अकेले वरुण धवन के कंधे पर ‘बेबी जॉन’ जैसी फिल्म पार लगाने की ज़िम्मेदारी थी, लेकिन वो हो ना सका. क़रीब पौने तीन घंटे की फिल्म दर्शकों के साथ कुछ अधिक ज़्यादती करती हुई नज़र आती है. समझ में नहीं आता कि फिल्म को एडिट क्यों नहीं किया गया. कई बेवजह के गानों के कारण भी फिल्म की फ्लो बाधित होती रहती है.
शुरू से अंत तक फिल्म में वरुण धवन छाए रहे. कभी डीसीपी सत्या वर्मा के क़िरदार में तो कभी गुमनामी की ज़िंदगी जीते जॉन के रूप में. उनकी बेटी ख़ुशी, जारा जियाना चूंकि अपने पिता को बेबी… बुलाती रहती है, इस करके फिल्म का नाम ‘बेबी जॉन’ रखना कुछ अजीब सा लगता है. ख़ैर यह निर्माता-निर्देशक का सिरदर्द है.
फिल्म का एक्शन काबिल-ए-तारीफ़ है. एक्शन के साथ इमोशनल सीन में भी वरुण बाज़ी मार जाते हैं. उनका साथ कीर्ति सुरेश व वामिका गब्बी ने बख़ूबी निभाया है. निर्देशक कालीस की यह हिंदी फिल्म के निर्देशन की पहली कोशिश है, जिसमें वे एक्शन में तो कामयाब रहे, लेकिन भावनात्मक दृश्यों में मात खा गए.
तमिल की सुपरहिट फिल्म ‘थेरी’ की रीमेक ‘बेबी जॉन’ शायद ही कोई कमाल बॉक्स ऑफिस पर दिखा पाए. दरअसल, कहानी और पटकथा पर बहुत अधिक काम करने की ज़रूरत थी, जो नहीं हो पाया. खलनायक नाना के रूप में जैकी श्रॉफ बिल्कुल भी फिट नहीं बैठते. यदि किसी और को लिया होता, तो बेहतर रहता.
आमतौर पर राजपाल यादव से हम कॉमेडी की ही उम्मीद करते हैं. यहां पर उन्हें गंभीर क़िरदार के साथ सिपाही की भूमिका में देखना अच्छा लगा. उन्होंने सीरियस रोल में अपनी अभिनय क्षमता को बख़ूबी साबित किया है.
अंत में कैमियो के रूप में सलमान खान को क्यों लिया गया, यह समझ से परे है. अब समय आ गया है कि फिल्ममेकर्स को समझना होगा कि पब्लिक इतनी भी नादान नहीं, जितना वे समझते हैं. इस तरह कैमियो के रूप में वे जो गेम खेलते हैं, वो सही नहीं है.
एस. थमन की म्यूज़िक दिलों को नहीं लुभाती. किरण कौशिक की सिनेमैटोग्राफी बढ़िया है. कालीस, एटली और सुमित अरोड़ा तीनों मिलकर भी फिल्म की कहानी के साथ न्याय नहीं कर पाए. वैसे लड़कियों की ट्रैफिकिंग, रेप जैसे गंभीर मुद्दे भी हैं.
एडीटर रूबेन को फिल्म को और भी एडिट करना था.
लेखनी के साथ निर्माता के तौर पर भी एटली ज्योति देशपांडे और मुराद खेतानी के साथ जुड़े हुए हैं. अन्य कलाकारों में शीबा चड्ढा, सोनाली शर्मिष्ठा, ओंकारदास मानिकपुरी व जाकिर हुसैन ठीक-ठाक रहे.
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