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पहला अफेयर: प्यार की दास्तान (Pahla Affair: Pyar Ki Dastaan)

Pahla Affair: Pyar Ki Dastaan

पहला अफेयर: प्यार की दास्तान (Pahla Affair: Pyar Ki Dastaan)

व़क्त का सफ़र... हर क़दम पर अपने अक्स छोड़ता चला गया. कभी याद बनकर... कभी तुम्हारी शोख़ियां... कभी रंजिशें... कभी तक़रार, तो कभी तुनकमिज़ाजी और कभी नज़दीकियों के पल... मुझे उस कल की याद दिला रहे हैं, जिसे मैंने कभी कल नहीं होने दिया... स़िर्फ आज और आज तक ही उसे सीमित रखा है. तुम्हारे साथ बिताया हर पल, हर लम्हा इस कदर संजोया है मैंने, जैसे कल की ही बात है...!

लेकिन कई बार ऐसा भी मुक़ाम आता रहा, जब तुम्हें कोई नहीं समझ सका और इस बार तो तुमने हद ही कर दी... हर वर्ष की तरह हमारे कॉलेज में वार्षिक समारोह का आज समापन दिवस था, साथ ही इस कॉलेज में हमारा अंतिम वर्ष भी था. स्टेज के सामने हॉल में दर्शकदीर्घा की पहली पंक्ति में वीआईपी अतिथियों के साथ तुम्हारे परिवार के लोग बैठे हुए थे. इसी पंक्ति के आख़िरी कोने में एक खंभे का सहारा लिए मैं भी वहां खड़ा था. आज कार्यक्रम के अंत में तुम्हें एक क्लासिकल गीत प्रस्तुत करना था और हाथ में माइक लिए जब तुम स्टेज पर आई, तो वहां मुझे इस तरह अकेला खड़ा देखकर न जाने अचानक तुम्हें क्या सूझा, जो अपना एक हाथ उठाकर मेरी ओर इशारा करते हुए बड़ी बेबाक़ी के साथ तुम गा उठी थी...

“बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम क़सम चाहे ले लो ख़ुदा की क़सम...”

मेरी ओर इस तरह इशारा करके सरेआम मेरे प्रति जिस तरह अपने प्यार का तुमने इज़हार कर डाला, वो हम सबके लिए बड़ा ही अप्रत्याशित था. उस समय सबकी नज़रें मेरी ओर उठी हुई थीं... और यह देख तुम्हारे पिताजी का सिर शर्म से झुकता चला गया... वे स़िर्फ तुम्हारे पिता ही नहीं, बल्कि हमारे इस कॉलेज के प्रिंसिपल भी थे. उस समय उनकी वो दशा देख मैं इस क़दर आहत हुआ कि वहां एक पल भी खड़े रहना मेरे लिए मुश्किल हो गया था.

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वे हमेशा से मेरे लिए पिता समान थे. इस कॉलेज का सबसे मेधावी छात्र होने के कारण उनके स्नेह का पात्र होना मेरे लिए बड़े गौरव की बात थी. लेकिन इस अप्रिय घटना ने मुझे इस क़दर विचलित कर दिया था कि वहां किसी को बताए बिना मैं अपनी दादी के पास अपने पैतृक शहर चला आया. आज एक माह हो गया मुझे यहां... और हर दिन यह महसूस होता है, जैसे सब कुछ बिखर गया. ज़िंदगी वहीं ठहर गई, जहां सब कुछ खो गया. बस, मैं ही बेवजह चलता गया... चलता ही गया... इतना चला कि जब मुड़कर देखा, तो पाया तुम कहीं थी ही नहीं...! लेकिन विगत कई दिनों से बार-बार ये भी एहसास होने लगता था कि तुम्हारे क़दम मुझ तक पहुंचने के लिए उठ चुके हैं और देखो मेरा यह एहसास कितना सच था.

आज सुबह तुम्हारा एसएमएस आया कि आज दोपहर दो बजे की ट्रेन से तुम आ रही हो. और फिर ट्रेन के आते ही तुम मेरे सामने थी. आज भी तुम उतनी ही ख़ूबसूरत लग रही थी, जितनी पांच साल पहले... अपनी पहली मुलाक़ात में तुम्हें देखते ही मेरा दिल मुझसे ख़ुदा हाफ़िज़ कहकर तुम्हारे पास चला गया था. शायद तुम-सा हसीन दुनिया में कोई और नहीं था. तुम्हारी ख़ूबसूरती तो वैसी ही थी आज भी, लेकिन आज तुम वो पहलेवाली रेणुका भी नहीं लग रही थीं. तुम्हारा वो शोख़ अंदाज़, वो सारे तेवर और आंखों की वो कशिश, जो तुम्हारे सौंदर्य का सबसे बड़ा आकर्षण थीं, नज़र नहीं आ रही थी. आज

तुम्हारी उन आंखों में स़िर्फ गिले-शिकवे थे, जो मुझसे कह रहे थे...‘क्या कोई इस तरह भी चला आता है?’ और फिर तुम्हारी आंखें नम होती चली गईं... तुम्हारी ऐसी दशा देख बहुत दुखी होकर जब तुम्हें अपने हृदय से लगा लिया, तो मेरे सीने में अपना मुंह छिपाकर तुम्हारे कांपते होंठों के स्पर्श कह गए प्यार की वो दास्तान, जिसे समझने को एक पल बहुत है... पर एक ज़िंदगी भी कम है...!!!

- विजय दीप राजवानी

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