पहला अफेयर: मासूम परछाइयां (Pahla Affair: Masoom Parchhaiyan)
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लम्हे तन्हाइयों के तेरी यादों का पता पूछते हैं, करूं बात भूलने की तो ख़ता पूछते हैं... आदेश का ख़त हाथों में पकड़े मैं माज़ी के सागर में गहरी उतरी हूं. तीन साल तक जिसके नाम की अंगूठी पहने रही, आज उस उंगली के निशां मुझे हैरान कर रहे हैं. धीरे-धीरे रंगीन ख़्वाबों की डोर टूटती लग रही है... ख़त क्या है- सफ़ाई का ख़ासा मज़मून! उफ़्फ़! आदी, मैंने तुमसे सफ़ाई तो नहीं मांगी थी, फिर एक ही झटके में यह रिहाई क्यों? आवेश में आकर मैं ख़त मरोड़ने लगती हूं, पन्ने बेबस परिंदों से फड़फड़ा उठते हैं. मन है कि कुछ भी मानने को तैयार नहीं.
अरे, तुम्हारे पापा इतने नासमझ तो न थे कि हमारे दिलों की धड़कनें न सुन पाएं? यह सदियों से चला आ रहा है, विजातीय होने का पत्थर रोड़ा बन दो दिलों की राहों में क्यों आ खड़ा होता है? अब माज़ी के समंदर में गोते लगाने के सिवा मेरे पास कुछ बचा ही नहीं है. उसके हर ख़त के इंतज़ार में हर आहट पर चौंक जाना मेरी फ़ितरत बन गई थी. किसी और का दामन थामना ही था, तो मुझे ख़्वाबों के इस मायाजाल में क्यों उलझाया?
मैंने आदी से फोन पर आख़िरी बार मिलने की विनती भी की थी, मैंने उसके चेहरे के बदलते रंगों को देखना चाहा था कि इंसान किस तरह यूं मुंह मोड़ लेता है? बड़ी आनाकानी के बाद अगले दिन हम कंपनी पार्क में थे. हाथ में दो भुट्टे पकड़े बड़ी ही मस्त चाल से वह मेरी तरफ़ बढ़ रहा था. मुझे अपने अंदर छिपे डर की हर आहट सुनाई दे रही थी, फिर भी मैंने साहस बटोरकर इतना कहा, “आदी, ज़रा सोचो तो मुझे इस तरह मंझधार में छोड़ दोगे, तो मेरा क्या होगा? सभी दोस्त-रिश्तेदार जानते हैं हमारे इस रिश्ते के बारे में...” मैं रुंधे गले से उसके कांधे पर सिर रख सिसक उठी... आदी ने बस इतना कहा, “जूही, प्लीज़ रो मत. देखता हूं मैं कुछ कर सकता हूं कि नहीं.” मुझे उसी मोड़ पर छोड़कर वो आगे बढ़ गया.
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मैं अपने भीतर की पीड़ा को समेटे घर लौट आई, तो मां ने भी टटोलना चाहा और मैं अपने दर्द को छिपाने में नाकाम रही. मुझे वो पल याद आने लगे, जब तुम नोट्स लेने मेरे घर चले आते थे और मां तुम्हें देखते ही झट से रसोई में जाकर बेसन घोलने लगती थी, क्योंकि तुम्हें गोभी के पकौड़े बेहद पसंद थे. मां ने तुम्हें अपने घर का सदस्य ही समझा था. लेकिन रिश्ते कितने भी पुख़्ता हों, वे जब दबे पांव लौटने लगते हैं, तो पूरे वजूद को हिला जाते हैं.
मेरी मौसी के अचानक निधन के बाद मां के संग मेरा कानपुर जाना हुआ. 15 दिनों बाद जब हम घर लौटे, तो दरवाज़ा खोलते ही एक ख़त पड़ा हुआ मिला. कमरे में आकर आदी का ख़त पढ़ा, तो मेरे सिसकने की आवाज़ मां ने भी साफ़ सुनी...
आदी ने अपने क़दम नई मंज़िल की ओर मोड़ लिए थे और मैं उसे चाहकर भी न पा सकी. अपनी सहेली अनुराधा से मालूम हुआ कि किसी बेहद अमीर पिता की इकलौती लड़की से उसके पिता ने आदी का रिश्ता जोड़ दिया है. मेरे विवाह न करने के ़फैसले ने मां को हिला दिया. उनकी आंखों में हरदम दर्द की तैरती कश्तियां मैं देख सकती हूं. शायद यह मेरा नसीब है कि आदी के दिए दर्द के जंगलों में ताउम्र भटकती रहूं. आदी ने तो मुझसे किनारा कर लिया था, लेकिन मैं उन यादों का क्या करूं, जिन्हें दिल में संभालकर रखा है. आज भी ‘पहले प्यार’ की मासूम परछाइयां मेरे मन को छूकर निकलती हैं, तो मन में एक टीस उठती है...