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कहानी – आदमी (Short Story- Aadmi)

ताश के पत्ते बंटने के साथ ही बैठक में रम और बीयर की बोतलें भी खुल गई थीं. मेज़बान मिस्टर नारंग ने सिप लेते हुए हाथ में पत्ते उठाए. पत्ते देखते ही उनके मुंह का स्वाद बिगड़ गया. लग रहा था पहली ही बाज़ी में शिकस्त देखनी पड़ेगी. बेमन से कुछ घूंट चढ़ाए ही थे कि तभी चौकीदार ने आकर एक पर्ची थमा दी. “सर, गांव से आपके भाई मिलने आए हैं.” मि. नारंग पर अभी रम का सुरूर चढ़ना आरंभ ही हुआ था कि पर्ची देखते ही नशे के साथ-साथ पारा भी ऊपर चढ़ गया. पर्ची उनके चचेरे भाई ज्ञानू ने भिजवाई थी. कोष्ठक में लिखा था ज्ञानप्रकाश, मदन काका का बेटा ताकि पहचानने से इनकार की कोई गुंजाइश ही न रहे, जबकि मि. नारंग तो उसे मात्र ज्ञानू उपनाम से ही पहचान गए थे. सबकी उत्सुक नज़रें स्वयं पर टिकी देख मि. नारंग ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी. उन्हें मालूम था कि अगले ही पल जो उजड्ड गंवार-सा चेहरा सबके सम्मुख उपस्थित होने वाला है, उसे सबके सामने भाई स्वीकारने में उन्हें निहायत शर्मिंदगी महसूस होगी इसलिए धीरे से बोले, “कज़िन है.” 6 महीने पहले मि. नारंग पिता के अंतिम संस्कार के लिए गांव गए थे. तब काका, काकी सहित ज्ञानू से भी आख़िरी मुलाक़ात हुई थी. काका ने हाथ जोड़कर विनती की थी कि वो ज्ञानू को शहर बुलवाकर किसी नौकरी पर
लगवा दें.
“किस सोच में डूब गए मि. नारंग? गांव से भाई
नौकरी-वौकरी मांगने तो नहीं आ गया?”
“अं… आपको कैसे मालूम?”
“बहुत कॉमन-सी बात है. हम बड़े लोगों को आगे-पीछे इस स्थिति से दो-चार होना ही पड़ता है. इंडियन पीपल की मानसिकता ही ऐसी हो गई है कि कोई भाई-बंधु विदेश में या किसी महानगर में बड़ा आदमी क्या बन जाए नाते-रिश्तेदारों की सिफारिश के लिए लाइन लग जाती है. चाहते हैं पूरा कुनबा ही विदेश में या उस महानगर में बस जाए.”
“बिल्कुल! मैं और मेरी पत्नी तो तंग आ गए थे ऐसे मुफ़्त के मेहमानों से. फिर हमने एक तरक़ीब निकाली.” दूसरा दोस्त धीरे से बोला.
“क्या?” मि. नारंग ने उत्सुकता दिखाई. दोस्त ने टेढ़ी नज़रों से पास खड़े चौकीदार की ओर देखा तो मि. नारंग उसका मंतव्य समझ गए.
“उससे कहो किसी ज़रूरी काम में उलझा हूं, थोड़ी देर में बुलाता हूं.”
चौकीदार के पलटते ही दोस्त शुरू हो गया, “इन लोगों की गांठ में भले ही फूटी कौड़ी भी न हो, पर झूठे आत्मसम्मान की गठरी का बोझ लादे ज़रूर घूमेंगे. इसलिए इनको पहली बार में ही नकारात्मक टका-सा जवाब दे देना चाहिए. न कभी ख़ुद लौटेंगे और न किसी दूसरे को आने देंगे.”
मि. नारंग के दिमाग़ में 6 माह पहले का गांव का घटनाक्रम घूम गया. भला उन परिस्थितियों में नकारात्मक टका-सा जवाब दिया जा सकता था? कदापि नहीं. अपने ही पिता के दाह-संस्कार में वे मात्र एक अतिथि की तरह उपस्थित हुए थे. उठावने के अगले ही दिन वे रवाना होने लगे, तो काका ने अवरुद्ध कंठ से उन्हें विदा किया था. “अपनी मां की चिंता मत करना. कोई कसर नहीं रखेंगे हम उनकी सेवा में. भाई साहब नहीं रहे तो क्या? आज से खेत का उनका हिस्सा भी मैं संभालूंगा. तुम्हें और भाभी को पूर्व की तरह ही मुनाफे में अपना हिस्सा मिलता रहेगा. मैं समझ सकता हूं, खेती-बाड़ी तुम लोगों के बस की बात नहीं है. ज्ञानू का भी इस ओर रुझान नहीं है. इसलिए हो सके तो उसको भी अपने पास बुलाकर किसी काम-धंधे में लगवा दो. तुम्हारा बड़ा एहसान मानूंगा.” मदन काका ने दोनों हाथ जोड़ दिए थे.
“क्या काका, आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. एहसान तो मुझे आपका मानना चाहिए. मैं जल्द से जल्द ज्ञानू को अपने पास बुला लूंगा.”


लेकिन 6 महीने से ज़्यादा समय बीत जाने पर भी उन्होंने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया था. पर यह भी कभी कल्पना नहीं की थी कि ज्ञानू एक दिन इस तरह सिर पर आ खड़ा होगा और वह भी सब दोस्तों के सामने. दोस्त मिलकर उन्हें धीरे-धीरे आगे की रणनीति समझा रहे थे.
15 मिनट बाद चौकीदार दोबारा पूछने आया तो ज्ञानू से नहीं रहा गया. वह भी पीछे-पीछे अंदर आ गया. उसे आता देख मि. नारंग एकबारगी तो चौंके, पर फिर तुरंत उन्हें दोस्तों की सलाह याद आ गई. वे सामने पड़ा मोबाइल उठाकर बतियाने लगे. ज्ञानू ने आकर उन सहित सभी दोस्तों के चरणस्पर्श किए तो सबने सकपकाकर अपने पांव पीछे खींच लिए. मि. नारंग ने बिना नज़रें उठाए एक हाथ
हल्के-से ऊपर उठा दिया और बतियाने में मशगूल रहे. जानबूझकर 2 मिनट की वार्ता को उन्होंने 10 मिनट खींचा. इस दौरान ज्ञानू हाथ बांधे बेचैनी से इधर-उधर देखता रहा. फोन रखते हुए मि. नारंग ने फिर व्यस्तता ज़ाहिर की, “अरे भई, बाज़ी का क्या हुआ?” पत्ते देखते-देखते ही उन्होंने ग्लास उठाया. “अरे, यह तो खाली है… ज़रा भरो तो इसे.” उन्होंने खाली ग्लास ज्ञानू के आगे कर दिया. ज्ञानू सहमा-सा ग्लास भरने लगा तो बाकी लोगों ने भी अपने खाली ग्लास उसके आगे कर दिए. हड़बड़ाहट में ज्ञानू से कुछ बीयर छलक गई. “अररर… क्या कर रहा है? कितनी महंगी ड्रिंक गिरा दी? जा सामने रसोई से कपड़ा लाकर पोंछ दे, वरना क़ीमती कालीन ख़राब हो जाएगा.” बड़े भाई के आदेश का पालन करने के बाद ज्ञानू ने अपनी बात रखनी चाही, “भैया, मेरा बक्सा अंदर ले आऊं?”
“अरे चौकीदार, इसका बक्सा अपने उधर रखवा लो ताकि यह नहा-धोकर तैयार हो जाए. खाना-वाना भी खिला देना. रात काफ़ी हो गई है, सवेरे मिलते हैं.”
अगली सुबह अख़बार लेकर आए चौकीदार से मि. नारंग ने ज्ञानू को भिजवाने को कहा.
“जी, वो तो उसी व़क्त लौट गया था.”
“क्या? क्यों? पर… अच्छा ठीक है.” अख़बार सामने था, पर मि. नारंग का पढ़ने का मन नहीं हो रहा था. अब दिमाग़ में न ख़राब पत्तों की खुन्नस थी, न नशे का सुरूर और न दोस्तों का प्रेशर. मि. नारंग की अंतर्चेतना उन्हें बोध करा रही थी कि जो हुआ, अच्छा नहीं हुआ. पर अब क्या किया जा सकता है? तीर तो कमान से निकल चुका है. फिर ज्ञानू को भी कुछ तो धैर्य रखना चाहिए था. उनकी पोजीशन को समझना चाहिए था. जैसे-जैसे अंतरात्मा धिक्कारती रही मि. नारंग बचाव में तर्क प्रस्तुत करते रहे. बेटे सोनू की नाश्ते के लिए पुकार से उनकी चेतना लौटी. नाश्ता करते उनकी नज़र ग्लास से दूध पीते हुए सोनू पर पड़ी. सोनू के मुंह पर दूध से मूंछें बन गई थीं. मि. नारंग का दिल धक् से रह गया.
मूंछें उगने पर तो यह बिल्कुल ज्ञानू लगने लगेगा. उम्र के अंतर के बावजूद कितना साम्य है दोनों के चेहरों में! गांव में ज्ञानू ख़्याल भी तो कितना रखता था सोनू का! पिता की अंतिम यात्रा के व़क्त उन्हें पत्नी रंजना और बेटे सोनू दोनों को ही गांव साथ ले जाना पड़ा था. सोनू ने तो पहली बार गांव देखा था. उन्हें और रंजना को सोनू के स्वास्थ्य के लिए चिंतित देख ज्ञानू ने स्वेच्छा से सोनू की सारी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी. सोनू के लिए कम मिर्ची का खाना बनवाना, उबला हुआ पानी देने से लेकर उसे गांव घुमाने तक की सारी ज़िम्मेदारी ज्ञानू ने पूरी शिद्दत से निबाही थी. पापा की देखादेखी सोनू भी उसे ज्ञानू कहकर आवाज़ लगाता, “मेरा बोर्नविटा दे ज्ञानू… मेरा टॉवल कहां है.” पर किसी ने उसे टोकने की ज़हमत नहीं उठाई.
सोनू मूंछ साफ़ कर स्कूल के लिए तैयार होने चला गया तो मि. नारंग भी बाथरूम में घुस गए. सिर पर शॉवर की बौछार ने उन्हें फिर वर्तमान में ला खड़ा किया. उनके जैसे बड़े आदमी को इस तरह बार-बार भावनाओं में
बहना शोभा नहीं देता. भावनाओं पर नियंत्रण रखा तभी तो इतने
बड़े आदमी बनने के मुक़ाम तक पहुंच पाए. सूट-बूट टाई पहनकर परफ्यूम छिड़कते हुए उन्होंने दर्पण में खुद को ऊपर से नीचे तक निहारा. अपने बाहरी व्यक्तित्व से वे पूर्ण संतुष्ट नज़र आए, पर आंतरिक व्यक्तित्व?
“उफ् मि. नारंग, आपकी सोच की सुई यदि बार-बार इन छोटी-छोटी बातों पर ही अटकी रही तो इतना विशाल कारोबार कौन संभालेगा?” दर्पण में खड़ा उनका अक्स उनसे सवाल कर उठा. मि. नारंग ने सोच की सुई को आगे बढ़ाने के अंदाज में सिर को झटका दिया और तेज़-तेज़ क़दमों से सीढ़ियां उतरते हुए नीचे अपने ऑफिस में
पहुंच गए.
व़क्त के घूमते पहिए के साथ ज़िंदगी कुछ और आगे सरकती चली गई. मि. नारंग अपने ऑफिस में फाइलें देख रहे थे कि मिसेज नारंग का फोन आ गया. आवाज़ काफ़ी घबराई हुई थी.
“सोनू के स्कूल वाले एरिया में दंगा हो गया है. स्कूल से मैसेज आया है कि सभी अभिभावक जल्द से जल्द आकर अपने बच्चों को ले जाएं. कभी भी कर्फ्यू लग सकता है. आप जल्दी जाकर उसे ले आइए.” बात समाप्त
करते-करते तो रंजना रोने ही लगी थी.
“तुम चिंता मत करो. मैं तुरंत निकलता हूं.” गाड़ी में बैठते-बैठते मि. नारंग ने एक-दो फोन करके स्थिति की गंभीरता का पता लगाया. उनके बैठते ही ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.
“सोनू बाबा के स्कूल ले चलो.”
“जी.” ड्राइवर ने स्पीड बढ़ाई पर फिर तुरंत रोक दी.
“सर, स्कूल तो बहुत दूर है. गाड़ी में इतना पेट्रोल नहीं है. मैं पहले पेट्रोल डलवा लेता हूं.” ड्राइवर ने गाड़ी पेट्रोल पंप की ओर घुमा दी.
“ओह शिट्! सब परेशानियां एकसाथ ही आनी थीं. जल्दी करो. कर्फ्यू लगने वाला है. उससे पहले सोनू को लेकर लौटना है.”
पेट्रोल पंप पर लंबी कतार देख मि. नारंग के चेहरे का रंग ओर अफरा-तफरी मची थी. कोई रुकने को ही तैयार नहीं था. एकाध ऑटो पैसे के लालच में रुका भी तो एरिया का नाम सुनकर आगे बढ़ गया. हताश मि. नारंग लाइन में आगे खड़े वाहनों से गुहार लगाने लगे कि पहले उन्हें पेट्रोल डलवाने दें, उनके बेटे की ज़िंदगी का सवाल है, लेकिन उनकी गुहार नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सिद्ध हुई, क्योंकि हर कोई जल्दी में था. अचानक मि. नारंग की नज़र पेट्रोल डाल रहे कर्मचारियों में से एक पर ठिठक गई. आवेश में वे चिल्ला उठे. “ज्ञानू, ज्ञानू, मेरे भाई… पहले अपनी गाड़ी में पेट्रोल डाल दे. सोनू को लेकर आना है, उधर दंगा हुआ है. वो कर्फ्यू में फंस जाएगा.”
ज्ञानू पर कोई प्रतिक्रिया न होते देख उसके पास खड़े आदमी ने उसे झिंझोड़ा, “वो साहब तुम्हें मदद के लिए पुकार रहे हैं? तुम्हारे भाई हैं क्या?”
कर्मचारी ने एक नज़र उठाई और फिर से अपने काम में
लग गया. मि. नारंग का दिल हुआ हताशा में अपने बाल नोंच लें. तभी उनका मोबाइल बज उठा. घर से फोन था. रंजना की तबियत बिगड़ गई थी. ब्लडप्रेशर गिर जाने से
वह मूर्छित-सी हो गई थी. मि. नारंग के हाथ-पांव
फूल गए.
“ड्राइवर, गाड़ी घर की ओर मोड़ो. मैडम की तबियत ख़राब है. रास्ते से डॉ. बत्रा को भी लेना है.” ज़ोर -ज़ोर से ड्राइवर को आदेश देते मि. नारंग गाड़ी में बैठ गए. अगले ही पल ड्राइवर ने गाड़ी घुमा दी.
इंजेक्शन देते ही मिसेज नारंग को होश आने लगा. मि. नारंग की सांस में सांस आई, लेकिन सोनू की चिंता अब भी उनके होश उड़ाए थी. स्कूल का फोन भी व्यस्त आ रहा था. उन्होंने उधर रह रहे अपने एक परिचित को फोन लगाना चाहा पर उनसे भी संपर्क नहीं हो पाया. होश में आते ही मिसेज नारंग की ज़ुबान पर फिर से सोनू का नाम आ गया. मि. नारंग को ज़िंदगी में कभी भी इतनी विकट स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था. दिल से एक ही गुहार निकल रही थी भगवान मेरा सब कुछ ले लो. बस, सोनू को भेज दो और भगवान ने सुन ली. “मम्मा..मम्मा..” करता सोनू कमरे में प्रविष्ट हुआ. उसके पीछे-पीछे चौकीदार भी भागता आया. ख़ुशी और आश्‍चर्य के मारे उपस्थित प्रत्येक सदस्य की चीख-सी निकल गई. मि. नारंग ने भागकर सोनू को सीने से चिपटा लिया और उसे अपनी मां की बांहों में
सौंप दिया.
“तू घर कैसे आया? कौन लाया तुझे?” मि. नारंग ने पूछा.
“ज्ञानू.”
“ज्ञानू?” मि. नारंग का मुंह आश्‍चर्य ये खुला रह गया. मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे. सोनू को लगा पापा-मम्मा शायद पहचान नहीं पाए.
“अरे, वो गांव में ज्ञानू था ना… ज्ञानू, जो मुझे घुमाने ले जाता था… ज्ञानू, जो मेरे लिए बोर्नविटा बनाता था… हां, वही ज्ञानू मुझे स्कूल लेने आया था और टू व्हीलर पर घर छोड़ गया. पापा आपको पता है ज्ञानू हमारे ही शहर में रहने लगा है… ज्ञानू नौकरी भी करता है…”
“यह क्या ज्ञानू-ज्ञानू लगा रखा है? ज्ञानू चाचा नहीं बोल सकते तुम?”
मि. नारंग अचानक रोष से चिल्ला उठे और फिर दोनों हाथों में मुंह छुपाकर फूट-फूटकर रोने लगे. रंजना और सोनू सहित वहां उपस्थित चौकीदार भी बुरी तरह चौंक उठा. हर कोई भौंचक्का-सा मि. नारंग को देख रहा था. एक बड़े आदमी को आदमी बनते देखना कौतुक का विषय ही तो था!

संगीता माथुर

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