होली की चढ़ती खुमारी में
चटकीले रंगों भरी पिचकारी में
श्रीमान का जाम छलकता है
कुछ नशा सा ज्यों ही चढ़ता है
पड़ोसन को रंगते, मलते गाल
उड़ाते हवा में रंग गुलाल
उड़ाते रंग गुलाल
समझते ख़ुद को साहिब ए आलम
श्रीमती को कनीज़ समझते बालम
हुक्म चलाते.. रौब जमाते..
हर रोज़ घिग्घयाते रहने वाले
भांग चढ़ा शेर बन जाते
बीवी से वो पांव दबवाते
मार के मुक्का उन्हें फिट रखने वाली
उंगली के एक इशारे पर कत्थक करवाने वाली
ख़ामोशी से सारे हुक्म बजाती
और नशा उतरते ही शेर को वापस चूहा बनाती
वीरांगना ने इस बार निशाना ऐसा साधा
सुबह से ही कदम बहके और बहती थी
जिव्हा से गालियों की धारा
भोले श्रीमान हुए परेशान
श्रीमती ने पी कर भांग मचाया तूफ़ान
किया पड़ोसी पर हमला
आगे भागे पड़ोसी पीछे भागती नारी अबला
और उनके पीछे दौड़ते थे सैंया प्यारे
हांफते और खांसते बेचारे श्रीमती से हारे
किसी तरह हाथ उनका पकड़ में आया
अब तो एक नई खुराफ़ात ने
श्रीमती के दिल में सिर उठाया
पतिदेव के हाथ को अपने लहराते दुपट्टे से लिपटाया
अग्नि बना पड़ोसी दोनों हाथ ऊपर लहराता
श्रीमती संग फेरे लेता श्रीमान
ना हंसता और ना रोता
मोहल्ले वाले फूलों की जगह
छिड़क रहे थे गुलाल
श्रीमान का सच में हुआ बुरा हाल
जो कभी होली पर बनते थे राजा
श्रीमती ने बिना ताल बजाया था
उनका गज़ब ही बाजा…
- संयुक्ता त्यागी
(बुरा ना मानो होली है..!)
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