बदला हुआ मौसम
अचानक हिंदी पर गोष्ठियां, सम्मेलन व तरह-तरह के समारोह आयोजित होने लगे थे. हिंदी नारे बुलंदियो पर थे. सरकारी संगठनो से साठ-गांठ के ताबड़तोड़ प्रयास भी जोरों पर थे.
इन दिनों ’अंग्रेज़ी’ भी ’हिंदी’ बोलने लगी थी. मौसम बदला-बदला महसूस हो रहा था. कुछ बरसों में ऐसा मौसम तब आता है, जब ’विश्व हिंदी सम्मेलन’ आनेवाला होता है.
संवाद (लघु-कथा)
पिंजरे में बंद दो सफ़ेद कबूतरों को जब भारी भरकम लोगों की भीड़ के बीच लाया गया, तो वे पिंज़रे की सलाखों में सहम कर दुबकते जा रहे थे. फिर, दो हाथों ने एक कबूतर को जोर से पकड़कर पिंज़रे से बाहर निकालते हुए दूसरे हाथों को सौंप दिया. मारे दहशत के कबूतर ने अपनी दोनों आँखे भींच ली थी. समारोह के मुख्य अतिथि ने बारी-बारी से दोनों कबूतर उड़ाकर समारोह की शुरूआत की. तालियों की गड़गड़ाहट जोरों पर थी.
एक झटका-सा लगा, फिर उस कबूतर को एहसास हुआ कि उसे तो पुन उन्मुक्त गगन में उड़ने का अवसर मिल रहा है. वह गिरते-गिरते संभलकर जैसे-तैसे उड़ चला. उसकी खुशी का ठिकाना न रहा, जब बगल में देखा कि दूसरा साथी कबूतर भी उड़कर उसके साथ आ मिला था. दोनों कबूतर अभी तक सहमे हुए थे. उनकी उड़ान सामान्य नहीं थी.
थोड़ी देर में सामान्य होने पर उड़ान लेते-लेते एक ने दूसरे से कहा, आदमी को समझना बहुत मुश्किल है. पहले हमें पकड़ा, फिर छोड़ दिया! यदि हमें उड़ने को छोड़ना ही था, तो पकड़कर इतनी यातना क्यों दी? मैं तो मारे डर के बस मर ही चला था.
चुप, बच गए ना आदमी से! बस उड़ चल!
हिंदी दोहे
हिंदी दोहे बाहर से तो पीटते, सब हिंदी का ढोल ।
अंतस में रखते नहीं, इसका कोई मोल ।।
एक बरस में आ गई, इनको हिंदी याद ।
भाषण-नारे दे रहे, दें ना पानी-खाद ।।
अपनी मां अपनी रहे, इतना लीजे जान ।
उसको मिलना चाहिए, जो उसका सम्मान ।।
हिंदी की खाते रहे, अंग्रेजी से प्यार ।
हिंदी को लगती रही, बस अपनों की मार ।।
हिंदी को मिलते रहे, भाषण-नारे-गीत ।
पर उसको तो चाहिए, तेरी-मेरी प्रीत ।।
सुन! हिंदी में बोल तू, कर कुछ ऐसा काम ।
दुनियाभर में हिंद का, होवे ऊंचा नाम ।।
हिंदी में मिलती हमें, 'रोहित’ बड़ी मिठास ।
इससे सुख मिलता हमें, सबसे लगती खास ।।
खुसरो के अच्छे लगें, 'रोहित' हिंदवी गीत ।
मीरा-तुलसी-सूर से, लागी हमको प्रीत ।।
रोहित कुमार 'हैप्पी’
(संपादक- भारत दर्शन, न्यूज़ीलैंड)
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