सर्द मौसम में सुबह की गुनगुनी धूप जैसी तुम…
तपते रेगिस्तान में पानी की बूंद जैसी तुम…
सुबह-सुबह नर्म गुलाब पर बिखरी ओस जैसी तुम…
हर शाम आंगन में महकती रातरानी सी तुम…
मैं अगर गुल हूं तो गुलमोहर जैसी तुम…
मैं मुसाफ़िर, मेरी मंज़िल सी तुम…
ज़माने की दुशवारियों के बीच मेरे दर्द को पनाह देती तुम…
मेरी नींदों में हसीन ख़्वाबों सी तुम…
मेरी जागती आंखों में ज़िंदगी की उम्मीदों सी तुम…
मैं ज़र्रा, मुझे तराशती सी तुम…
मैं भटकता राही, मुझे तलाशती सी तुम…
मैं इश्क़, मुझमें सिमटती सी तुम…
मैं टूटा-बिखरा अधूरा सा, मुझे मुकम्मल करती सी तुम…
मैं अब मैं कहां, मुझमें भी हो तुम… बस तुम… सिर्फ़ तुम!
गीता शर्मा