आकांक्षाओं का सम्मान करती, तो कदाचित वे भी मेरी आकांक्षाओं का सम्मान करना सीख जाते. अपनी वर्तमान स्थिति के लिए मैं स्वयं को दोषी मानती थी.
मनीष से अंतिम बार मिलने के उद्देश्य से गई, तो उसने आलिंगनबद्ध करते हुए कहा था, “चलो दुर्वा भाग चलें.” और… उसकी कोमलकांत भावनाओं का सम्मान करते हुए मैंने कहा था, “हां चलो…”
पर मैं भाग नहीं पाई, पकड़ी गई. चोरी करने की आदत जो नहीं थी. भाइयों ने मुझे एक कमरे में क़ैद कर दिया. मनीष पर क्या बीत रही थी. कुछ पता नहीं चला. ज़बरन मेरा विवाह राजीव से कर दिया गया. दुल्हन के जोड़े में भी आंखें मनीष को तलाशती रहीं. लग रहा था कहीं से वो फिल्मी हीरो सा आकर मुझे बचा ले जाएगा. पर जीवन फिल्म नहीं थी और ना ही मनीष कोई हीरो था. मैं मनीष के साथ हर हाल में ख़ुश रह सकती थी. पर एक अंजान व्यक्ति के सात एक थोपा गया रिश्ता ख़ुशी से कैसे निभाती? मैं राह तकती रही और वक़्त बीत गया. मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र ने मुझे एक ही मिनट में हमेशा के लिए मनीष से दूर कर दिया.

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मेरे हृदय में भाइयों के प्रति कोई सम्मान शेष नहीं रह गया. राजीव के साथ मैं ख़ुश थी. दुखी रहकर राजीव को भी दुखी करने का पाप मैं नहीं कर पा रही थी. समझौता करने की आदत थी, सो समझौता करती चली गई. यह बात अलग है कि इसी समझौते को निभाते-निभाते मैं राजीव को प्यार भी करने लगी थी. वो मेरे दो प्यारे-प्यारे बच्चों का पापा जो था.
वर्ष तेज़ी से बीत रहा था. इस बीच भाइयों ने कई बार मुझे नागपुर बुलाया. दोनों बच्चों के प्रसव के लिए भी वे मुझे लेने आए, पर मैंने जाने से इंकार कर दिया. भाइयों द्वारा किए गए अपने तिरस्कार को मैं भूल नहीं पाई थी. मनीष की टीस दिल के किसी कोने में आज भी व्याप्त थी. कई बार लगता मनीष तो पुरुष है… मेेरे स्नेह को कदाचित वो भूल भी गया होगा. मैं ईश्‍वर से प्रार्थना करती थी कि ऐसा ही हो. मनीष जहां भी हो, सुखी हो. अपने अंतर्मन में मैंने मनीष के प्रेम जो दीप बड़ी ही निर्मलता के साथ जलाया था, उसकी लौ आज भी बरक़रार थी. मैं अपने इस मौन प्रेम पर संतुष्ट थी.
इस बार नागपुर जाने के लिए मना कर पाना संभव नहीं था. अब बड़े भैया की बड़ी बेटी पूजा की शादी थी. भैया ने पहले तो फोन पर शादी की सूचना दी थी, फिर निमंत्रण देने भी आ गए.
“दुर्वा… पूजा को तुमने भी गोद में खिलाया है. याद है ना? तुम्हें आना ही होगा पूजा के लिए.” इस बार नकारना संभव नहीं था. पूजा जब पैदा हुई थी, तब उसे अपनी गोद में ही लिए घूमती रहती थी मैं. पूजा को मुझसे जो लगाव था वो पिछले एक-दो बार उसके मुंबई आने पर मैंने महसूस भी किया था.
मुझे नागपुर जाने के लिए राजीव को मनाना नहीं था, सिर्फ़ इच्छा ज़ाहिर करनी थी, सो मैंने कर दी. हम नागपुर पहुंच चुके थे. भैया का घर शंकर नगर में है. मैंने देखा काफ़ी बदल गया है नागपुर. सड़कें बहुत चौड़ी और साफ़ लग रही थीं. उबड़-खाबड़ वाले रास्ते अब नज़र ही नहीं आ रहे थे. कई नई व सुंदर इमारतों ने नागपुर को एक सुंदर शहर में बदल दिया था. यहां यदि कुछ नहीं बदला, तो यहां की आबोहवा व हृदय को छू जानेवाले सुंदर एहसास. अपनत्व के एहसास से भरा यह शहर मुझे रोमांचित करने लगा था.
भैया ने भी अपने घर को अच्छे-ख़ासे बंगले में बदल लिया था. घर पहुंचते ही मेहमानों और रिश्तेदारों से घिर गई थी. सालों बाद मुझे देखते ही वे ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे. एक साथ कई सवालों की वर्षा हो रही थी. मैं ख़ुश थी. सभी का अपनापन पाकर अपने तिरस्कारों को भूलने लगी थी. कई बार लगा कि अचानक मनीष दिख गया, तो कैसे होगा उससे सामना? पर नहीं, अब तो शायद नागपुर ही छोड़ दिया हो उसने. इंजीनियर था किसी अच्छे शहर में, अच्छी नौकरी मिल गई होगी.
“दुर्वा, तुम्हें ही पूजा को तैयार करना है. उसे शाम को मेंहदी लगा देना और फेशियल ब्लीच भी. और पूजा… तुम्हें काफ़ी दिनों के बाद बुआ मिली है… अपनी पूरी कसर निकाल लेना…” भाभी ने मुझे और पूजा को एक साथ आदेश दिया तो पूजा मेरे गले लग गई.
मैंने अपने हाथों से अपनी फूल-सी नाज़ुक, गुड़िया सी भतीजी पूजा को दुल्हन बनाया. दुल्हन के वेश में पूजा एक अप्सरा सी प्रतीत हो रही थी. निश्‍चिंत समय में बारात आई. लड़का पूना में आईएएस ऑफिसर था. विधिवत रस्म शुरु हो गई. मैं ब्याह के हर रस्म को गौर से देख रही थी कि तभी जानी-पहचानी आवाज़ कानों को छू गई. हृदय को भेदकर रख दिया था इस आवाज ने.
“खाना कब मिलेगा भैयाजी… बताइए ना… खाना कब मिलेगा?” भैया को झकझोरते हुए वो पूछ रहा था और भैया एक अपराधी सी दृष्टि से रह-रहकर मुझे ताकते हुए उसे वहां से हटाने का असफल प्रयास कर रहे थे. मैंने देखा, तो लगा अभी अचेत होकर गिर पडूंगी… चेहरे में कोई बदलाव नहीं. पर आंखें जैसे विस्फारित‌ सी थी उसकी. उसका असामान्य व्यवहार, बदहवास से भैया को झकझोरते उसके हाथों की तीव्रता ने मुझ पर जैसे वज्रपात सा कर दिया. मुझे यह समझने में ज़रा भी देर न लगी कि मनीष अपना मानसिक संतुलन खो चुका है.
अब समझी कि सालों तक मैं यदि नागपुर नहीं आना चाह रही थी, तो इन लोगों ने मुझे मनाया क्यों नहीं… अपने प्रेम की गुहार लगाते हुए मुझे यहां आने को बाध्य क्यों नहीं किया? वजह मेरे सामने थी… मनीष के इस कटु सत्य को वे मुझसे छुपा लेना चाहते थे.
पल भर में ही मैं विद्रोही हो गई. सब कुछ भूल गई. “आओ, मैं तुम्हें खाना देती हूं…” मनीष का हाथ थामे मैं उसे अंदर ले गई. भाइयों और रिश्तेदारों के चेहरे उतरते चले जा रहे थे. मनीष को अंदर ले जाकर मैंने उसे पलंग पर बैठाया. मिठाई की प्लेट आगे करते हुए पूछा, “कैसे हो?”
“ठीक हूं…” तेजी से मिठाइयों को गटकता हुआ वो बोला. चेहरे पर एक भयानक सी मुस्कुराहट थी.
“मुझे पहचानते हो?” मैंने उसके पैरों के पास बैठते हुए बड़ी निर्भयता से पूछा.
उसने पल भर के लिए मेरे चेहरे को देखा, उसकी आंखों में मेरे लिए स्नेह नहीं था, एक बदहवास था, एक अजीब भय सा भाव था.

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“तुम… तुम बहुत अच्छी हो. तुमने मुझे मिठाई दी…" मेरे चेहरे पर नज़रें टिकाते हुए वो बोला, “मुझे सब मारते हैं.” मेरी आंखें भर आईं.
“मैं तुम्हारे लिए पानी लाती हूं.” उठते हुए मैंने कहा. पर आगे बढ़ नहीं पाई. उसने मेरी साड़ी के पल्लू को पकड़ रखा था, “तुम भी आना. मेरी शादी में… मेरी शादी होगी… दुर्वा के साथ… तुम आओगी ना?” उसके चेहरे पर एक शर्मिला सा भाव आ गया था.
जी तो चाह रहा था कि सब कुछ भूलकर मनीष को गले से लगा लूं. पर, देखा दरवाज़े पर अभी-अभी राजीव आकर खड़े हो गए थे. मेरे पैरों में ज़ंजीर पड़ गई थी. मैं पागल नहीं थी. इसीलिए बेख़ौफ़ मनीष को पुकार नहीं सकती थी. चेहरे पर पतिव्रता का मुखौटा ओढ़े मैं धीरे से राजीव के बगल में जा खड़ी हुई. मन ही मन मैं मनीष के प्यार के आगे नतमस्तक थी… जिसने मेरे प्यार में अपने जीवन की आहुति दे दी थी. मैं महसूस कर रही थी मनीष के लिए हृदय में जल रहे दीप की लौ शत-प्रतिशत निर्मलता के साथ हर पल कुछ और प्रगा होती जा रही है.

- निर्मला सुरेंद्रन 

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