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कविता- कामकाजी गृहिणी (Poetry- Kamkaji Grihinee)

ख़ुद की तलाश में निकलती हूं
मानो हर रोज़ 
अपने ही वजूद को तराशती हूं मैं 

समेट कर पूरे घर को समय पर 
घड़ी की सुइयों पर
बदहवास सी दौड़ती भागती हूं मैं 

घर की दहलीज़ में दामन तो पाक रहा
गिद्ध सी निहारती ज़माने की
गंदी नज़र से ख़ुद को बचाती हूं मैं 

दिनभर के दफ़्तर के काम निपटाकर
शाम ढलने से पहले निकलूं
ये सोचकर राजधानी ट्रेन सी ख़ुद को भगाती हूं मैं 

थका हारा शरीर जब घर को वापस आए
राह तकते ज़िम्मेदारियों को देख
दोगुने जोश से फिर से काम पर लग जाती हूं मैं 

हां एक स्वतंत्र स्त्री की छवि लिए फिर भी 
हर दायित्व से बंधन युक्त हूं 
कामकाजी से गृहिणी तक की 
हर भूमिका दिल से निभाती हूं मैं…

- कुमारी बंदना


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Photo Courtesy: Freepik

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