पहला अफेयर: तुम मुस्कुराईं (Pahla Affair: Tum Muskurai)
एक गुनगुनाती सुबह, एक नए रंग की नई ख़ुशबू से महकती... तुम्हारा आना, तुम्हें देखकर कई निगाहें मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं. आज ही तुमने कंपनी जॉइन की थी और मेरे ही विभाग में मेरे एकदम क़रीब ही तुम्हारे बैठने की व्यवस्था की गई थी. मुझे महसूस हुआ, तुम्हारी बातों में मिठास है, किसी को अपना बना लेने का गौरव. क्षितिज पर उगते सूर्य की हल्की-सी गर्माहट लिए तुम.
काम की व्यस्तता के साथ ही हम आपस में काफ़ी घुल-मिल गए थे. लंच के समय भी तुम्हारे टिफिन में मेरा भी शेयर अवश्य रहता था. कभी गाजर का हलवा, कभी कुछ और. विभाग के अधिकारियों व स्टाफ में हम गुप-चुप चर्चा का विषय बन गए थे. हर किसी की नज़र में कहीं कुछ शंका-सी थी. फिर भी तुम अनदेखा महसूस करातीं अपने स्वाभाविक व्यवहार से और अपने काम के प्रति भी तुम बेहद ईमानदारी से पेश आती थीं. अजीब संयोग था. तुम्हारा मिलना, क़रीब आना. कभी रूठना, कभी जलाना या फिर कभी दो-चार दिन बात ही न करना.
एक दिन तुमने अपनी दो तस्वीरें मुझे दिखाईं- एक सलवार-कुर्ते में और दूसरी हरी धानी साड़ीवाली तस्वीर थी. तुमने पूछा था, “बताओ, कौन-सी तस्वीर...” और मैंने बात काटते हुए कहा था, “साड़ी में ही भारतीय नारी की ख़ूबसूरती अधिक निखरकर आती है.” और तुम मुस्कुरा दी थी यह सुनकर. तुमने अपनी वह तस्वीर देने का वादा भी किया था.
यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: धूप का टुकड़ा यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: फासला प्यार काहर रोज़ एक नई बात होती. फिल्मों की, खेल की चर्चा भी हम मज़े लेकर करते. चूंकि तुम विभाग के अन्य कर्मचारियों के प्रति उदासीन या यूं कहें फॉर्मल ही थी, इसलिए उनमें कुछ ईर्ष्या की भावना भी हमारे प्रति ज़ाहिर होती थी. मुझे भी इतने लंबे साथ के बाद तुम्हारे मन की बात जाननी ही थी और आख़िर लंच के बाद उस दिन मैंने तुम्हें प्रपोज़ किया था. तुम मुस्कुराईं, ठहरीं, कुछ सोचा और तुमने मुझे साफ़ रिफ्यूज़ कर दिया था. पहले मैं थोड़ा नर्वस हुआ, लेकिन जल्द ही सामान्य होने लगा. मुझे लगा- इट इज़ नॉट ए सीरियस केस. फिर भी हमारे बीच कुछ ऐसा था कि दो ग्रह आपस में टकराकर भी विस्फोटित नहीं हुए और विलग भी नहीं हुए. आपसी व्यवहार यथावत् चल रहे थे.
फिर शायद एक दरार ही पड़ गई थी. तुम्हारा विभाग ही चेन्ज कर दिया गया और एक दिन ऐसा भी आया कि तुम कंपनी ही छोड़कर चली गईं. तुमने कोई और कंपनी बतौर तऱक्क़ी जॉइन कर ली थी. कभी-कभी रास्ते में तुम्हारा मिलना एक सुखद क्षण होता. तुमसे मिलने की ललक बढ़ती. तुम्हारी भी रुचि कम न हुई थी, लेकिन...
और तुम आगे बढ़ती गई. फिर एक और शख़्स आया तुम्हारे जीवन में... कुछ ही दिनों में तुम्हारी शादी का निमंत्रण-पत्र मिला. सोचा चलो तुम्हें दुल्हन के रूप में देखें. तुम्हें मुबारक दुल्हन का रूप, नवजीवन की तुम्हें बधाई!
शायद तुम्हें याद हो, वो तुम्हारी धानी साड़ीवाली तस्वीर, सच काफ़ी ख़ूबसूरत लग रही थीं उस रोज़ तुम. अपनी वो तस्वीर देने का तुमने वादा किया था. शायद अब...!
- सदानंद ‘आनंद’