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कविता- माँ… (Poetry- Maa…)

एक आँगन है माँ
जिसकी गोद में लगे
स्नेह की मीठी छाँव देते
नीम तले खेलता है बचपन
सुकून पाते हैं युवा और
थकान भूल जाते हैं सब…

मुख्य द्वार है माँ
प्रतीक्षा करता रहता है जो
परिवार के हर एक सदस्य के
लौट आने की
खुला रहता है जब तक
सब लौट न आए, भले ही
कितनी ही रात हो जाए…

रसोईघर है माँ
जो सुबह से देर रात तक
तपता रहता है चूल्हे की आँच में
परोसता है सबका मनपसंद
भोजन थाली में
की कभी कोई भूखा न रह जाए…

एक छत है माँ
ढाल बन छायी रहती है
तेज धूप, सर्दी, गर्मी
हर मौसम की कठिनाइयों से
बचाने के लिए,
दीवार बन समेट लेती है
अपने सुरक्षित अंकपाश में
सभी दुश्चिंताओं से दूर…

एक सुकून भरा अपना सा
कोना है इस संसार का
जहाँ सब दुख खड़े रह जाते हैं
चौखट के बाहर ही
और स्नेह की थपकियाँ
हर लेती हैं सारी थकान
आँगन, छत, दीवार, चौखट
सब एक साथ समाहित है उसमें
तभी तो एक भरापूरा घर है माँ…

- विनीता राहुरीकर


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Photo Courtesy: Freepik

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