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कहानी- आग‌ और पानी (Short Story- Aag Aur Pani)

“बदला? आंटी, मैंने किसी नीति कथा में पढ़ा था, बदला वो कंटीला पौधा है जिसे हम अवसर आने पर अपने दुश्मन पर दे मारने के लिए अपने हाथों पर उगाकर बड़ा करते हैं. विरोधी पर हमारा निशाना लग भी सकता है और नहीं भी, पर वो पौधा हमारे हाथों को ज़रूर लहूलुहान करता रहता है. यही हाल दुखद अतीत का भी है. अब जबरन किसी ने हमारे हाथों में कंटीला पौधा थमा ही दिया तो हम उसे पकड़े थोड़े ही खड़े रहेंगे. फेंक नहीं देंगे.

कार सर्राटे से निकल गई और प्रमिला देवी महिलाश्रम के गेट पर खड़ी धुंधली आंखों से बेटे की इम्पोर्टेड कार को तब तक देखती रहीं, जब तक वो आंखों से ओझल न हो गई. कुछ ठीक से दिखाई नहीं दे रहा था. आंसुओं से धुंधलाई आंखों के कारण या गाड़ी से उड़ी हुई धूल के कारण, पता करना कठिन था. उन्हें उनके कमरे में पहुंचा दिया गया था. कमरा बहुत छोटा, सादा, लेकिन साफ़-सुथरा और व्यवस्थित था. दो अलग-अलग चारपाइयांं पड़ी थीं और उनके बगल में एक-एक आलमारी और मेज़ पर पानी की सुराही और ग्लास रखे थे.
उस कमरे में एक महिला पहले से होगी, क्योंकि उसका सामान रखा था. पर वह शायद बाहर गई थी. एक अकुलाई आवाज़ कानों का पर्दा बेधने लगी, “याद रखिएगा, ऊपरवाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती. बबूल बोने वालों के जीवन में ईश्‍वर कभी आम के बौरों की सुगंध वाला वसंत नहीं लिख सकता.” उन्होंने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिए, मगर शोर भी मन के अंदर था. शोर नहीं, एक आग थी, जिसे उन्होंने जितना बुझाने की कोशिश की, उतनी ही भड़कती गई.
मन के अंदर लगी आग भी बढ़ती जा रही थी और वो आकृति भी. उस लड़की की मां हूंं, श्राप देती हुई, उन्हें कोसती हुई, अपने अहंकार के आसमान पर बैठे हुए तब वो आकृति कितनी छोटी नज़र आ रही थी. नौकरों से धक्के मारकर निकाल देने को कहा था उन्होंने उसकी मां को. उनके बेटे पर इल्ज़ाम लगा रही थी. कह रही थी कि श्रेय ने उसकी लड़की को धोखा दिया. मंदिर में शादी करके… दिल में सुलगती चिंगारियां लपटें बन गई थीं उस दिन. उनका अहंकार फुंफकार उठा था. ये वही औरत है, जिसे प्रमिला की तरह अपनी कोख पर सास की हुकूमत नहीं बर्दाश्त करनी पड़ी. हुंह! इसी दिन के लिए उन्होंने बेटा पैदा करने के लिए इतनी मुसीबतें सही थीं? उसे झूठा साबित करके जैसे उन्होंने अपने दिल पर कील की तरह ठुंके तीन इंजेक्शनों का बदला ले लिया था.
जिस बेटे को इतनी मन्नतों और मुरादों से पाया, जिस बेटे की मां होने के कारण उन्हें परिवार में सम्मानजनक स्थान मिला, जो बेटा उनके सौभाग्य की डोर था, वो ऐसा गुनाह कैसे कर सकता है भला? ग़लती तो हमेशा लड़की की ही होती है. बचपन से उन्होंने यही सीखा था, यही जाना था. कितना सहन किया था उन्होंने भी अपने जीवन में. उनकी सुनने कौन आया? फिर वो क्यों किसी की सुनने के लिए अपने जिगर के टुकड़े को ऐसी लड़की के पल्ले बांध दें, जिससे वो पल्ला छुड़ाना चाहता है. लड़के तो होते ही ऐसे हैं, पर लड़कियों को ख़ुद नहीं संभलना चाहिए? अगर लड़कियां ख़ुद ही उन्हें न लुभाएं, तो लड़के क्यों भटकेंगे भला?
प्रमिला की नज़र में ये भी उन्हीं रंगीन तितलियों की तरह थी, जिन्होंने उनके दिल में हमेशा धधकती रहने वाली आग को जलाया था. उसे अपने बेटे की ज़िंदगी से निकालकर जैसे उन्होंने अपनी उन सभी सौतों से बदला ले लिया था, जिनके कारण उनके पति उनके कभी न हुए. उस दिन उन्हें लगा था कि उन्होंने अपनी अस्मिता प्रमाणित कर ली है. लगा था कि अब नींद न आने की बीमारी दूर हो जाएगी, पर ऐसा हुआ नहीं था. दिल की धूं-धूं जलती आग जाने क्यों बुझने का नाम ही नहीं लेती थी.

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अपने वो निरीह आंसू और नर्सिंग होम के इंजेक्शन आग बुझे तीर की तरह आत्मा में अटके थे. सास के सारे ताने, पति की उपेक्षाएं फिर जीवंत होने लगीं. ऐसे दिन भी झेले हैं उन्होंने. पति कहीं और भोग का इंतज़ाम न होने पर नशे में धुत यदा-कदा उसे उपकृत करने आ जाते थे. सास पति के उपकारों का बदला वारिस के रूप में न दे सकने की अयोग्यता पर उसे कोसा करती थीं. उनका बेटा प्रमिला को तीन बार घर का चिराग जनने का मौक़ा दे चुका था, पर तीनों बार उन्हें अभागी बहू को बेटी की मां होने के अभिशाप से मुक्त रखने के लिए ख़र्चा करना पड़ा था. पांच बेटियों की सुरक्षा की चिंता में बरसों घुलने वाली सास और उनकी शादियों में अपनी मेहनत की कमाई पानी की तरह बहाने वाले ससुर को अब और कन्या नहीं चाहिए थी.
वक़्त के पहिए में जुती प्रमिला की ज़िंदगी में भी उठान तब आया था, जब वो घर के कुलदीपक की मां बनने वाली थी. सास ख़ुश थीं और उन्होंने अपने लाड़ले को भी बहू को ख़ुश रखने का आदेश दे दिया था. घर के सारे नौकरों को भी उनकी अच्छी से अच्छी खातिरदारी के निर्देश दे दिए गए थे. एक गवर्नेस केवल उनकी देखभाल के लिए नियुक्त कर दी गई थी. वो हर समय खाने की कोई चीज़ लिए इस भाव से उनके आगे-पीछे घूमा करती कि वो कुछ खाकर उसे उपकृत कर दें. तब पहली बार उनका ध्यान गया था कि जैसे वो पति और सास के सामने निरीह हैं, वैसे ही इस घर में ऐसे प्राणी भी हैं जो उनके सामने निरीह हैं. फिर क्या था, उनके सामने नखरे करके और छोटी-छोटी बातों पर उन पर बिगड़कर उनका आहत आत्मसम्मान ख़ुद भी कुछ होने का संतोष पाने लगा था. घर को कुलदीपक देने से सास का व्यवहार बदलने लगा था और पति की उपेक्षा से अतृप्त मन बेटे के दुलार में तृप्ति पाने लगा. वक़्त की आंधी ने अपने निशान सास के तन-मन पर छोड़े और धीरे-धीरे उनकी अक्षमता के साथ गृहस्थी की डोर प्रमिला के हाथ आती चली गई थी.
अब वो ये डोर छोड़ती कैसे? श्रेय का ध्यान न पढ़ाई में लगता था, न ही किसी और हुनर में, लेकिन उसे इन सब की ज़रूरत भी क्या थी? उसके पिता ने इतनी संपत्ति आख़िर उसी के लिए तो जमा की थी. पिता की संपत्ति से जीवन की हर ख़ुशी हासिल करना ही उसकी ज़िंदगी का एकमात्र मक़सद था. श्रेय ने पिता की संपत्ति को अंधाधुंध बहाना शुरू किया, तो पति ने उसे रोकना-टोकना शुरू किया, पर प्रमिला हर बार उसका साथ देकर पति को ही लज्जित कर देती. दिल में पति के व्यवहार से सुलगती चिंगारियां उनका ये अपमान देखकर बहुत संतोष पाती थीं, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि यही एक दिन उनके पति की चिता की आग बन जाएगी.
श्रेय द्वारा उनके एकाउंट से उनके जाली हस्ताक्षर करके एक मुश्त लाखों रुपए निकाल लेने की धोखाधड़ी उनका दिल बर्दाश्त न कर सका और धड़कना बंद कर दिया. फिर भी प्रमिला से बेटे को डपटा नहीं गया. फिर वो दिन भी आया जब रुपए अय्याशियों के लिए कम पड़ने लगे. पहली बार प्रमिला ने उसे टोका जब बंगले को देखने ख़रीददार आए. बंगले को करोड़ों में बेचकर फ्लैट ख़रीद लेना और बाकी बचे पैसों को शेयर में लगा देने की अक्लमंदी पर पहली बार उनका बेटे से विवाद हुआ, जो धोखे से उनसे काग़ज़ात पर हस्ताक्षर करवाने और उन्हें महिला-आश्रम की राह दिखाने पर ख़त्म हुआ.
जिस बेटे की हर ख़ुशी पूरी की, हर गुनाह पर पर्दा डाला, वही उन्हें एकाकीपन के सागर में छोड़कर चला गया था. रोते-रोते प्रमिला कब अपने बिस्तर पर औंधी लेट गईं और उनकी आंखें झप गईं, पता ही नहीं चला.
“दादी मां, उठो, ठीक से लेटो, नहीं तो तुम्हारी पीठ दर्द करने लगेगी.” प्रमिला ने किसी तरह आंखें खोलीं, तो देखा, दो-तीन साल की बच्ची उन्हें जगा रही थी. गोल-मटोल प्यारा-सा चेहरा, बड़ी-बड़ी मासूम आंखें. उनके थके मायूस चेहरे पर भी मुस्कान की किरण फूट पड़ी. तभी उसकी मां आ गई और उसे टोकने लगी. प्रमिला देवी ने उसे मना करते हुए बच्ची को गोद में बैठा लिया और बोलीं, “अरे नहीं, मुझे बहुत अच्छा लगा इसका यूं अधिकार जताते हुए ध्यान रखना. नाम क्या है इसका?”
“सोना और मेरा नाम तेजस्विनी है. मांजी, यहां एक कमरे में दो लोग रहते हैं. मेरे साथ मेरी बेटी भी है, तो हम तीन हो गए. आपको कोई आपत्ति तो नहीं?” तेजस्विनी का स्वर कोमल और आत्मविश्‍वास  से युक्त था.
“अरे नहीं बेटा, कैसी बातें करती हो. भला एक शरणार्थी को दूसरे शरणार्थी से क्या आपत्ति हो सकती है. मेरे लिए तो ये अच्छा ही है. मन लगा रहेगा.” 
दूसरे दिन प्रमिला अतीत की यादों में खोई कुर्सी पर बैठी थीं कि सोना की ज़िद्द ने उनका ध्यान आकर्षित किया. “आज मैं मीना के कमरे में नहीं जाऊंगी. अब तो मेरी भी दादी मां आ गई हैं.”

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“ठीक है बाबा, जो जी में आए कर, मगर पहले दादी मां से तो पूछ ले.” तेजस्विनी उसकी बात काटकर प्रमिला की ओर मुखातिब हुई, “मैं काम पर जाते समय इसे पास के कमरे में शाज़िया जी के पास छोड़ जाती हूं. उनके कमरे की नीना भी मेरे साथ जाती है और उसकी बेटी…”
“मैं समझ गई बेटा, तुम निश्‍चिंत रहो, मैं इसे संभाल लूंगी. ये चाहेगी तो इसे लेकर शाज़िया जी के कमरे में चली जाऊंगी.” प्रमिला ने तेजस्विनी को आश्‍वस्त कर दिया. वो चली गई, तो प्रमिला के जीवन का बिल्कुल नया अध्याय शुरू हुआ. चंचल, बातूनी और बहुत शरारती सोना ने उन्हें एक पल बैठने नहीं दिया. दोपहर को सोना थककर सोई, तो वे भी दो घड़ी आराम करने को लेटीं, नज़र सोना के भोले-भाले निश्‍चिंत सोते हुए चेहरे पर टिक गई. कैसा प्यारा चेहरा! उनकी बेटी होती तो शायद ऐसी ही… अपनी बेटियों की याद आते ही आंखें फिर नम हो गईं.
तभी सोना ने मुंह बनाया, जैसे सोते में डर गई हो. वो जल्दी से उठकर उसे गले लगाकर लेट गईं. थोड़ी देर बाद उसका चेहरा देखा तो वो मुस्कुरा रही थी. फिर वो भी निश्‍चिंत होकर सो गईं.
तेजस्विनी ने चाय के लिए उठाया, तो उन्होंने देखा, बाहर शाम घिर आई थी. कितनी गहरी नींद आ गई थी उन्हें जो इतने घंटों का पता ही नहीं चला? उन्हें तो बिना गोलियां लिए नींद नहीं आती थी. प्रमिला चकित थी.      
धीरे-धीरे सोना के भोलेपन के मरहम ने उनके ज़ख्मों को भरना शुरू कर दिया. वो उनके जिगर का टुकड़ा बनती जा रही थी. एक दिन वो उसे खाना खिला रही थीं कि सोना ग़ुस्सा हो गई. उसने उनके हाथ से कटोरी लेकर उलट दी और उन्हें डांटकर बोली, “जाओ, मेरे लिए अच्छा खाना लेकर आओ.” प्रमिला को उसके मासूम अंदाज़ पर हंसी आ गई, पर तेजस्विनी ने उसे उसी समय एक हल्का-सा थप्पड़ मारा और बहुत सख़्त स्वर में बोली, “अभी दादी से माफ़ी मांगो और खाना नीचे से बटोरकर डस्टबिन में डालो.” सोना सहम गई और माफ़ी मांगकर खाना समेटना शुरू कर दिया, पर प्रमिला को दया आ गई, “रहने दो बेटा, अभी इसकी उम्र ही क्या है. अभी उसने बोलना शुरू ही किया है, उसे क्या पता क्या सही है, क्या ग़लत! बाल-रूप तो भगवान होता है.” कहते हुए उन्होंने सोना को रोककर खाना खुद बटोरना चाहा, पर तेजस्विनी ने उन्हें रोक दिया. “आप ठीक कह रही हैं आंटी, उसे सही-ग़लत का पता नहीं है, लेकिन उसे ये पता कराना मेरी ज़िम्मेदारी है. बाल-रूप भगवान होते हैं, पर भगवान कृष्ण को भी यशोदा मइया शरारत करने पर सज़ा देती थीं.” तेजस्विनी के व्यवहार में सख़्ती और अडिगता थी, पर होंठों पर मंद हास्य और स्वर में सम्मान
और विनम्रता.
प्रमिला के दिमाग़ में उस दिन का दृश्य कौंध गया जब श्रेय का पक्ष लेकर गवर्नेस  को झिड़कने पर उसने कहा था, “मैम, अगर आप उसके सामने मेरा सम्मान नहीं करेंगी, तो वो भी मेरा सम्मान नहीं करेगा. यही नहीं, वो सम्मान करना सीखेगा भी नहीं.” गवर्नेस ने विनम्रता से कहा था. “बेहतर होगा, तुम उपदेश न देकर अपना काम करो.” प्रमिला ने उसे झिड़क दिया था. वो सोचने लगीं, उनके पति को भी तो सुंदर आकार में नहीं ढाला सास ने, पर कौन से वो माता-पिता के न हुए? उनके हर अत्याचार में पति की मौन स्वीकृति रही है. प्रमिला ने दृढ़ निश्‍चय किया, “नहीं, मैं तो बेटे को सिर्फ़ प्यार दूंगी. इतना प्यार कि वो सिर्फ़ मेरा होकर जीए और कोई मेरा नहीं तो न सही, बेटे को अपना बनाकर रखना तो मेरे बस में है.” 
प्रमिला तेजस्विनी के व्यक्तित्व से प्रभावित होने लगी थीं. उन्होंने आश्रम की दूसरी महिलाओं से तेजस्विनी की दर्द भरी कहानी सुन ली थी. एक दिन उनके मन में घुमड़ता सवाल ज़ुबान पर आ ही गया, “बेटा, कोर्ट-कचहरी के इतने चक्कर लगाकर और इतना काम करके भी तुम ख़ुश और तनावमुक्त कैसे रह लेती हो? क्या तुम्हारे मन में कभी ये निराशा नहीं आती कि तुम अपने अपराधियों से बदला ले पाओगी या नहीं?” 
“बदला? आंटी, मैंने किसी नीति कथा में पढ़ा था, बदला वो कंटीला पौधा है जिसे हम अवसर आने पर अपने दुश्मन पर दे मारने के लिए अपने हाथों पर उगाकर बड़ा करते हैं. विरोधी पर हमारा निशाना लग भी सकता है और नहीं भी, पर वो पौधा हमारे हाथों को ज़रूर लहूलुहान करता रहता है. यही हाल दुखद अतीत का भी है. अब जबरन किसी ने हमारे हाथों में कंटीला पौधा थमा ही दिया तो हम उसे पकड़े थोड़े ही खड़े रहेंगे. फेंक नहीं देंगे. रही बात कोर्ट कचहरी की, तो वहां मैं बदला लेने नहीं, बल्कि उन्हें उनकी असफलता याद दिलाने जाती हूं. बताने जाती हूं कि मैं कमज़ोर नहीं हूंं, मुझे रौंदने के उनके सारे प्रयत्न विफल हो चुके हैं. मैंने अपना जीवन संवार लिया है और उन्हें किसी और का जीवन न बर्बाद करने देने के लिए प्रतिबद्ध हूं.”
तेजस्विनी का दृष्टिकोण सुनकर प्रमिला की सोच को एक नई दिशा मिलने लगी. इस लड़की को ससुरालवालों ने इतना सताया, मायकेवालों ने साथ नहीं दिया, फिर भी इसने रास्ता ढूंढ़ा. यहां कई महिलाएं तेजस्विनी की तरह आत्मनिर्भर थीं. शाज़िया की कहानी भी तो लगभग उनके जैसी ही थी. उन्होंने भी तो अपनी जान की बाज़ी लगाकर अपने ऊपर थोपी जा रही पति की सोच का विरोध किया था. अब वो अक्सर ख़ुद पर हुए अत्याचारों की कटु यादों की बजाय अपनी ग़लतियों के आत्मावलोकन में खोई रहने लगी थीं. क्या उन्होंने अपना आत्मबल समेटकर विरोध का प्रयास किया था? अपने मायके में या किसी स्वजन से मदद लेकर अपनी अस्मिता बचाने की कोशिश की थी? वो तो अपने छिने हुए आत्मसम्मान को दूसरों से छीनकर वापस पाने की कोशिश करती रहीं. वो तो हमेशा ज़हरीली सोच के उस कंटीले पौधे को लिए खड़ी रहीं, जिसे उन्हें जबरन थमाया गया था. उसके कांटों से ख़ुद भी लहूलुहान होती रहीं और उन निर्दोष लोगों को अपना दुश्मन समझ बदला लेती रहीं, लहूलुहान करती रहीं, जिन्हें वो पौधा जबरन नहीं थमाया गया था. और तो और अपने पौधे को भी अपने मन में भरे ज़हर से सींचती रहीं. वो विष बेल कैसे न बनता? हे प्रभु! कहीं से वो लड़की मिल जाए, अपना जीवन देकर भी उसके लिए कुछ कर सकूं तो धन्य हो जाऊं. अब वो भगवान की मूर्ति के आगे घंटों पश्‍चाताप के आंसू बहाती रहतीं.

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तभी एक दिन सोना की तबियत ख़राब हो गई. बदहवास‌सी तेजस्विनी आश्रम की संचालिका, अस्पताल और भी कुछ जगहों पर फोन लगाकर उसे गोद में लेकर निकलने लगी, तो प्रमिला भी साथ हो लीं. रास्ते में उन्होंने अपना ममता भरा हाथ तेजस्विनी पर रखा, “बच्चों की तबियत ख़राब होती ही रहती है. इसमें इतना भी…” “आंटी, सोना के दिल में छेद है. डॉक्टर ने पहले ही कहा था कि ऑपरेशन करा लूं, अगर आज ही वो ऑपरेशन के लिए कहेंगे तो क्या करूंगी?” तेजस्विनी उनकी बात काटकर ये बताते हुए रोने लगी. और वही हुआ जिसका उसे डर था. डॉक्टर ने कह दिया कि अगर अब भी ऑपरेशन नहीं कराया गया तो…
तेजस्विनी जैसे सदमे में चली गई थी. वो शून्य में नज़रें टिकाए बैठी थी. “अग्रिम राशि कितनी जमा करानी होगी?” प्रमिला ने ही पूछा. “डेढ़ लाख और आगे का ख़र्च एक लाख मानकर चलिए.”
“आप ऑपरेशन की तैयारियां शुरू करवाइए, मैं आती हूं.” बोलकर वे निकल पड़ीं. जैसा कि उनका अनुमान था सुनार ने उनके गहनों के तीन लाख बिना किसी आनाकानी के दे दिए. अपने इन ठोस हीरे के गहनों से उन्हें इतना लगाव था कि इन्हें उन्होंने कभी उतारा नहीं था. उनकी मां की अमानत थे ये.
सोना के ख़तरे से बाहर होने की ख़ुशखबरी सुनकर प्रमिला घंटों ख़ुशी के आंसू रोती रहीं. ऐसा लग रहा था जैसे उनका ही ऑपरेशन करके कोई नासूर निकाल दिया है डॉक्टर ने. सगों से बढ़कर देखभाल करने लगी थीं अब वो सोना की. रीढ़ का दर्द, नींद न आने की बीमारी, उलझन, बेचैनी सब जाने कहां गायब हो गई थी. ऐसा लगता था कि उनके मन में अब आग की जगह ठंडे पानी की झील ने ले ली थी.
“आंटी, मैं आपका ये एहसान…” तेजस्विनी रो पड़ी.
“कैसा एहसान? किसका एहसान मेरी बच्ची? एहसान तो तूने किया है मुझ पर, मेरे दिल में बरसों से एक आग जल रही थी और मैं बेवकूफ़ उसे बुझाने के लिए उस पर घी डाले जा रही थी. तूने ही मुझे समझाया है कि आग को घी से नहीं, पानी से बुझाया जाता है. समर्थता का जो एहसास किसी को कुछ देने में है वो छीनकर कभी मिल ही नहीं सकता. अपने कुचले हुए आत्मसम्मान को सेवा का मरहम ही पुनर्जीवित कर सकता है, दूसरे को रौंदने की क्रूरता नहीं. सोना की देखभाल करके मुझे मेरे एक समर्थ व्यक्ति होने का सच्चा एहसास हुआ. मैं अकिंचन भला तुम्हें क्या दे सकती हूं.” कहकर उन्होंने तेजस्विनी को गले लगा लिया.

भावना प्रकाश

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