‘अरे बहनजी एक बात बतानी थी. आज सुबह मैं मिसेज़ गुप्ता के घर गई थी और मैंने देखा कि उनका बेटा झाड़ू-पोछा कर रहा था. मैं तोहैरान हो गई, भला ये भी कोई लड़कों का काम है?’
मिसेज़ मिश्रा ने ये बात मिसेज़ जोशी को बताई तो मिसेज़ जोशी की बेटी ने कहा- ‘आंटी इसमें क्या ग़लत है. गुप्ता आंटी को दो दिन से बुख़ार है और उनकी काम वाली भी छुट्टी पर है, तो बेटा ही करेगा न और अपने ही तो घर का काम किया है.’
‘देखो बेटा मुझे पता है तुम ज़्यादा ही मॉडर्न हो लेकिन कुछ काम सिर्फ़ लड़कियों के ही होते हैं, लड़कों को शोभा नहीं देता कि वो घर काझाड़ू-पोछा भी करें.’ मिसेज़ मिश्रा ने तुनककर कहा.
दरअसल हमारा सामाजिक ढांचा कुछ ऐसा बना हुआ है कि हम कभी भी महिला और पुरुष को समान नज़रों से नहीं देखते. अगर किसीघर में कोई लड़का झाड़ू लगाता या किचन में ख़ाना पकाता दिख जाए तो वो इसी तरह गॉसिप का विषय बन जाता है.
- हमारे परिवारों में आज भी अधिकांश लोग लिंग के आधार पर ही काम को तय करते हैं.
- लड़कियों को शुरू से ही एक कुशल गृहणी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है.
- वो पढ़ाई में कितनी भी अच्छी हो लेकिन जब तक वो गोल रोटियां बनाने में निपुण नहीं हो जाती उसे गुणी नहीं माना जाता.
- घर के काम लड़कियां करती हैं और बाहर के काम पुरुष- यही सीख बचपन से दी जाती है और यही धारणा सबके मन में बैठजाती है.
- यही वजह है कि आज भी फ़ायनेंस और प्रॉपर्टी से जुड़े काम महिलाएं करने से हिचकती हैं.
- शादी से पहले बैंक, प्रॉपर्टी, बिल पेमेंट्स यानी फ़ायनेंस से जुड़े तमाम काम उनके पिता या भाई करते थे और शादी के बाद उनकेपति.
- पुरुषों को तो जाने ही दो ख़ुद महिलाएं भी यही सोच रखती हैं कि बैंक, लेन-देन या कोई भी इस तरह के काम तो मर्दों के ही होतेहैं.
- यहां तक की पढ़ी-लिखी और कामकाजी महिलाएं भी यही सोच रखती हैं, क्योंकि उनके भीतर वो आत्मविश्वास पैदा ही नहींहोता कि ये काम हम भी कर सकती हैं.
मिस्टर शर्मा के घर गांव से उनकी भांजी कुछ दिन मुंबई घूमने के लिए आई थी. जब वो वापस गई तो मिस्टर शर्मा को गांव से उनके कईरिश्तेदारों के फ़ोन आए और सबने यही कहा कि ये हम क्या सुन रहे हैं, घर की साफ़-सफ़ाई तुम करते हो और यहां तक कि किचन मेंकाम भी करवाते हो. घर की औरतों को शर्म आनी चाहिए और तुमको भी.
मिस्टर शर्मा ने उनसे बहस करना ठीक नहीं समझा लेकिन सच यह था कि वो अर्ली रिटायरमेंट ले चुके थे. उनको घर में बैठने की आदतनहीं थी और वो सुबह जल्दी उठ जाते थे. उनकी बहू कामकाजी थी, उसकी शिफ़्ट ही कुछ ऐसी थी कि लेट नाइट तक काम करना पड़ताथा. ऐसे में मिस्टर शर्मा अपनी वाइफ़ और बहू की मदद के लिए सुबह जल्दी उठने पर उस वक्त का सदुपयोग कर लेते थे.
उनके घर पर सभी मिल-जुलकर काम एडजस्ट करते थे, जिसमें उनको तो कोई दिक़्क़त नहीं थी लेकिन बाक़ी लोगों को काफ़ी परेशानीथी.
कामवाली इसलिए नहीं लगाई थी कि उनका भरोसा नहीं कि कभी आए, कभी न आए, समय का भी ठिकाना नहीं उनका तो इससे बेहतरहै अपना काम ख़ुद कर लें.
- हम ऊपरी तौर पर तो मॉडर्न बनते हैं और लिंग भेद को नकारने की बातें करते हैं, लेकिन हमारे व्यवहार में, घरों में और रिश्तों में वोयह भेदभाव साफ़ नज़र आता है.
- घरेलू काम की ज़िम्मेदारियां स़िर्फ बेटियों पर ही डाली जाती हैं. बचपन से पराए घर जाना हैकी सोच के दायरे में ही बेटियों की परवरिश की जाती है.
- यही वजह है कि घर के काम बेटों को सिखाए ही नहीं जाते और उनका यह ज़ेहन ही नहीं बन पाता कि उन्हें भी घरेलूकाम आने चाहिए.
- बेटियों को पराए घर जाने की ट्रेनिंग देने की बजाय उनको आत्मनिर्भर बनाएं.
- बेटे-बेटियों में फ़र्क़ होता है ये सोच न लड़कों के मन में और न लड़कियों के मन में पनपने दें.
- अगर बड़ी बहन बाहर से आई है तो छोटा भाई उसको पानी लाकर दे सकता है.
- अगर मम्मी और बहन खाना बना रही है तो भाई भी झाड़ू-पोछा लगा सकता है.
- पानी लेना, चाय बनाना, अपने खाने की प्लेट ख़ुद उठाकर रखना, अपना सामान समेटकर सली़के से रखना आदि काम बेटों कोभी ज़रूर सिखाएं.
- घर पर मेहमान आ जाएं और अगर घर की बेटी रसोई में हेल्प कर रही है तो घर का बेटा उनको ख़ाना, नाश्ता सर्व क्यों नहीं करसकता. वो उनकी प्लेट्स उठाकर क्यों नहीं ले जा सकता?
- सब मिलकर करेंगे तो काम जल्दी और बेहतर होगा.
- बच्चों के मन में लिंग के आधार पर काम के भेद की भावना कभी न जगाएं.
- खाना बनाना हो या घर की साफ़-सफ़ाई, बेटों को कभी भी इन कामों के दायरे में लाया ही नहीं जाता, लेकिन यदि कभी ऐसीनौबत आ जाए कि उन्हें अकेले रहना पड़े या अपना काम ख़ुद करना पड़े, तो बेहतर होगा कि उन्हें इस मामले में भी बेटियों की तरहही आत्मनिर्भर बनाया जाए.
- बेसिक काम चाहे घर के हों या बाहर के वो सभी को आने चाहिएं.
- बेटा या बेटी को आधार बनाकर एक को सारे काम सिखा देना और दूसरे को पूरी छूट दे देना ग़लत है.
- दोनों को ही सारे ज़रूरी काम सिखाएं, चाहे वो बैंकिंग से जुड़ा हो या फिर किचन से.
- उनमें निर्णय लेने और हर काम करने का कॉन्फ़िडेंस होना ज़रूरी है तभी वो आगे बढ़ेंगे.
- लेकिन इसके लिए हर घर के बड़ों को अपनी सोच विस्तृत करनी होगी, तभी बदलाव संभव है और इसमें अभी काफ़ी वक़्त लगेगाक्योंकि हमारा समाज आज भी कुछ पारंपरिक सोच से उबरा नहीं है.
- गीता शर्मा