पहला अफेयर (Pahla Affair) : चंपा के फूल कभी-कभी न चाहते हुए भी हठात् कोई मन के द्वार ज़ोर-ज़बरदस्ती से खुलवाकर मन में बलपूर्वक प्रवेश कर ही जाता है. द्वार पर चाहे संस्कारों, आदर्शों के कितने भी भारी-भरकम ताले क्यों न लगे हों, सेंध कहां से लगती है, पता नहीं चलता. कहां तो नींव डोल जाती है, कहां तो दीवारें कच्ची रह जाती हैं... या क्याA पता, अपना ही मन पापी चोर बनकर सारे संस्कारों, आदर्शों को ताक पर रखकर चुपके से स्वयं ही द्वार खोल देता हो. किसे पता चलता है?
बड़ा नाज़ था ख़ुद पर कि मेरे मन को कोई छू नहीं सकता. लेकिन जिस दिन उन्हें देखा, लगा कि अपने आप पर नाज़ करना मेरा भ्रम था. कब एक-एक संस्कारों, आदर्शों के ताले टूटते चले गए पता ही नहीं चला. पता चल ही जाता तो ये पीड़ा, ये छटपटाहट होती ही क्यूं? मन में चौबीसों घंटे ये दाह भी क्यों रहता?
यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: कच्ची उम्र का प्यारआते-जाते हुए क़दम दरवाज़े पर पल भर के लिए अपने आप ही ठिठक जाते. ठिठकने का समय चाहे कितना ही कम क्यों न हो, इतना भी कम नहीं होता था कि जाना ही न जा सके. एक ओर किसी को नज़रभर देख लेने का ज़बरदस्त लोभ और दूसरी ओर किसी की नज़र में न आ जाए, इसका डर. न तो एक झलक देख पाने के लोभ का संवरण किया जा सकता था और न ही लोक-लाज के भय को ही त्यागा जा सकने का साहस जुटाया जा सकता था. अजीब असमंजस की स्थिति थी. एक तरफ़ दिल मुझे उनकी ओर खींचता था, तो दूसरी तरफ़ लोक-लाज का डर क़दमों की बेड़ियां बनकर मुझे रोक लेता था.
दिल की हालत अजीब होती जा रही थी. मैं हंसना-खेलना भूल गई थी. हमेशा उदास और चुप रहती. एक दिन शाम को पार्क में जाने का प्रोग्राम बना. घर भर के बच्चों को लेकर जाने का ज़िम्मा मुझ पर और उन पर ही पड़ा. पार्क में सारे बच्चे खेलने लगे. वे पता नहीं कहां चले गए. मैं घास पर चुपचाप बैठ गई.
"अब ज़रा पीछे देखो." अचानक उनकी आवाज़ सुनकर मैंने पीछे देखा. अंजुल भर चंपा के फूल लेकर वे मेरे पीछे बैठे थे. सुनहरे पीले किनारीवाले हल्के पीले, स़फेद चंपा के सुवासित फूल हृदय की गहराइयों तक उतर गए थे. उनकी सुगंध हृदय की गहराइयों में कोने-कोने को महका गई. मेरे तन और मन दोनों को अपनी गंध में सराबोर कर गई. न जाने कब किस क्षण दरवाज़े पर उन्हें देखने को ठिठके हुए मेरे क़दमों ने उनके मन के द्वार पर दस्तक दे दी थी.
यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: यादों का झोंकाचंपा के उन फूलों ने मुझे प्यार और विश्वास के नर्म-मुलायम, मगर मज़बूत धरातल पर खड़ा कर दिया. विश्व का संपूर्ण स्नेह, विश्वास और प्रेम सिमटकर उनकी आंखों में समा गया था. अब मुहब्बत के कई फूल हमारे दिल में खिल चुके थे. लोक-लाज क्या होती है, दुनिया की रीत क्या कहती है जैसी तमाम बातें प्यार के गहरे, अथाह सागर के सामने अब गौण लग रही थीं. चंपा के ये फूल मेरे जीवन को इस तरह से महका देंगे सोचा ही न था. अब बस मैं थी, वो थे और हमारे बीच पनप रही हमारी मुहब्बत के गवाह ये चंपा के फूल ही हमारे दरमियां थे... "इन फूलों को और मेरे प्यार को हमेशा अपने मन और जीवन में संभालकर रखना." कहते हुए उन्होंने सारे फूल मेरी गोद में डाल दिए... उस रोज़ जैसे मेरे दामन ने प्यार की मीठी ख़ुशबू को इन चंपा के फूलों के रूप में ताउम्र के लिए समेट लिया हो... अठारह साल हो गए, आज भी चंपा के उन फूलों की सुगंध हृदय में बसी हुई है और फूलों की उन पंखुड़ियों की सुगंध हमारे जीवन को महका रही है...
- विनिता राहुरीकर