इधर हम लोगों का मकान भी बदल गया और थोड़ी दूर पर नई काॅलोनी में आ गए. उम्र भी थोड़ी बढ़ी, लेकिन हिम्मत नहीं आई. एक बड़ी ख़ूबसूरत-सी थी मुझे लगता मुझे कहां भाव देगी. फिर खेल खेल में पता चला, ऐसी कोई बात नहीं है.
कुछ लोगों को ऊपरवाला बर्बाद होने के लिए ही पैदा करता है और मैं भी शायद उनमें से एक हूं. इतना ही नहीं ऐसे लोग ख़ुद को बर्बाद करने में कोई कसर छोड़ते नहीं और फिर गाना गाते हैं. मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया. हर फ़िक्र को धुंए में उड़ता चला गया. बर्बादियों का सोग मनाना फिज़ूल था, बर्बादियों का जश्न मनाता चला गया…
यह उन दिनों की बात है, जिसकी कल्पना आज के दौर में कर पाना भी मुश्किल है. बस, इतना समझ लीजिए कि किस्मतवाले को-एजुकेशन में पढ़ते थे, जो
बच्चे काॅन्वेंट स्कूल में पढ़ते वे कुछ ख़ास होते थे. अमूमन सब सरकारी स्कूलों में पढ़ा करते थे. स्कूलों की हालत बेहतर थी. शिक्षक होते थे,
स्कूल-काॅलेज में पढ़ाई होती थी. बोर्ड के एक्ज़ाम हुआ करते थे और जिस दिन रिज़ल्ट आना होता था, उस दिन किसी ख़ास पेपरवाले के दुकान पर भीड़ लगी रहती थी. पहले से डिक्लेयर किया जाता था कि दसवीं बोर्ड के रिज़ल्ट फलाना और बारहवीं के फलाना तारीख़ को आएंगे. पेपर बीच सड़क पर रख कर सिर के ऊपर सिर घुसाकर रिज़ल्ट देखा जाता था और सब से ज़्यादा वह रिज़ल्ट का इन्तज़ार करता, जिसे फेल होने का डर होता. जिसे फर्स्ट डिवीजन आना होता, वह चुपचाप शराफ़त से घर के भीतर दुबका रहता. कई बार वह टॉपर बन जाता और शहर का नाम रोशन
करता. बच्चे का पास हो जाना घर में जश्न की तरह होता. ढेर सारी कहानियां सुनाई जातीं. पूरे मोहल्ले में बधाइयों और मिठाइयों का तांता चलता. साठ
परसेंट पर फर्स्ट डिवीजन थीं और सेकंड डिवीजन में पास होनेवाले की इज्जत थी, जो थर्ड डिवीजन आता जश्न उसके घर भी मनाया जाता. थोड़ी कसक के साथ कोई नहीं बस दो नंबर से सेकंड डिवीजन रुकी है. इस बार मैथ का पेपर थोड़ा टफ आया. ये तो कहो पास हो गए. अच्छे अच्छों की सप्लीमेंट्री आ गई. हमें तो
उम्मीद नहीं थी, पर चलो ठीक है साल ख़राब नहीं हुआ. लल्लू निकल गए. अरे, पप्पू तो दुई नंबर से फंस गए. वही इनके फूफा के बेटे दोनों की पक्की दोस्ती है. बड़ा समझाए, तब जा के महीने-दो महीने साथ छूटा और ये जनाब पास हुए नहीं तो गए थे. अब आपसे क्या बताएं उस दिन दुई चार हाथ हम भी लगा दिए थे, वैसे हम बच्चों की पिटाई के ख़िलाफ हैं और दो-चार हाथ का मतलब समझते हैं, जी भर के कुटाई. ऐसी कुटाई कि ज़िंदगीभर याद रहे. एक से एक बिगड़ैल लड़के सुधर जाएं. और कूटने-पीटने के बाद जब बच्चा रो रहा हो, तो उसे डांट के जलेबी खिलाई जाए.
"अबे पापुआ इधर आ, उहाँ का कर रहा है अम्मा के धौरे."
"चलो हटो जी, अभी तो इतना मारे हो, अब प्यार जता रहे हो." और वह मां के आंचल में दुबक के रो रहा है. "अम्मा, हमें नहीं खानी जलेबी."
और एक-दो बार समझने पर जलेबी नहीं ली, तो दुबारा पिटने का ख़तरा मंडराने लगे. इस बार दो-चार
प्यारभरे लफ्ज़ अम्मा पर भी बरस सकते हैं.
"इसकी ज़िंदगी बनाने को डांटते-मारते हैं, वर्ना हमें क्या पड़ी है तुम्हारे लाड़-प्यार ने इसे बिगाड़ रखा
है."
और अम्मा समझाती, "जाओ बेटा, कोई बात नहीं तुम्हारे पापा हैं. तुम्हें प्यार भी तो करते हैं. सुनोजी ऐसे भी कोई पीटता है, देखो उंगलियों के निशान उभर आए हैं. जा बेटा ले ले जलेबी." और वो आंसू पोंछता रोता कलपता किसी तरह एक-दो टुकड़े मुंह में रखता. जितनी वह जलेबी खाता, उससे ज़्यादा उसके आंसू टपकते वह सुबकता. इधर पिटाई एक की होती, उधर घर-परिवार के दस-बीस बच्चे सुधर जाते. मुहल्ले को पता पड़ जाता कि आज पप्पू जलेबी मिली है.
दो-चार दिन के लिए खेल-कूद बंद हो जाता. ग्राउंड सूना नज़र आता. न क्रिकेट का बैट दिखता, न बाॅल नज़र आती. शाम कोई खेलने के लिए बुलाने भी नहीं आता.
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अमूमन यह कांड हाफ इयरली एक्ज़ाम के बाद होता, जब नम्बर कम आते और फाइनल में तीन महीने बाकी होते. मुहल्ले में दो-चार ऐसी कुटाई के बाद फाइनल रिज़ल्ट सुधर जाता. अमूमन सभी पास हो जाते. यह बात बच्चों को कभी पता नहीं चली कि अपने पीटने का कोटा पूरा हो जाने के बाद गुरूजी पिताजी से कुटवाने के लिए ही हाफ इयरली में स्ट्रिक्ट मार्किंग करते हैं. जो सेकंड आता, वह फाइनल में फर्स्ट तो ज़रूर मान के चलो.
ख़ैर, आप सोच रहे होंगे पहले अफेयर से इस क़िस्से का क्या लेना देना. तो यह इसलिए कि इतने स्ट्रिक्ट माहौल में काहे का अफेयर. अरे, उस ज़माने में तो लड़का-लड़की एक-दूसरे के रास्ते में पाए जाएं, तो कैरेक्टर ख़राब. बात करने की तो बात ही छोड़ दीजिए. अगर पड़ोसी ने भी किसी लड़की से बात करते देख लिया, तो पहले तो ख़ुद ही डांट लेगा, फिर घर में ख़बर और हो जाएगी. शाम होते ही पिताजी आते ही होमवर्क की कॉपी निकलवा लेंगे और फिर ज़ोरदार लेक्चर, "बहुत बिगड़ गए हो, पढ़ाई-लिखाई में ध्यान ही नहीं लगता. अरे, आवारागर्दी से फ़ुर्सत मिले, तब न पढ़ोगे. बस देखो बेटा मेरी नाक मत कटा देना. तुम्हारी तो नहीं मेरी बड़ी इज्ज़त है समाज में."
हद हो गई यार लड़के ने किया क्या है. कुछ भी तो नहीं. साला किसी को देखना गुनाह हो गया, बात करना तो छोड़ ही दो. उस ज़माने में फिल्मी गाने विविध भारती पर सुने जाते थे, वह भी पिताजी के आने! का समय होते ही बंद. मगर मज़ा बहुत आता था उन गानों में. और बड़ा ही नशा होता ज़िंदगी में. जो कहता- ये माना मेरी जान मुहब्बत नशा है, मज़ा इसमें
इतना मगर किसलिए है. क्या इतनी कड़ाई के बाद इश्क़-मुहब्बत बन्द हुए. कत्तई नहीं उस दौर में भी आशिकी हुई और यह आशिकी किस दौर में बंद हुई, कभी नहीं. क्योंकि उस ज़माने का हीरो भी लोगों को बर्बाद करता था. जो उकसाते हुए गाना गाता है. दुनिया उसी की ज़माना उसी का, मोहब्बत में जो हो गया हो किसी का… उस ज़माने में 'आई लव यू' कहने की हिम्मत किसी की नहीं थी. जो लड़का ऐसा बोलने की कोशिश करता, उसकी शिकायत हो जाती. लड़की ही कर देती उसके पिता से जाकर, "अंकल, ये भैया न मुझे…"
"हां बोलो बेटा, क्या हुआ?.."
और अंकल समझ जाते, "तुम चिंता न करो. आने दो मैं देखता हूं. ऐसे में जो किसी को गुलाब का फूल दे देता, उसे लड़के साहसी कहते. दिल में बड़ी इज्ज़त की नज़र देखते और जलन करते हो, 'थी तो मेरी जिसे इसने फूल दे दिया.' ऐसे में किसी लड़के की किसी लड़की से बातचीत होती रहे, तो अफेयर. और कहीं पानी लेने-देने में हाथ की उंगलियां छू जाएं और वो शरमा के चुप रह जाए, किसी से शिकायत न करे, तो चक्कर चल गया.
अब इसका यह मतलब नहीं कि तब के लड़के बड़े शरीफ़ होते थे और कुछ करते ही नहीं थे. जिसे जब जहां मौक़ा मिला, वह हाथ साफ कर देता था. बात बस इतनी थी कि मौक़ा मिलता ही नहीं था. मुझे उम्मीद है अब आप मेरी बात समझने की स्थिति में आ गए होंगे. मेरी दिक्कत यही है कि जो भी लिखूंगा सच लिखूंगा, सच के सिवा कुछ नहीं लिखूंगा.
मुझे भरोसा है कि यदि आप मेरी इतनी बात समझ गए, तो आगे की बात आसानी से समझ लेंगे और मेरे पहले अफेयर को आप अफेयर मान लेंगे.
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मामला क्लास सिक्स से लेकर क्लास आठ तक का है. ओह अब यह मत कहिएगा कि वो भी कोई उम्र होती है अफेयर की. हम लोग तो फीलिंग को ही अफेयर मान लेते थे. सो चार-चार क्वार्टर के ब्लाॅक होते थे, जिसमें हम लोग रहते थे. दो ऊपर, दो नीचे आमने-सामने. इस तरह बगल में दूसरा, फिर तीसरा ऐसे ही चलता था. फिर सामने एक ब्लाॅक होता और दोनों के बीच में रोड. रोड जब ख़त्म होती, तो दूसरे रोड से मिलती थी. रोज़ शाम तीन बजे से किसी के इंतज़ार में निगाहें में जहां से मुहल्ले की रोड शुरू होती उस पर लग जातीं और उसे आते हुए देखतीं. बस, इस उम्मीद में कि कभी वो भी देखेगी और वह देखतीnभी बस जी ये आंखें मिलीं, हंसी छूटी, तो हम लोग अफेयर मान लेते थे. फिर शाम से उसकी बालकनी के आगे क्रिकेट खेलना. दिखा दिखा के और उसकी हंसी को महसूस करना. ऐसे होता जैसे दिल में कुछ चल रहा हो. हम लोगों का ब्लाॅक अलग था. कभी वो छत पर नज़र आती, तो देर तक निहारते रहते. इस बात का अभी पता नहीं चला था कि वो भी देखती या निहारती है कि नहीं. बस होली में कभी जम के रंग लगा लेते, तो तबीयत ख़ुश हो जाती. बदतमीजी की इजाज़त नहीं थी. नहीं तो वो गंदा लड़का समझ लेगी. फिर तो अपनी बनी बनाई अच्छी-ख़ासी इमेज ख़राब हो जाएगी. ख़ैर, एक दिन पता चला, उसी ब्लाॅक में रहने वाले मेरे ही दोस्त ने अपने दिल का हाल बता दिया कि उसने तो उसके साथ लुका-छिपी खेल ली और जब दोनों के मम्मी-पापा नहीं थे, तो चिपक भी लिए. सच कहूं, यह सुन कर मेरा तो दिल ही टूट गया. यह ग़लत बात थी कम से कम मेरे दोस्त को मेरे सेंटिमेंट्स का ख़्याल तो रखना था. लेकिन अब क्या हो सकता था मैं अच्छी इमेज बनाता रहा और उसने हिम्मत दिखा दी? आगे जा के पता चला, चलो अच्छा हुआ उसकी तो पढ़ाई ख़राब हो गई. मैं तो ठीक ठाक निकल गया क्लास में और साइंस मिल गई नौवीं में. उस ज़माने में बड़ा चक्कर था, जिसके अच्छे नंबर नहीं आते थे, उसे आर्ट्स और काॅमर्स लेना पड़ता था. यह तो बड़े हो कर पता चला वे सब डिग्री करके आईएएस, पीसीएस बन गए और साइंसवाले बस
इंजीनियर रह गए.
इधर हम लोगों का मकान भी बदल गया और थोड़ी दूर पर नई काॅलोनी में आ गए. उम्र भी थोड़ी बढ़ी, लेकिन हिम्मत नहीं आई. एक बड़ी ख़ूबसूरत-सी थी मुझे लगता मुझे कहां भाव देगी. फिर खेल खेल में पता चला, ऐसी कोई बात नहीं है. वह तो मेरे साथ भी खेल रही है, जैसे औरों के साथ खेलती थी. लेकिन मेरा दोस्त उससे पहले ही गहरी दोस्ती कर चुका था, सो मुझे दोस्त का ख़्याल रखना था. वैसे अच्छा हुआ उन दोनों की पढ़ाई ख़राब हो गई मैं बच गया. फिर एक मामला आया बारहवीं में, इस बार पिताजी के एक दोस्त थे उनकी बेटी को कोचिंग जाना था पढ़ने के लिए, सो पापा ने पूछा, "वो तुम लोगों के साथ चली जाएगी, तो कोई दिक्कत तो नहीं है. हम तीन दोस्त साइकिल से जाते थे. मशवरा किया, तो सब पढ़नेवाले बोले, "यार पढ़ाई डिस्टर्ब हो जाएगी." मुझे भी लगा मुहल्ले में बनी शरीफ़ लड़के की इमेज नष्ट हो जाएगी. मैंने साफ़ माना कर दिया, लेकिन वो थी बड़ी ही शानदार. बड़े ही गुणवाली, उस ज़माने में कत्थक सीखती थी और अच्छा-भला नाम हो गया था. उसकी परफार्मेंस की खबरें पेपर में आती फोटो के साथ. उसे कोचिंग तो पढ़नी ही थी, सो वो अकेले साइकिल से कोचिंग जाती.
होनी तो होनी है, कोई क्या कर सकता है जी. ऐसे ही एक दिन हम तीनों आगे-आगे जा रहे थे और वो पीछे से आ रही थी. मैंने स्पीड ब्रेकर देखकर साइकिल में ब्रेक लगाया और मेरी साइकिल अचानक रुक गई, वो पीछे आ रही थी उस से या तो ब्रेक नहीं लगी या उसका ध्यान नहीं गया अचानक मेरी साइकिल के रुकने पर और सीधे उसकी साइकिल मेरी साइकिल से लड़ गई. मैं ही बीच में था और साइकिल भी
लड़नी थी तो मेरी. जैसे ही साइकिल लड़ी, वो तो लेडीज साइकिल पर पैरों से खड़ी हो गई. मैं अपनी साइकिल से उतरा मैंने पीछे देखा आख़िर यह टक्कर मारी किसने है और जैसे ही मैं पीछे मुड़ा, वो बड़ी मासूमियत से बोली सॉरी. अब
आप ही बताएं उस एज में किसका दिल नहीं पिघल जाएगा सॉरी सुनकर और मैंने कहा, "अरे नहीं, सॉरी तो मुझे बोलनी चाहिए अचानक ब्रेक लगाने के लिए (वैसे कोई लड़का होता, तो कैसी सॉरी मैं तो एक-दो हाथ लगा देता, फिर बात करता अपने नेचर के अनुसार). मगर नहीं अब उसके लिए तो ऐसा नहीं हो सकता था.
कोचिंग पहुंचने में देर न हो जाए, सो हम दोनों साइकिल उठा कर चल पड़े.
रास्ता न ब्लाॅक हो जाए, इसलिए मैं और वो आगे मेरे दोनों दोस्त पीछे. और रास्तेभर बातें होती रहीं और अंतिम सवाल उसने पूछा, "क्या कल से मैं तुम लोगों के साथ आ सकती हूं, टाइम तो एक ही है. अब इस बार कैसे मना करता.
मैंने टाइम बता दिया निकलने से ठीक पांच मिनट पहले का. यक़ीन मानिए वो ठीक समय से मेरे घर के भीतर लोहे का गेट खोल कर खड़ी थी. ठीक पांच मिनट पहले. उसके आने के थोड़ी देर बाद मेरे दोनों दोस्त भी आ गए और हम चारों
चल पड़े कोचिंग. अब क्या साथ जाना और साथ आना. हम दोनों आगे-आगे और मेरे दोस्त पीछे-पीछे. कभी-कभी तीन लोग पैरेलल हो जाते, तो उसकी साइकिल बीच में
हो जाती, उस दिन मेरे उस दोस्त को कुछ एक्स्ट्रा माइलेज मिल जाती. अभी मामला बना कहां था. वह तो कोचिंग में सभी सीट भर गईं और लड़कों के लिए एक सीट शाॅर्ट पड़ गई. इधर लड़कियों की जो बेंच लगी थी, उसमें एक सीट बची थी, जिस पर कोई बैठने को तैयार न था, न ही लड़कियां किसी को बैठना चाहती थीं. तभी इसने मुझे बुला के कहा, "आओ तुम बैठ जाओ, वैसे भी हमारी शराफ़त के झंडे
इतने बुलंद थे कि मेरे बैठने से किसी लड़की को कोई एतराज़ न था. फिर क्या होना था, पढ़ाई होने लगी नोट्स ट्रांसफर होने लगे. एक दिन उसने घर बुलाया और मैं गया, नोट्स के चक्कर में. मुझे पता था उसके दो बड़े भाई
हैं और वो मुझे जानते भी थे अच्छी इमेज थी, सो भीतर बुला के बैठाया. अपना तो नेचर ही अजीब है जी इंतज़ार करना, तो सीखा ही नहीं. वे बोले, "बैठो वो बिजी है अभी आती हैं." मैं थोड़ी देर बैठा और फिर उठ के चल दिया. अगले दिन उसने फिर बुलाया और मैंने कहा, "मैं नहीं आऊंगा, तुम बिजी रहती हो."
अब आप ही सोचिए, जो लड़का लड़की का इंतज़ार नहीं कर सकता, उसके नखरे नहीं उठा सकता, उसका क्या खाक अफेयर होगा. पर नहीं वो बोली, "प्लीज़, आना अब मैं बिजी
नहीं रहूंगी." और मैं फिर गया उसके घर और इस बार सच में वो बिजी नहीं थी.
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हम लोगों की बातें हुई और सबसे बड़ी बात कोई दोनों की निगरानी करनेवाला भी नहीं था. इसके बाद वो मुझे गेट तक सी ऑफ करने भी आई और जब भी गया बड़ी इज्ज़त से वो बाहर तक मुझे विदा करने आती थी. मेरे दिल में भी कुछ - कुछ तो था, लेकिन कहने की हिम्मत कभी नहीं हुई. यहां तक कि एक दिन कोचिंग पहुंचे, तो बारिश होने लगी और सर ने कहा कि क्लास नहीं होगी. मैंने कहा, "चलो वापस
चलते हैं." तो मेरे दोनों दोस्तों ने मना कर दिया कि भीग जाएंगे और वो अपना बस्ता ले कर तैयार हो गई, "चलो मैं चलती हूं, फिर उसने मेरी फाइल भी अपने पास रख ली कि भीग न जाए और जब हम दोनों भीगते हुये साइकिल से निकले, तो देखा पीछे-पीछे मेरे दोनों दोस्त भी चले आ रहे हैं. आप जानते हैं फिर क्या हुआ, कुछ नहीं. इस बार उसकी पढ़ाई ख़राब हो गई. मैं तो पास हो गया और वो हंस रही थी. उसे कोई मलाल नहीं था, "बोली कोई बात नहीं अगली बार पास हो जाएंगे. तुम पास हो गए, बस अच्छा हुआ तुम्हारा साल नहीं ख़राब होना चाहिए."
कोचिंग छूटी रास्ते बदले. मिलना-जुलाना बंद. दोनों अपने रास्ते. ऐसे ही एक मामला और हुआ. मेरी सर्विस लग गई थी. जब घर पहुंचा, तो देखा एक शादी का! कार्ड आया हुआ है. मैंने पूछा, "किसका है?" क्योंकि जो नाम लिखा था वह मैं
जानता ही नहीं था. लेकिन मम्मी बोलीं, "अरे गुड्डी की शादी है. उसने तुम्हें बुलाया है." यह और गज़ब वो तो क्लास पांच के बाद कभी मिली ही नहीं. दरअसल, उसके पापा और मेरे पापा दोस्त थे, तो कार्ड तो आना ही था. हां अंकल
बोल गए थे कि गुड्डी कह रही थी चून्नू को ज़रूर भेज दीजिएगा." अब हमें भी क्या नौकरी करने लगा था. अपनी भी शादी की बात चल रही थी, सो शादी से पहले ही मिलने पहुंच गया. मैं तो देखकर हैरान रह गया. उसके घर शादी की तैयारी चल रही थी और वो एक अलग कमरे में कुर्सी डाल मुझसे बात करने बैठ गई. घरवालों को क्या बचपन के दोस्त हैं, तो सालों की बातें इकट्ठा होंगी. बातों बातों में मैंने कहा, "गुड्डी, कई बार मैंने तुम्हें काॅलेज जाते हुए देखा. तुम सेंट मैरी में थी न." वो बोली, "हां, लेकिन जब देखा, तो रोका क्यों नहीं." अब मैं सन्न, कैसे कहता कि मैं हिन्दी मीडियम में था और तुम इंग्लिश मीडियम में. मैं तो अपनी ही इंफीरियर्टी में डूबा रहा. मैंने कहा, "मैं सोचता था अगर तुम्हें रोकूंगा, तो क्या तुम मुझे पहचानोगी और बात करोगी." इस बार वह हंसी, "तुम भी न पागल हो. मैंने तो कई बार पूछा कि चून्नू कहां है, लेकिन तुम्हारा पता ही नहीं चला. बात भी सही थी काॅलेज
लाइफ में मैं बड़ा ही रिजर्व और छुप-छुपा कर रहता था. किसी तरह पढ़ाई पूरी करके मेहनत से नौकरी ढूढ़ने के चक्कर में. मैं उसकी शादी में भी गया और फिर उसके विदा होने के बाद उनके घर भी, क्योंकि अंकल-आंटी बहुत मानते थे, वह जो एक अच्छे लड़के की इमेज थी, वो बड़ी भारी थी पूरे मेरे काॅलेज लाइफ में. और आंटी ने कहा, "गुड्डी तो तुम्हारी फोटो देख कर पूछ रही थी चून्नू बिदाई में यहां था क्या?"
मैंने कहा, "ये फोटो नहीं देख रही हो." फिर क्या शादी के बाद उसका एक कार्ड आया धन्यवाद का. शादी अटेन्ड करने और गिफ्ट के लिए, जिसे मैंने एक दिन अपनी शादी के बाद छुपके से अपनी चौथी मंज़िल की खिड़की से बाहर गिरा दिया था.
अब इनमें से कोई अफेयर की कैटेगरी में आता है कि नहीं पता नहीं, लेकिन मुझे यह अफ़सोस है कि ये सब अफेयर बन सकते थे, लेकिन जब सबकी बैकग्राउंड देखता हूं, तो सोचता हूं, 'अच्छा हुआ वरना पढ़ाई ख़राब हो जाती.'
- शिखर प्रयाग