पहला अफेयर: धूप का टुकड़ा (Pahla Affair: Dhoop Ka Tukda)
ऋषि ने सच कहाथा! “मैं धूप हूं मीरा! मुझे पकड़ना, हथेली में भर लेना असंभव है. मैं अपने समय से आता हूं, अपने समय से आगे बढ़ जाता हूं. मुझे आज तक कोई पकड़ नहीं पाया है. सूरज को क्या कभी कोई बांधकर रख पाया है आज तक?” सच ही कहा था उसने...“मैं तो धूप हूं मीरा.”
तभी तो उसके जाते ही जीवन के एक भाग में रात की स्याही के समान अंधेरा पुत गया. सुंदर रंगों से बनती तस्वीर पर जैसे किसी ने पानी फेंक दिया हो, सारे रंग बह गए और पीछे रह गया धब्बों से भरा बदरंग कैनवास.
कितना उदास-सा जीवन था. उबाऊ... नीरस... चारदीवारी की सीलनभरी घुटन का दमघोंटू अंधेरा. जीवन में कहीं कोई झरोखा नहीं था, जहां से थोड़ी-सी रोशनी आकर ज़िंदगी के अंधेरों को कम कर देती.
यह भी पढ़ें: पहला अफेयर- हस्ताक्षरऔर ऐसे ही अंधेरों में चलते-चलते एक दिन अचानक रोशनी का एक सिरा उसके हाथ लग गया था. क़दम उस सिरे को थामकर आगे बढ़ते हुए अपना रेतीला रास्ता छोड़कर हरे-भरे रास्ते पर निकल आए. जहां चारों ओर सुंदर-सुंदर फूल खिले थे, उन पर तितलियां मंडरा रही थीं, ऊंचे-ऊंचे दरख़्त थे. दरख़्तों के पैरों में उनकी छांव तले नर्म-नाज़ुक घास अलसाई पड़ी थी.
ज़िंदगी का बोझिल कुहासा छटने लगा, चारों ओर रोशनी के साये थे. आसमान में रूई जैसे हल्के और स़फेद बादल पसरे थे. पेड़ों के पत्तों से छनकर कुंआरी धूप तितलियों के पंखों पर उड़ती, कभी फूलों की पंखुड़ियों के प्यालों में झूलती, तो कभी दूब के नर्म बिस्तर पर जा लेटती.
गहरे अवसाद से जूझता मेरा मन उस धूप को पाकर खिल उठा. उस झिलमिलाती धूप से सहमकर मेरे मन का अंधेरा न जाने किस कोने में जाकर छुप गया. साथ प्यारा हो, मनचाहा हो, तो ज़िंदगी एक ख़ुशनुमा गति की तरह मधुर बन जाती है, जिसे हर समय गुनगुनाने का मन करता रहता है.
यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: अब लौट आओ…मैं सालों बाद खुलकर मुस्कुराई थी. मेरे सपने अब हरी घास, उजली धूप के रेशमी उजाले और सुंदर फूलों के रंग से रंगे थे. एक हाथ था, जो मैं हमेशा थामे रहती, क़दम उसकी ताल पर चलते, लेकिन काल का एक क्रूर नियम है कि हर दिन के अंतिम छोर को पकड़े एक काली रात खड़ी होती है. काली, अंधेरी रात, जिसमें उजाले की सारी किरणें खो जाती हैं.
तभी तो अपने दिल की बात उस तक पहुंचाते ही उसने कहा... “मैं धूप हूं मीरा! मुझे आज तक कोई बांधकर नहीं रख पाया है. मैं तो अपनी मर्ज़ी से जहां चाहे आता-जाता हूं.”
...और वो चला गया.
मैं एक बार फिर से अंधेरों में डूबते-उतराते धूप के उस टुकड़े की तलाश में भटक रही हूं. शायद कभी उसे मेरे अंधेरों पर तरस आ जाए और वो फिर से मेरी ज़िंदगी में उजाला बिखेर दे.
- डॉ. विनिता राहुरीकर