पहला अफेयर: मेरी क्या ख़ता थी...? (Pahla Affair: Meri Kya Khata Thi?)
लगभग 20 साल पुरानी है. तब मेरी उम्र 17 साल थी. हमारे पड़ोस में एक कपूर परिवार रहता था. उनके परिवार से मैं बहुत घुल-मिल गई थी. उनकी पत्नी अपनी स्कूटी की चाबी हमेशा उसमेंं ही लगाकर भूल जाती थीं. मैं उनकी इस आदत का फ़ायदा उठाते हुए अक्सर उनसे बिना कहे उनकी स्कूटी लेकर घूमने चली जाती थी. एक दिन इसी तरह मैं उनकी स्कूटी लेकर अपनी बुआ के घर चली गई. वापस लौटी तो पता चला कि कपूर साहब के भाई, जो चंडीगढ़ से यहां किसी इंटरव्यू के लिए आए थे, उनकी ट्रेन छूट गई, क्योंकि उनका टिकट स्कूटी की डिक्की में रखा हुआ था. मैं अपने किए पर शर्मिंदा हो रही थी कि वो साहब बोले, "शायद वाहे गुरु की मर्ज़ी कुछ और है. मेरी मंज़िल चंडीगढ़ नहीं, कहीं और है." मैं शरमाकर वहां से भाग गई. पर उनका चेहरा मेरे ख़यालों में और बातें मेरे कानों में गूंज रही थीं. अब तो मैं कुछ न कुछ बहाना करके उनके घर के चक्कर लगाने लगी थी. उस ज़माने में खुलकर मिलने की बात तो हम सोच भी नहीं सकते थे. अत: हमारी बातों का ज़रिया था- गोलू, कपूर साहब का बेटा. वे लोग आपस में पंजाबी में बातें किया करते थे, जो मुझे समझ में नहीं आती थीं. यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: अधूरे ख़्वाब यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: तुमको न भूल पाएंगे एक दिन मैंने खीझकर कहा, "रहते बिहार में हो, तो आपको यहां की भाषा अपनानी चाहिए." बस, उन्होंने झट से एक काग़ज़ पर कुछ लिखा और शरारतभरी मुस्कुराहट के साथ कहा, "अगर आप कहें तो मैं यहीं का बन जाऊं और मुझे तो हिंदी लिखनी भी आती है. आप पढ़कर सुनाओ तो जानूं." मैंने उस काग़ज़ को पढ़ना शुरू ही किया था कि मेरी बोलती बंद हो गई. उसमें लिखा था, 'झील-सी आंखों में डूब जाऊं, ऐतराज़ न करना, इन बांहों में ही चाहूं अब जीना-मरना.' इस तरह हमारा प्यार चुपके-चुपके अपनी मंज़िल की ओेर बढ़ रहा था कि एक आंधी ने सब तहस-नहस कर दिया. मेरी दीदी ने एक तमिल लड़के से कोर्ट-मैरिज कर ली. वे जानती थीं कि इस रिश्ते को हमारा कट्टरपंथी ब्राह्मण परिवार और समाज अपनी स्वीकृति नहीं देगा. पापा इस सदमे को सह नहीं पाए और उन्होंने नींद की गोलियां खाकर अपनी जान देने की कोशिश की. ईश्वर की कृपा से पापा बच गए. पर मैं जैसेे हक़ीक़त के धरातल पर उतर आई थी. मैं भी तो एक पंजाबी लड़के से प्यार करने लगी थी. पापा शायद दूसरे सदमे को सह नहीं पाएंगे. मुझे अपने बढ़ते क़दमों को रोकना होगा. उस दिन से मैंने कपूर साहब के घर जाना बंद कर दिया. लेकिन मैं इतना समझ चुकी थी कि उनके सामने रहूंगी, तो टूट जाऊंगी. अत: मैंने अपनी आगे की पढ़ाई कोलकाता में अपनी मौसी के घर रहकर पूरी करने का निर्णय लिया. जिस दिन मैं कोलकाता जा रही थी, गोलू ने मुझे एक काग़ज़ का टुकड़ा दिया, जिसमें लिखा था, 'मेरी क्या ख़ता थी?' आज भी मैं इसका उत्तर खोजती हूं, तो अपराधबोध से भर जाती हूं. पर इसके लिए भी समाज कम दोषी नहीं. पता नहीं हम ग़लत थे या यह रूढ़िवादी समाज. शायद कच्ची उम्र का प्यार ही ग़लत होता है, जो वास्तविकताओं से दूर केवल दिल को ही पहचानता है. लेकिन ये एक अनमोल ख़्वाब की तरह है, जो कभी भुलाए नहीं भूलता.- पूनम
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