तुम मेरे जीवन में न होकर भी हमेशा मेरी स्मृतियों में रहे. मैं तुम्हें भूला नहीं पाई या ये कहूं कि मैंने तुम्हें भुलाने की कोशिश ही नहीं की. ज़िंदगी की लय में तुम जब तब याद आते रहे हो. मुझे तुमसे कोई गिला नहीं है.
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बरसों बाद अपने बचपन के स्कूल जाने का मौक़ा मिला. बी.एड. के प्रक्षिणार्थियों के प्रैक्टिल लेना था. तीस विद्यार्थियों का शेड्यूल बनाया. कौन किस पीरियड में क्लास लेगा. कौन शिक्षक किस क्लास मे परिवेक्षक बनेगा. बड़ा ही सिरदर्द वाला काम था. लगातार काम करते हुए मैं बुरी तरह से थक गई.
स्टाफ रूम में जाकर कुर्सी के पीछे सिरहाने से सिर टिकाकर बैठ गई. एक कप चाय की तलब हुई, तो स्टाफ हेल्पर को बोलकर पूर्ववत अवस्था में बैठ गई. मन भारी हो गया था. एक तो बचपन का पुराना गलियारा जहां जीवन जीने के सबक सीखने की शुरुआत हुई थी, मैं ख़ुद को भावुक होने से रोक नहीं पा रही थी. वहीं कोई और भी था जो अनवरत याद आ रहा था, जिसके कारण मेरी आंखें बार-बार नम हुई जा रही थीं. मैं बमुश्किल से जज़्ब किए हुए थी. 40 साल पहले का समय चलचित्र की भांति मेरे सामने आ खड़ा हुआ.
पापा का स्थानांतरण इस शहर में हुआ था. बीच सेशन में मैंने इस स्कूल मे एडमिशन लिया. पहला दिन कुछ सकुचाया सा कुछ घबराया सा था. बैग, पानी की बोतल संभालती हुई मैं क्लास में एंटर हुई. घबराहट में जाने कैसे पैर फिसल गया और मैं धड़ाम से गिर गई. बोतल दूर जाकर गिरी और बैग कंधे से उतरकर सिर के ऊपर झूल गया. पूरी क्लास के सामने गिरने से मैं शर्म से पानी-पानी हो गई. चोट कहां लगी, इसका होश कहां था.
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“मे आई हेल्प यूं…” मुस्कराते हुए एक चेहरे ने अपना हाथ आगे बढ़ाया. मासूम सा चेहरा, काली आंखें और खिलती मुस्कान से यह मेरा पहला परिचय था. उसकी मुलायम हथेलियों ने मुझे थामकर उठा दिया. वो पहला स्पर्श, वो नज़रें, वो पल आज भी मेरी आंखों में ज्यों की त्यों क़ैद हैं, जिसे मैं स्मृतियों में देख तो सकती हूं, मगर दोहरा नहीं सकती. तुम मेरे लिए अधूरे ख़्वाब की तरह हमेशा मेरे साथ रहते हो. ज़रूरी नहीं कि हर ख़्वाब मुकम्मल हो जाएं, कुछ ख़्वाबों की क़िस्मत में अधूरा रह जाना ही लिखा होता है.
कुछ हथेलियों पर विधाता लकीरों का जाल बनाकर भेजता है, मगर उन लकीरों में मनपसंद ख़्वाब की ताबीर न हो, तो जीवन रुसवा हो जाता है. हाथों की लकीरें बेमानी हो जाती हैं और हथेलियां खाली रह जाती हैं. उस दिन के बाद मैं तुम्हारी मुरीद हो गई थी. सोते-जागते तुम्हारा ख़्याल रहता. दसवीं के बाद मैंने बाकी क्लासेस उसी स्कूल से पास आउट की. फैकल्टी अलग होने के बावजूद हम दोनों की यदा-कदा बातचीत हो जाती थी. आते-जाते जब भी नज़रेें मिलतीं, होंठों पर मुस्कान आ जाती. मेरा प्रेम तुम्हारे प्रति बढ़ता ही जा रहा था, लेकिन तुम्हारे दिल में क्या चल रहा है, इस बात से मैं अभी तक अनभिज्ञ थी.
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मैं अपने सारे राज़ अपनी सहेली जैसी दीदी से शेयर करती थी. एक दिन उन्होंने कहा, “तू जिसके सपनों में दिन-रात खोई रहती है, जिसके लिए अपने आपको जाया कर रही है, एक बार उससे पूछकर तो देख, तू उसकी मोहब्बत है भी या नहीं.” दीदी की बात सुनकर झटका लगा. बारहवीं की फेयरवेल के दिन मैंने तुमसे अपना हाल-ए-दिल बयां कर दिया. तुम सब शांति से सुनते रहे. तुम्हारे चेहरे पर चुप्पी थी, लेकिन तुम्हारे चेहरे पर भाव आ जा रहे थे, जिससे मुझसे घबराहट हो रही थी.
“मैंने तुम्हें एक सहपाठी से ज़्यादा कुछ नहीं समझा. मेरे मन में तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं है.” यह सुनते ही मेरा दिल टूट गया. तुम तो मुझे दोस्त भी नहीं मानते. इश्क़ करना तो दूर की बात थी. उस दिन से हम दोनों की राहें हमेशा के लिए अलग हो गईं.
तुम मेरे जीवन में न होकर भी हमेशा मेरी स्मृतियों में रहे. मैं तुम्हें भूला नहीं पाई या ये कहूं कि मैंने तुम्हें भुलाने की कोशिश ही नहीं की. ज़िंदगी की लय में तुम जब तब याद आते रहे हो. मुझे तुमसे कोई गिला नहीं है. तुम अपनी तरफ़ से साफ़ थे, यह तो मेरे ही दिल का क़सूर था, जो बिना सोचे-समझे तुमसे इश्क़ कर बैठा.
मेरा इश्क़ अबूझ पहेली जैसा
जिसे मैं ख़ुद ही न सुलझा सकी
उलझे धागों की गांठ जैसी मैं
न खुल सकी न बंधी रह सकी
तुम जहां भी रहो, ख़ुश रहो दोस्त. तुम्हारी यह सहपाठी तुम्हारी ख़ुुशियों के लिए हमेशा प्रार्थना करती रहेगी.
- शोभा रानी गोयल
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