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व्यंग्य- कुत्ता कहीं का… (Satire Story- Kutta Kahin Ka…)

गांव के कुत्ते और शहर के डॉगी में वही फ़र्क होता है, जो खिचड़ी और पिज़्ज़ा में होता है. कुत्ता ऊपरवाले के भरोसे जीता है, इसलिए किसी कुत्ते को कोरोना नहीं होता. डॉगी को पूरे साल घर में रहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है. कुत्ता हर संदिग्ध पर भौंकता है, जबकि डॉगी चोर और मालिक की सास के अलावा हर किसी पर भौंकता है.

माफ़ करना मै किसी का अपमान नहीं कर रहा हूं (मैं कुत्तों का बहुत सम्मान करता हूं). मैं कुत्तों के मामले में दख़ल नहीं देता. कुत्ते इंसान के मुआमलों में बिल्कुल दख़ल नहीं देते. लेकिन दोनों की फिजिक और फ़ितरत में भी बहुत फ़र्क है (आदमी कुत्ते जैसा वफ़ादार नहीं होता). लोग कहते हैं- तुख्म तासीर सोहबते असर! मगर कुत्ता पाल कर भी इंसान के अंदर कुत्तेवाली वफ़ादारी नहीं आती. चचा डार्विन से पूछना था कि जब बंदर अपनी पूंछ खोकर इंसान हो रहे थे, तो कुत्ते कहां सोए हुए थे? या फिर इंसान होना कुत्ते अपना अपमान समझ रहे थे.
कुत्तों से मेरा बहुत पुराना याराना रहा है. दस साल की उम्र में मुझे मेरे ही पालतू कुत्ते ने काट खाया था (मगर तब कुत्ता तो क्या नेता के काटने पर भी रेबीज़ का ख़तरा नहीं था). मुझे आज भी याद है कि कुत्ते ने मुझे क्यों काटा था. झब्बू एक खुद्दार कुत्ता था, जो अपने सिर पर किसी का पैर रखना बर्दाश्त नहीं करता था और उस दिन मैंने यही अपराध किया था. झब्बू ने मेरे दाएं पैर में काट खाया था. तब टेटनस और रेबीज़ दोनों का एक ही इलाज था, आग में तपी हुई हंसिया से घाव को दागना (इस इलाज़ के बाद टिटनस और रेबीज़ उस गांव की तरफ़ झांकते भी नहीं थे). ये दिव्य हंसिया ऑल इन वन हुआ करती थी, फसल और टिटनस के अलावा नवजात शिशुओं की गर्भनाल काटने में काम आती थी.
मुझे आज भी याद है कि जब गर्म दहकती से मेरा इलाज़ हो रहा था, तो मेरे कुत्ते की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. वो ख़ुशी से अपनी पूंछ दाएं-बाएं हिला रहा था. दूसरी बार कुत्ते ने मझे पच्चीस साल की उम्र में तब काटा, जब मैं दिल्ली में था. उस दिन कुछ आवारा कुत्ते सड़क किनारे भौं-भौं कर आपस में डिस्कस कर रहे थे. ऐसी सिचुएशन में समझदार और संस्कारी लोग कुत्तों के मुंह नहीं लगते. मगर मैं गांव का अक्खड़ खामखाह उनकी पंचायत में सरपंच बनने चला गया. उन्होंने मुझे दौड़ा लिया. छे कुत्ते अकेला मै. एक कुत्ते ने दौड़कर पैंट का पाएंचा फाड़ा और पिंडली में काट खाया, मगर इस बार भी मैंने रेबीज़ का इंजेक्शन नहीं लगवाया (आदमी हूं, मुझे दिल्ली के प्रदूषण और अपने ज़हर पर भरोसा था).

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कुत्तों के काटने की दोनों घटनाएं सच हैं. मैंने कुत्तों पर बड़ी रिसर्च की है. हम इंसान गहन छानबीन के बाद भी किसी इंसान की पूरी फ़ितरत नहीं जान पाते. कुत्ते इंसान को सूंघकर ही उसका बायोडाटा जान लेते हैं. आपने कई बार देखा होगा कि स्मैकिए और पुलिसवालों को देखते ही कुत्ते भौंकने लगते है. वहीं पत्नी पीड़ित पति, रिटायर्ड मास्टर और हिंदी के लेखकों को देखते ही कुत्ते पूंछ हिलाने लगते हैं, गोया दिलासा दे रहे हों- रूक जाना नहीं तुम कहीं हार के बाबाजी- हम होंगे कामयाब एक दिन…
गांव के कुत्ते और शहर के डॉगी में वही फ़र्क होता है, जो खिचड़ी और पिज़्ज़ा में होता है. कुत्ता ऊपरवाले के भरोसे जीता है, इसलिए किसी कुत्ते को कोरोना नहीं होता. डॉगी को पूरे साल घर में रहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है. कुत्ता हर संदिग्ध पर भौंकता है, जबकि डॉगी चोर और मालिक की सास के अलावा हर किसी पर भौंकता है. डॉगी को सबसे ज़्यादा एलर्जी इलाके के कुत्तों से होती है, जो उसे खुले में रगड़कर सबक देने की घात में होते हैं. कुत्ते जेब नहीं काटते और भूखे होने पर भी चोरी नहीं करते. कुत्ते और भिखारी में आदमी से ज़्यादा पेशेंस होता है.

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१८ साल दिल्ली के गोल मार्केट में रहा. यहां मुझे एक जीनियस कुत्ता मिला, जिसे कॉलोनी के चौकीदार ने पाला हुआ था. वो जब भी मुझे देखता, दोस्ताना तरीक़े से पूंछ भी हिलाता और हल्के-हल्के गुर्राता भी. उसके दोहरे चरित्र से मैं चार साल कन्फ्यूज़ रहा. चौकीदार अक्सर रात में दारू पीकर कुत्ते को समझाता, "देख, कभी दारू मत पीना. इसे पीनेवाला बहुत दिनों तक बीबी के लायक नहीं रहता." कुत्ता पूरी गंभीरता से पूंछ हिलाकर चौकीदार का समर्थन कर रहा था. पी लेने के बाद चौकीदार अपने कुत्ते पर रौब भी मारता था. एक दिन डेढ़ बजे रात को जब मैं एक लेख कंप्लीट कर रहा था, तो फ्लैट के नीचे नशे में चूर चौकीदार कुत्ते पर रौब मार रहा था, "पता है, परसों रात में मेरे सामने शेर आ गया. मैंने उसका कान पकड़ कर ऐंठ दिया था. वो पें पें… करता भाग गया. डरपोक कहीं का." जवाब में कुत्ता ज़ोर से भौंका, गोया कह रहा हो, 'साले नशेड़ी, वो मेरा कान था. अभी तक ठीक से सुनाई नहीं दे रहा है!'
कई सालों से मुझे ऐसा लगता है गोया मैं कुत्तों की भाषा समझता हूं. इस दिव्य विशेषता के बारे में मैंने किसी दोस्त को इस डर से नहीं बताया कि लोग मिलना-जुलना बंद कर देंगे. शाहीन बाग में नॉनवेज होटल और ढाबे बहुत हैं. यहां के कुत्ते भी आत्मनिर्भर नज़र आते हैं. एक दिन घर के नीचे बैठे एक दीन-हीन कुत्ते को मैं रोटी देने गया. कुत्ते ने मेरा मन रखने के लिए रोटी को सूंघा और मुझे देखकर गुर्राया. मैं समझ गया, वह कह रहा था, "खुद चिकन गटक कर आया है और मुझे नीट रोटी दे रहा है. मैं आज भी फेंकी हुई रोटी (बोटी के बगैर) नहीं उठाता…"
मैं घबरा कर वापस आ गया.

- सुलतान भारती

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Photo Courtesy: Freepik


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