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सुनो-सुनो मज़े की एक कहानी
उस दुनिया की जो हुई सयानी
है कुछ साल पहले की बात
दिवाली के कुछ दिन पहले की रात
चकमक-दकमक बाज़ारों में
गलियों और चौबारों में
चमकीले सामानों को
ख़रीदने की होड़ थी
चीन की बनी वस्तुएं सब
सुंदरता में बेजोड़ थीं
सहसा मैंने इक बिजली की
लड़ी छुई तो अंतर्मन से
आवाज़ आई अरी ठहर
हिंदी-चीनी भाई-भाई कहकर
जिसने ढाया हम पे कहर
पीठ में भोंका छुरा जिसने
हम क्यों उसका स्वार्थ सिद्ध करें?
उसका बाज़ार बनकर क्यों हम
उसको और समृद्ध करें?
लेकिन जैसा कि होता आया है
जब मैंने अपना पक्ष बताया सबको
ख़ुद पर हंसता ही पाया सबको
‘एक हमारे-तुम्हारे न ख़रीदने से
नहीं पड़ेगा कोई अंतर
और सभी को समझाने का
नहीं किसी के पास है मंतर’
सबका मत मुझसे भिन्न था
मेरा मन बहुत ही खिन्न था
घर आकर यों ही आवरण पर
गई निगाह गुरुजी के उद्धरण पर
हम बदलेंगे युग बदलेगा
हम सुधरेंगे युग सुधरेगा
सहसा प्यारा सा विचार आया
मन पर इक उत्साह छाया
ध्यान से देखा तो पाया
बहुत से लोग मेरी तरह
इस संकल्प पर हैं टिक रहे
सोशल मीडिया पर संदेशों में
निज भावनाएं हैं लिख रहे
औरों के भी ऐसे संकल्पों से
मन में नया उत्साह जगा
आज ख़बर पढ़ी तो यही लगा
‘कुछ नहीं होने वाला’
के हथियार से डरना व्यर्थ है
‘कम से कम हम सही करेंगे’ में ही
मानव होने का अर्थ है…
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